रविवार, 7 अक्तूबर 2007

दस कविताएं - अलका सिन्हा




(1) नए वर्ष की पहली कविता

नए वर्ष की पहली कविता का इंतज़ार करना
जैसे उत्साह में भरकर सुबह-शाम
नवजात शिशु के मसूढ़े पर
दूध का पहला दांत उंगली से टटोलना।

मगर मायूस कर देते हैं प्रकाशक
कि कविता की मांग नहीं है आजकल
जैसे कि डॉक्टर खोलती है भेद
ऐन तीसरे माह– गर्भ में लड़की के होने का।

मायूसी होती है कि क्या करना है
किसी लड़की-सी कविता को रचकर
जिसकी आस ही नहीं किसी को
जो उपयोगी ही नहीं
जला दी जाए जो संपादक की रद्दी में
या फिर खुद ही कर बैठे आत्मदाह
किसी की हवस का शिकार होकर।

रचने से पहले ही थक जाती है कलम
सूख जाती है सियाही
हो जाती है भ्रूण-हत्या
नए वर्ष की पहली कविता की।


(2) कौन है जो

ये कौन है जो मेरे साथ-साथ चलता है
ये कौन है जो मेरी धड़कनों में बजता है
मुस्कराता है मेरी बेचैनियों पर
दिन-रात मुझसे लड़ता है।

रोकता है कभी जुबां मेरी
कभी बात करने को मचलता है
टीसता है ज़ख़्म का दर्द बनकर
कभी दर्द पर मरहम रखता है।
झटक के हाथ सरक जाता है कभी
कभी उम्र-भर साथ निभाने की कसम भरता है।

भीड़ में हो जाता है गुमसुम
खामोशियों में बजता है
ये कौन है जो मेरे चेहरे पर
नूर-सा चमकता है!



(3) मधुमास

सुबह की चाय की तरह
दिन की शुरुआत से ही
होने लगती है तुम्हारी तलब
स्वर का आरोह
सात फेरों के मंत्र-सा
उचरने लगता है तुम्हारा नाम
ज़रूरी- गैर ज़रूरी बातों में
शिकवे-शिकायतों में

ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी कठिनाइयों में
उसी शिद्दत से तलाशती हूँ तुम्हें
तेज सिरदर्द में जिस तरह
यक-ब-यक खोलने लगती हैं उंगलियाँ
पर्स की पिछली जेब
और टटोलने लगती हैं
डिस्प्रिन की गोली।

ठीक उसी वक्त
बनफूल की हिदायती गंध के साथ
जब थपकने लगती हैं तुम्हारी उंगलियाँ
टनकते सिर पर
तब अनहद नाद की तरह
गूंजने लगती है ज़िन्दगी
और उम्र के इस दौर में पहुँचकर
समझने लगती हूँ मैं
मधुमास का असली अर्थ।




(4) मैं तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ

मैं लौट जाना चाहती हूँ
शब्दों की उन गलियों में
जहाँ से कविताएँ गुजरती हैं
कहानियों की गलबहियाँ डाले।

मेरी तमाम परेशानियों, नाकामियों के विष को
कंठस्थ कर लेने वाली नीलकंठ कलम
मुझे रचने का सौंदर्य दे
कि मैं स्याही से लिख सकूँ
उजली दुनिया के सफेद अक्षर।

मुझे जज्ब कर हे कलम !
मैं तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ।

मैं कागज की देह पर
गोदने की तरह उभर आना चाहती हूँ
और यह बता देना चाहती हूँ
कि कागज की संगमरमरी देह पर लिखी
शब्दों की इबारत
ताजमहल से बढ़कर खूबसूरत होती है।

मुझे गढ़ने की ताकत दे हे ब्रह्म !
मैं संगतराश होना चाहती हूँ।

अपने मान-अपमान से परे
अपने संघर्ष, अपनी पहचान से परे
नाभि से ब्रह्मांड तक गुंजरित
शब्द का नाद होना चाहती हूँ।

मुझे स्वीकार कर हे कण्ठ
मैं गुंजरित राग होना चाहती हूँ।



(5) एक लड़की की शिनाख़्त

अभी तो मैंने
रूप भी नहीं पाया था
मेरा आकार भी
नहीं गढ़ा गया था
स्पन्दनहीन मैं
महज़ मांस का एक लोथड़ा
नहीं, इतना भी नहीं
बस, लावा भर थी...

पर तुमने
पहचान लिया मुझे
आश्चर्य !
कि पहचानते ही तुमने
वार किया अचूक
फूट गया ज्वालामुखी
और बिलबिलाता हुआ
निकल आया लावा
थर्रा गई धरती
स्याह पड़ गया आसमान।

रूपहीन, आकारहीन,
अस्तित्वहीन मैं
अभी बस एक चिह्न भर ही तो थी
जिसे समाप्त कर दिया तुमने।

सोचती हूं कितनी सशक्त है
मेरी पहचान
कि जिसे बनाने में
पूरी उम्र लगा देते हैं लोग।

जीवन पाने से भी पहले
मुझे हासिल है वह पहचान
अब आवश्यकता ही क्या है
और अधिक जीने की !

मुझे अफसोस नहीं
कि मेरी हत्या की गई !


(6) अंतिम सांस तक

ग्राहक को कपड़े देने से ठीक पहले तक
कोई तुरपन, कोई बटन
टांकता ही रहता है दर्जी।

परीक्षक के पर्चा खींचने से ठीक पहले तक
सही, गलत, कुछ न कुछ
लिखता ही रहता है परीक्षार्थी।

अंतिम सांस टूटने तक
चूक-अचूक निशाना साधे
लड़ता ही रहता है फौजी।

कोई नहीं डालता हथियार
कोई नहीं छोड़ता आस
अंतिम सांस तक।


(7) अख़बार की ज़मीन पर

लिखी जा रही हैं कविताएं
अख़बार की ज़मीन पर।

फड़फड़ा रहे हैं कहानियों के पन्ने
पुस्तकालयों के रैक्स पर।

खींसें निपोर रहे हैं श्रोता
मंच के मसखरों पर।

बांग दे रहे हैं आलोचक
टी.वी. स्क्रीन पर।

मंत्रणा हो रही है विद्वान, मनीषियों में
कि बांझ हो गई है लेखनी।

उधर जंगल में नाच रहा है मोर !





(8) गुलमोहर

वृक्ष ने आवेश में भर लिया
पत्तियों को
अपनी बलिष्ठ बांहों में
बेतरह।

पत्तियाँ लजाईं,
सकुचाईं
और हो गईं –
गुलमोहर ।

(9) ज़िन्दगी की चादर

ज़िन्दगी को जिया मैंने
इतना चौकस होकर
जैसे कि नींद में भी रहती है सजग
चढ़ती उम्र की लड़की
कि कहीं उसके पैरों से
चादर न उघड़ जाए।



(10) भंडार घर

पहले के गाँवों में हुआ करते थे
भंडार घर
भरे रहते थे
अन्न से, धान से कलसे
डगरे में धरे रहते थे
आलू और प्याज
गेहूं-चावल के बोरे
और भूस की ढेरी में
पकते हुए आम।

नई बहुरिया घर आती थी
तो उसके हाथों
हर बोरी, हर कलसा,
हर थाल, हर डगरा,
छुलाया जाता था
कि द्रौपदी का ये कटोरा
सदा भरा रहे।

यहाँ हमारे फ्लैट में भी है
एक स्टोर
छूती हूँ यहाँ के कोने
कलसे, थाल और डगरे
तो कई भूली चीजें
हाथ लग जाती हैं
मसलन–
बच्चों के छोटे हो गये जूते
पिछले साल की किताबें
बासी अखबार, मैगज़ीन
पुराने लंच-बॉक्स और बस्ते

संघर्ष भरे दिनों की याद दिलाती–
फोल्डिंग चारपाई
पानी की बोतल
लोहे वाली प्रेस
चटका हुआ हेल्मेट
और खंडित हो गईं
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी।

यों मेरा रोज का रिश्ता नहीं है स्टोर से
लेकिन मैं चाहे कहीं रहूँ
तेज बरसात में
सबसे पहले चिंता होती है स्टोर की
डरती हूँ कि जालीदार खिड़की से
पानी भीतर आ जाएगा
और डूब जाएँगी
अनेक तहों में रखीं
कई ज़रूरी चीजें
जिन्हें बरसों से देखा नहीं मैंने
जिनकी याद तक नहीं मेरे ज़ेहन में
पर जो बेहद कीमती हैं
बूढ़े मां-बाप की तरह।

सोचती हूँ-
कि बिखरे हुए घर की पूर्णता के लिए
भंडार-घर की तरह ही
कितना अहम है
बहु-मंजिली इमारतों की भीड़ में
छोटे-से फ्लैट का
मामूली-सा ये कोना
जो समेटता है अपने भीतर
सारे शहरी बिखराव को
घर के बड़े-बूढ़ों की तरह
जो पी लेते हैं
बहुत कुछ कड़वा, तीखा
ताकि रिश्तों में मिठास बची रहे।

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अलका सिन्हा
371, गुरु अपार्टमेंट्स
प्लॉट नं0 2, सेक्टर–6,
द्वारका, नई दिल्ली–110075
ई-मेल : alka_writes@yahoo.com

मोबाइल – 09868424477

11 टिप्‍पणियां:

durgesh ने कहा…

beinthan khoobsoorat kavitaayen...!

Kavi Kulwant ने कहा…

It was nice to see Alka's Poems in Vaatika..poems are good.

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

वाटिका का आरंभ आपकी कविताओं से होना वाटिका को खूब महकाएगा। ब्लाग के रथी, पर हमारे लिए महारथी सुभाष नीरव भाई। जितना पत्रिका का प्रस्तुतीकरण बेहतरीन है। उससे अधिक बेहतरीन हैं आपकी कविताएं। एेसी कविताएं न पलों में लिखी जाती हैं, न महलों में। अनुभव और जीवन की तल्ख सच्चाईयों का आईना हैं ये। अधिक अभी नहीं। बाद में फुरसत से।


अविनाश वाचस्पति
09868166586

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

वाटिका की शुरुआअत के लिए आपने अभुत बेहतरीन कविताओं का चयन किया है. अलका जी को इन बेहत अर्थपूर्ण कविताओं के लिए खूब-खूब बधाई.

दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

सम्पादक - इन्द्रधनुष इण्डिया

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

प्रत्येक कविता भाव पूर्ण, हृदय को छू लेने वाली, बहुत सुंदर!

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

अच्छा लगा आपके ब्लॉग ''वाटिका'' की प्रस्तुति देखकर,आपने अलका जी की अर्थपूर्ण कविताओं का चयन किया है,उम्दा कविताओं का क्रम बनाए रखें.बधाई.

Yogendra Krishna ने कहा…

Aapki vatika mein srijan ki sarthakta aur sarokar ka sukh mila... Alka Sinha ki kavitaon ke sath iski shuruat ke liye meri badhai evam shubhkamnae... Kavitaen bahut achchi hain.

Yogendra Krishna
phone:9835070164

सुभाष नीरव ने कहा…

प्रिय दुर्गेश जी, कुलवंत जी, अविनाश जी, दुर्गाप्रसाद जी, चौहान जी, रवीन्द्र जी एवं योगेन्द्र जी… आप सबका हृदय से आभारी हूँ कि आपने "वाटिका" और इसमें प्रकाशित अलका जी की कविताओं पर अपनी टिप्पणी दी। आपकी ये टिप्पणियाँ हमारे लिए अमूल्य हैं और हमें भविष्य में और अच्छा करने के लिए प्रेरित करेंगी। आशा है, आप आगे भी "वाटिका" का अवलोकन करते रहेंगे और अपनी टिप्पणियों से हमारा हौसला बढ़ाते रहेंगे।

विनीत कुमार ने कहा…

नाम के मुताबिक ही आपका ब्लॉग भी है। इतने फूल देखे तो जमाना हो गया। सड़कों पर फूल बेचनेवाले के पास थोडी देर रुकता हूं तो पूछने लगता है कि कौन-सा चाहिए मतलब कट लो खाली-पीली मत करो भाई,अच्छा लगा, आंखों के अनुकूल है

SMYK ने कहा…

thnx lot for that unknown friend who send me link of this beautiful blog. I will not lie, generally I don,t read poems, but sitting in my office and in -khali waqat- I just gone through Alka sinha,s poem, really very very thought provoking poems. Please contribute more for this blog. so, that people who don,t know much about all these things, stay little and enjoy them. thnx.

Yusuf Kirmani, 9818028619

ओमप्रकाश यती ने कहा…

अलका जी की कविताएँ बहुत ही सुंदर और भावपूर्ण हैं......"अंतिम साँस तक" तो बहुत अच्छी लगी ...साधुवाद .