सोमवार, 21 अप्रैल 2008

दस कविताएं - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

इस पोस्ट के सभी चित्र : अवधेश मिश्र

(1) ओ चिरैया




ओ चिरैया !
कितनी गहरी
हुई है तेरी प्यास !

जंगल जलकर
ख़ाक हुए हैं
पर्वत –घाटी
राख हुए हैं ,
आँखों में
हरदम चुभता है
धुआँ-धुआँ आकाश ।

तपती
लोहे-सी चट्टानें
धूप चली
धरती पिंघलाने
सपनों में
बादल आ बरसे
जागे हुए उदास ।

उड़ी है
निन्दा जैसी धूल,
चुभन-भरे
पग-पग हैं बबूल
यही चुभन
रचती है तेरी –
पीड़ा का इतिहास ।


(2) इस सभा में चुप रहो




इस सभा में
चुप रहो
हुआ बहरों का
आगमन ।

ये खड़े हैं
आईने के सामने
यह जानते हैं –
अपने ही
दाग़दार
चेहरे नहीं पहचानते हैं ।
तर्क का
उत्तर बचा
केवल कुतर्कों
का वमन ।

बीहड़ से चल
हर घर तक
आ चुके हैं
भेड़िए ।
हैं भूख से
व्याकुल बहुत
इनको तनिक न
छेड़िए ।
लपलपाती
जीभ खूनी
ज़हर भरे इनके वचन ।

हलाल इनके
हाथ से
जनता हुई है
आजकल ।
काटते रहेंगे हमेशा
लूट-डाके की फ़सल ।
याद रखना
उतार लेंगे
लाश का भी
ये कफ़न ।


(3) लौटते कभी नहीं




लौटते कभी नहीं
आँसू में गाए दिन
ओस में नहाए दिन ।

सुधियों कि गोद में
रात-रात जागकर
भारी पलकों में सजे
उलझी अलकों में सजे
बीते जो तुम्हारे बिन
लौटते नहीं कभी ।

पहुँच किसी मोड़ पर
रिश्ते सभी छोड़कर
फिर दूर तक निहारते
उस प्यार को पुकारते
फिसले हाथ से जो छिन
लौटते कभी नहीं ।


(4) तुम बोना काँटे




तुम बोना काँटे
क्योंकि फूल न पास तुम्हारे।

बो सकते हो
वही सिर्फ़ जो
उगता दिल में,
चरण पादुका
ही बन सकते
तुम महफ़िल में।
न देव शीश पर चढ़ते काँटे
साँझ सकारे ।

हँसी किसी की
अरे पल भर भी
सह न पाते,
और बिलखता देख किसी को
तुम मुस्काते ।
जो डूबते
उनको देखा
बैठ किनारे।

जीवन देकर भी है हमने
जीवन पाया,
अपने दम से
रोता मुखड़ा
भी मुस्काया।
सौ­-सौ उपवन
खिले हैं मन में
तभी हमारे ।



(5) कहाँ गए?




कहाँ गए
वे लोग
इतने प्यार के,
पड़ गए
हम हाथ में
बटमार के।

मौत बैठी
मार करके कुण्डली
आस की
संझा न जाने
कब ढली
भेजता पाती न मौसम
हैं खुले पट
अभी तक दृग- द्वार के।

बन गई सुधियाँ सभी
रात रानी
याद आती
बात बरसों पुरानी
अब कहाँ दिन
मान के, मनुहार के।

गगन प्यासा
धूल धरती हो गई
हाय वह पुरवा
कहाँ पर सो गई
यशोधरा –सी
इस धरा को छोड़कर
सिद्धार्थ- से
बादल गए
इस बार के।


(6) दिन डूबा




दिन डूबा
नावों के
सिमट गए पाल।

खिंच गई नभ में
धुएँ की लकीर
चढ़ गई
तट पर
लहरों की पीर
डबडबाई
आँख- सा
सिहर गया ताल ।

थककर
रुक गई
बाट की ढलान,
गुमसुम
सो गया
चूर ­चूर गान
हिलते रहे
याद के दूर तक रूमाल।


(7) उदास छाँव




नीम पर बैठकर नहीं खुजलाता
कौआ अब अपनी पाँखें
उदास उदास है अब
नीम तले की शीतल छाँव ।

पनघट पर आती
कोई राधा
अब न बतियाती
पनियारी हैं आँखें
अभिशप्त से हैं अधर
विधुर-सा लगता सारा गाँव।

सब अपने में खोए
मर भी जाए कोई
छुपकर निपट अकेला
हर अन्तस् रोए
चौपालों में छाया
श्मशानी सन्नाटा
लगता किसी तक्षक ने
चुपके से काटा,
ठिठक ­ठिठक जाते
चबूतरे पर चढ़ते पाँव ।

न जवानों की टोली
गाती कोई गीत
हुए यतीम अखाड़े
रेतीली दीवार- सी
ढह गई
आपस की प्रीत
गली- गली में घूमता
भूखे बाघ -सा अभाव ।


(8) गाँव अपना




पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
खिलखिलाता
सिर उठाए
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया ।

अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में

अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।

दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता

कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।



(9) इस शहर में




पत्थरों के
इस शहर में
मैं जब से आ गया हूँ
बहुत गहरी
चोट मन पर
और तन पर खा गया हूँ ।

अमराई को न
भूल पाया
न कोयल की ॠचाएँ,
हृदय से
लिपटी हुई हैं
भोर की शीतल हवाएँ ।

बीता हुआ
हर एक पल
याद में मैं पा गया हूँ ।

शहर लिपटा
है धुएँ में
भीड़ में
सब हैं अकेले,
स्वार्थ की है
धूप गहरी
कपट के हैं
क्रूर मेले ।

बैठकर
सुनसान घर में
दर्द मैं सहला गया हूँ ।



(10)बच्चे और पौधे




लहलाते रहेंगे
आँगन की क्यारियों में
हिलाकर नन्हें- नन्हें पात
सुबह शाम करेंगे बात
प्यारे पौधे ।

पास आने पर
दिखलाकर पंखुड़ियों की
नन्हीं-नन्हीं दतुलियाँ
मुस्काते हैं
फूले नहीं समाते हैं
ये लहलाते पौधे ।

मिट्टी, पानी और उजाला
इतना ही तो पाते
फिर भी रोज़ लुटाते
कितनी खुशियाँ !
बच्चे-
ये भी पौधे हैं
इन्हें भी चाहिए
प्यार का पानी
मधुर–मधुर स्पर्श की मिट्टी
और दिल की
खुली खिड़कियों से
छन-छनकर आता उजाला
तब ये भी मुस्काएँगे
अपनी किलकारियों का रस
ओक से हमको पिलाएँगे
जब भी स्नेह–भरा स्पर्श पाएँगे
बच्चे पौधे, पौधे बच्चे
बन जाएँगे
घर आँगन महकाएँगे ।
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जन्म : 19मार्च 1949, बेहट जिला सहारनपुर, भारत में।शिक्षा : एम ए , बी एड प्रकाशित रचनाएं : 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूँ कूँ', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आंसू', 'दीपा', 'दूसरा सवेरा' (लघु उपन्यास), 'असभ्य नगर' (लघुकथा संग्रह), अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित।संप्रति : प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय हज़रतपुर, फ़िरोज़ाबाद (उ.प्र.) ई मेल -rd_kamboj@yahoo.com