मंगलवार, 20 मई 2008

दस ग़ज़लें – रामकुमार कृषक

इस पोस्ट के सभी चित्र : अवधेश मिश्र

एक


चेहरे तो मायूस मुखौटों पर मुस्कानें दुनिया की
शो-केसों में सजी हुईं खाली दुकानें दुनिया की

यों तो जीवन के कालिज में हमने भी कम नहीं पढ़ा
फिर भी सीख न पाए हम कुछ खास जुबानें दुनिया की

हमने आँखें आसमान में रख दीं खुल कर देखेंगे
कंधों से कंधों पर लेकिन हुईं उड़ानें दुनिया की

इन्क़लाब के कारण हमने जमकर ज़िन्दाबाद किया
पड़ीं भांजनी तलवारों के भ्रम में म्यानें दुनिया की

हमने जो भी किया समझवालों को समझ नहीं आया
खुद पर तेल छिड़ककर निकले आग बुझाने दुनिया की

बड़े-बड़े दिग्गज राहों पर सूँड घुमाते घूम रहे
अपनी ही हस्ती पहचानें या पहचानें दुनिया की

फूट पसीना रोआँ-रोआँ हम पर हँसता कहता है
क्या खुद को ही दफनाने को खोदीं खानें दुनिया की
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दो


घेर कर आकाश उनको पर दिए होंगे
राहतों पर दस्तख़त यों कर दिए होंगे

तोंद के गोदाम कर लबरेज़ पहले
वायदों से पेट खाली भर दिए होंगे

सिल्क खादी और आज़ादी पहनकर
कुछ बुतों को चीथड़े सी कर दिए होंगे

हों न बदसूरत कहीं बँगले-बगीचे
बेघरों को जंगलों में घर दिए होंगे

प्रश्नचिह्नों पर उलट सारी दवातें
जो गए-बीते वो संवत्सर दिए होंगे

गोलियाँ खाने की सच्ची सीख देकर
फिर तरक्क़ी के नए अवसर दिए होंगे

तीन


आज तो मन अनमना गाता नहीं
खुद बहल औरों को बहलाता नहीं

आदमी मिलना बहुत मुश्किल हुआ
और मिलता है तो रह पाता नहीं

गलतियों पर गलतियाँ करते सभी
गलतियों पर कोई पछताता नहीं

दूसरों के नंगपन पर आँख है
दूसरों की आँख सह पाता नहीं

मालियों की भीड़ तो हर ओर है
किंतु कोई फूल गंधाता नहीं

सामने है रास्ता सबके मगर
रास्ता तो खुद कहीं जाता नहीं

धमनियों में खून के बदले धुआँ
हड्डियाँ क्यों कोई दहकाता नहीं

चार

हमने खुद को नकार कर देखा
आप अपने से हार कर देखा

जब भी आकाश हो गया बहरा
खुद में खुद को पुकार कर देखा

उनका निर्माण-शिल्प भी हमने
अपना खंडहर बुहार कर देखा

लोग पानी से गुज़रते हमने
सिर से पानी गुजार कर देखा

हमने इस तौर मुखौटे देखे
अपना चेहरा उतार कर देखा

पांच


आइए गांव की कुछ ख़बर ले चलें
आँख भर अपना घर खंडहर ले चलें

धूल सिंदूर-सी थी कभी माँग में
आज विधवा-सरीखी डगर ले चलें

लाज लिपटी हुई भंगिमाएँ कहाँ
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें

एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई
साँझ होती हुई दोपहर ले चलें

देह पर रोज़ आँकी गई सुर्खियाँ
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें

राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी
मिल सकें तो जटायु के पर ले चलें

खेत-सीवान हों या कि हों सरहदें
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें

राजहंसों को पाएँ न पाएँ तो क्या
संग उजड़ा हुआ मानसर ले चलें

देश दिल्ली की अँगुली पकड़ चल चुका
गाँव से पूछ लें अब किधर ले चलें

छह


आगाज़ अगर हो तो अंजाम तलक पहुँचें
कुछ इल्म मयस्सर हो,इहलाम तलक पहुँचें

सरनाम बस्तियों में दरिया नहीं है कोई
दरिया-ए-दिल मिलेंगे बेनाम तलक पहुँचें

रिंदों में सूफि़याना कुछ ढोंग भले कर लें
महफि़ल हो सूफि़यों की हम जाम तलक पहुँचें

तालाश नए घर की भटके हुए नहीं हैं
यह बात दूसरी है हम शाम तलक पहुँचें

केवल कहानियाँ ही कुर्बानियाँ नहीं हैं
पैग़ाम जिएँ मिटकर पैग़ाम तलक पहुँचें

सात


ऊँची कुर्सी काला चोगा यही कचहरी है
कोलाहल दीवारों जैसा चुप्पी गहरी है

चश्मा, टाई, कोट बगल में कुछ अंधीं आँखें
जिरह करेंगी देहातों से भाषा शहरी है

कहीं-कहीं पागें-टोपी सिर नंगे कहीं-कहीं
कहीं किसी सूरज के सिर पर छाया ठहरी है

नज़र एक-सी जिनकी उनको दुनिया खुदा कहे
यहाँ खुदा ऐसे हैं जिनकी नज़र इकहरी है

मकड़ी का जाला तो मकड़ी का घर-द्वारा है
मच्छर के डर से मानुष के लिए मसहरी है

ये कैसी अनबन चंदनवन ये आखिर कैसा
किसने विष ऐसा बांटा हर फीता ज़हरी है

आठ


ये खता तो हो गई है, की नहीं है जानकर
माफ भी कर दीजिए अब आप अपना मानकर

हम तो नदियों के किनारों पर पले, पीते रहे
आप ही दरअस्ल पीना जानते हैं छानकर

आपके हाथों की मेंहदी तो नुमाइश के लिए
हमने चूमे हाथ वो आए जो गोबर सानकर

जीतकर भी आपकी ही हार से बेचैन हम
आप हैं बैठे हुए हैं दुश्मनी-सी ठानकर

इस शहर में ठीक थे महफूज़ थे हम कल तलक
अब बहुत खतरे में लेकिन आपको पहचानकर

नौ

बतलाए देते हैं यूँ तो बतलाने की बात नहीं
खलिहानों पर बरस गए वो खेतों पर बरसात नहीं

नदियाँ रोकीं बांध बनाकर अपना घर-आंगन सींचा
औरों के घर डूबे फिर भी उनका कोई हाथ नहीं

धरती नापें तीन पगों में किले-कोठियों वाले लोग
जिनका राज-सुराज ख्वाब में भी उनके फुटपाथ नहीं

हुए धरम-पशु अपने-अपने धरम-गुरू तो चीज़ बड़ी
जिनके मंदिर-मस्जिद उनकी कोई जात-कुजात नहीं

कई बार देखा-परखा है हाथ मिला हमने उनको
वे तो उदघाटनकर्ता हैं, नींव रखें औकात नहीं

दस


बाखबर हम हैं मगर अखबार नहीं हैं
बाकलम खुद हैं मगर मुख्तार नहीं हैं

क्या कहा हमने भला इक शेर कह डाला अगर
कट गए वो और हम तलवार नहीं हैं

आप ही तो साथ थे अब आपको हम क्या कहें
जानते हैं रास्ते बटमार नहीं हैं

डूबिएगा शौक से हम तो डुबाने से रहे
हम नदी की धार हैं, मझधार नहीं हैं

आप चीज़ें चाहते हैं आपकी औकात है
हम कहीं तक शामिले-बाज़ार नहीं हैं

आज तक सूरज हमारी देहरी उतरा नहीं
चाहतों में हैं मगर स्वीकार नहीं हैं
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वरिष्ठ कवि और ग़ज़लकार रामकुमार कृषक का जन्म 1 अक्टूबर 1943 को मुरादाबाद के गुलड़िया (पो. अमरोहा) उत्तर प्रदेश में हुआ था. आप हिन्दी में एम.ए. और साहित्यत्न हैं. कृषक जी की अब तक प्रकाशित कृतियां हैं: बापू(1969), ज्योति (1972), सुर्खियों के स्याह चेहरे (1977), नीम की पत्तियां(1984), फिर वही आकाश (1991), आदमी के नाम पर मज़हब नहीं(1991), मैं हूं हिंदुस्तान (1998) और, लौट आएंगी आंखें (2002) कविता पुस्तकें . एक कहानी संग्रह – नमक की डलियाँ (1980) और बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात अन्य पुस्तकें 'कर्मवाची शील" नामक संपादित कृति. 'अपजस अपने नाम' (शीघ्र प्रकाश्य गज़ल संग्रह). इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी. जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य. अनेक महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. हिन्दी अकादमी, दिल्ली सहित कुछ अन्य संस्थाओं से पुरस्कृत - सम्मानित. 'अलाव' और 'नई पौध’ पत्रिकाओं का सम्पादन और प्रकाशन.

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