शनिवार, 28 जून 2008

दस कविताएं - हरकीरत कलसी ‘हक़ीर’



(1) अब धूप पिंजरे में बंद रहती है

वह धूप थी
सुबह की कोमल
कच्ची प्यारी-सी धूप
गुलाबी, गुदगुदी
दिल को छू लेनेवाली धूप
शर्म से लिपटी
छुई-मुई-सी धूप
गुलाबी सलवार-कुरते में लिपटी
अल्हड़ प्यारी-सी धूप
सरोवर में खिले
गुलाबी कमल-सी धूप
वह धूप हर जवां दिल की चाहत थी।

इक दिन धूप ने सुर्ख़ चुनरी ओढ़ी
और सदा के लिए
इक घर के आंगन में खिल गई
अब धूप पराई थी
इक गहरी पीड़ा और टीस लिए सूरज
अपने घर लौट आया
इक दिन शाम के वक्त
सूरज ने इक टूटता तारा
क्षितिज में विलीन होते देखा
‘तारे का टूटना शुभ नहीं होता’
उसने गंभीर नज़रों से
धूप की आँखों में देखा
‘उसकी आँखों में यातना नाच रही थी’
अब धूप पिंजरे में बंद थी।

फाटक पर लगे बड़े-बड़े ताले अक्सर
उसकी बेबसी और बेकसी का उपहास करते
और एक कर्कश स्वर
उसकी बची-खुची चेतना को भी शून्य कर देता
वह घबरा उठती
भागना चाहती
छिपना चाहती
रोना चाहती
पर न कोई कांधा था
न उसके पास – पर।

बदन पर सजा सुर्ख़ जोड़ा
उसके पैरों की बेड़ियाँ बन अट्टहास कर उठता
हा... हा... हा...
और वह अपने दोनों हाथ
कानों पर रख सिसक उठती।

धीरे-धीरे
इक पर कटे परिंदे की तरह
जीना सीख लिया था उसने।

आज उस घर की विशाल दीवारों से
स्नेह है उसे
अकेले में वह उन्हें सहलाती है, दुलराती है
आलिंगन में लेकर घंटों बातें करती है।

जंगले पर लगे
बड़े-बड़े तालों को चूमकर उसने
अपने होठों पे अंकित कर लिया है
अब धूप की आहें
होठों के तालों के अंदर बंद रहती हैं

अब धूप पिंजरे में बंद रहती है।


(2) ये कैसा कुफ़्र तोल दिया ?

मैं पत्थरों की सेज पे बैठी
ग़मों की सुइयाँ समेटती रही
रात बेबसी की चादर ओढ़े
मेरे सपनों से खेलती रही

इक धुआं तैरता रहा हवा में
और इक मेरे ज़हन में
इक आग छातियों में मेरी
चूल्हे-सी जलती रही

ये कैसी चुप्पी है या रब्ब !
ये कैसी खामोशी है ?
हर्फ़ घुलते रहे पन्नों में
कलम दर्द उगलती रही

ये कैसा अब्र¹ फट पड़ा अय खुदा !
ये कैसा कुफ्र तोल दिया
खूं टपकता रहा आसमां से
और धरती बूँद भर आब² को तरसती रही।
––––––––––––––
1- बादल 2-पानी


(3) खुले जख़्म

आज नज्मों ने टाँका छेड़ा
और तोहमत लगा दी
भूल जाने की

मैंने जख़्मों की पट्टी
खोल दी और कहा–
देख दर्दे-आश्ना
मेरा हर रिसता जख़्म
तेरी रहमतों का मेहरबां है

नज्मों ने मुस्करा के
मेरे हाथों से पट्टी छीन ली–
तो फिर इन्हें खुला रख
तेरी हर टीस पे
मेरे हर्फ़ बोलते हैं...

अब मैं अपने जख़्मों को
खुला रखती हूँ
और मेरी हर टीस
नज्म बन पन्नों पर
सिसक उठती है।

(4) कौन है यह ?

कौन है यह
तन्हा–
किसी कैक्टस पर
उग आए गुल की तरह
अफ़्सुर्द¹ यूँ
जैसे मरघट पे छाया हो मातम।

है कोई दर्द का सैलाब ?
या ईजा-ए-नज्म² की कोई किताब ?
या इसे लाइलाज अलालत³ है कोई ?
या किसी रहनुमा से
जलाए जाने का है इंतजार ?

कौन है यह ?
शायद खुदा की इस्तेहजा† है कोई ?
या नामुराद ने पायी है
पिछले जन्म की सजा कोई ?
या पुरदर्द चीख है ?
या आसमां को बेंधता
बुलंद क़हक़हा को ?
या मील पर पड़ा वह पत्थर है
जिस पर लोग अक्सर
अपना जोर आजमाना चाहते हैं ?

कौन है यह ?
मजबूरियों, लाचारियों, जिल्लतों का कोई नाम ?
या दासता, गुलामी, क़हरों से दबी कोई बदबख्त’* ?
या है वह हाथ जिस पर कभी रंग
जमा पायी न हिना ?
या तूफां को झेलती एक अकेली है शमा ?
या कोरे कागज़ पर लिखा कोई पैगाम है ?
जिसे पढ़ पाना मेरे लिए है दुश्वार
कौन है यह ?
कौन है यह ?
––––––––––––––
1–उदास 2–दर्द से भरी 3–रोग †मजाक * बदकिस्मत


(5) अचानक

कितने हादसे
कितने वाक़िअ
ज़िन्दगी से गुजर जाते हैं
अचानक।

रिश्ते
मुकम्मल भी
नहीं हो पाते
और टूट जाते हैं
अचानक।

मुहब्बत
परवान भी नहीं चढ़ती
और जुदाई की
घड़ी आ जाती है
अचानक।


खुशी के बदले
ता-उम्र का गम
दर्द का दामन भी
छोटा पड़ जाता है
अचानक।


न जीने की आरजू
न मौत की चाह
खूबसूरत सी ज़िन्दगी
वीरान हो जाती है
अचानक।

(6) ज़रूरत

कल मैंने
सिसकियों की आवाज़ सुनी
बरसों से मौन पड़े
इक पत्थर की
रात के अंधेरे में मैं
उस पत्थर को
आगोश में लेकर
देर तक रोती रही
लगा–
वह मोम-सा पिघल गया है
और मुझमें कुछ
पाषाणता आ गई है
शायद–
हम दोनों को ही
इक-दूसरे की
ज़रूरत थी।


(7) आज फिर साथ रहे तन्हाई में

कुछ आहें
दर्द
और ग़म

कुछ लफ़्ज
अक्स
औ’ रंज

इक हूक
बेकरारी
औ’ खामोशी

इक वीरानी
उदासी
औ’ बेकसी

कुछ अश्क
प्याले
औ’ मय

आज फिर
साथ रहे
तन्हाई में।



(8) ये शब्द

चारों तरफ
नज़र उठाकर देखती हूँ
तो दूर तक
रेत ही रेत नज़र आती है

मैं जीने के लिए
अपने ही तरीकों से
हल ढूँढ़ती रही
और वक्त ने
मेरे तक़दीर के अंधेरों को
और गहरा कर दिया

वही सवाल
और वही जवाब
देते-देते
मेरे ही कहे शब्दों का
हर दिन
इक नया अर्थ
निकलता रहा

और मैं रफ़्ता-रफ़्ता
अपने ही कहे
शब्दों के जाल में
उलझती रही

आह !
कभी-कभी ये शब्द भी
जीवन को कितना
बेबस और बेजां
बना देते हैं।

(9) प्रत्युत्तर

तुम्हारी छटपटाहट
और अंगार बरसती आँखों से
कहीं लोहित का जल
रक्तरंजित न हो जाए
ऐ कवि
इससे पहले कि
तुम्हारी कलम
शब्दों की जगह
बारूद उगलने लगे
मैं–
तुम्हारे समय का
प्रत्युत्तर बन
तुम्हें–
तेज धूप से
छांव की ओर ले जाना चाहती हूँ।

जानते हो ?
मैं समुद्र तट पर बैठकर
कई बार चीखी हूँ
चिल्लाई हूँ–
‘सिन्धु की एक बूँद !
ठहर !
मेरी बात सुन जा’
पर वह
नहीं ठहरती
नहीं सुनती

समय
परिवर्तनशील है
इसे तुम भी
मानते हो
फिर क्यों बहते हो
भावनाओं में ?
देखना इक दिन
इसी बारूद की गंध से
उपजा नवअंकुर
इ​त्तिहाद¹ का
सन्देश लेकर आएगा।
–––––––––––––
1–एकता।


(10) संबंधों के काँपते पत्ते

जब भी मैंने
तन्हाई में आवाज़ लगाई
मेरी आवाज़
पत्थरों से टकराकर
आसमान में गुम हो गई।

जानती हूँ
आसमान बहुत बड़ा है
जहाँ–
मेरी भावनाओं
मेरे जज्बातों की कोई जगह नहीं
और फिर तुम तो
अवसरवादी थे
जज्बातों और भावनाओं से परे
समय के साथ चलने वाले।

समय और तुम
कभी मेरे साथ नहीं चल पाए
न ही मैं
समय और तुम्हारे साथ चल पाई
जब कभी
हमारे विचार टकराते
संबंधों के पत्ते काँपने लगते
और फिर–
इक मंथन चलता
घमासान मानसिक मंथन
नहीं जानती
निष्कर्ष क्या निकलेगा
विष या अमृत ?

शायद, किसी दिन आँधी आए
और ये काँपते पत्ते कहीं दूर जा गिरें
पर इतना तो तय है
गिरने के बाद
इन सूखे पत्तों में
इक असीम सुकून होगा
ये पलटकर तुम्हें
आवाज़ न देंगे
और न ही
मौसम बदलने का इंतज़ार करेंगे।

शायद, हवा का कोई झोंका
इन्हें उड़ा कर
किसी के आँगन में ला गिराए
और कोई इन्हें
प्यार से सहेज कर
अपनी किताबों में रख ले
उन किताबों में
जिनमें–
‘शीरी’ और ‘फरिहाद’ की कहानी हो ?
‘लैला’ और ‘मजनूं की कहानी हो ?
और उनके प्रेम के स्पर्श से
इन पत्तों में
फिर से नूर आ जाए ?

सुनो !
पानी अगर बहता नहीं
तो सड़ जाता है
मैं सड़ना नहीं चाहती
ठहरना भी नहीं चाहती
बहना चाहती हूँ
सरल,साफ, निश्छल
अपने निर्मल जल से
किसी को सींचना चाहती हूँ
मुझे बहना है
अपने आप को
सड़ने से बचाने के लिए
मुझे बहना है
अपने आप को
मरने से बचाने के लिए।

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जन्म : 31 अगस्त (असम)
शिक्षा : एम.ए. , डी.सी.एच
देशभर की विभिन्न छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर कविताओं का प्रसारण। हिंदी और पंजाबी में लेख, कहानियाँ, कविताओं का स्वतंत्र लेखन। असमिया और पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कार्य भी। पहला कविता संग्रह “इक दर्द” वर्ष 2007 में प्रकाशित।

संपर्क : 18 ईस्ट लेन, सुन्दरपुर,
हाउस नं0 5, गुवाहाटी–5, असम।

दूरभाष : 09864171300
ई मेल :
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