रविवार, 11 अक्तूबर 2009

वाटिका - अक्तूबर 2009


वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कविताएँ और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत और शेरजंग गर्ग की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- समकालीन हिंदी कविता में अपनी विशिष्ट और पृथक पहचान रखने वाली सुपरिचित कवयित्री कात्यायनी की स्त्री से जुड़ी दस चुनिंदा कविताएँ…

दस कविताएं - कात्यायनी

॥एक॥
इस स्त्री से डरो

यह स्त्री
सब कुछ जानती है
पिंजरे के बारे में
जाल के बारे में
यंत्रणागृहों के बारे में।

उससे पूछो
पिंजरे के बारे में पूछो
वह बताती है
नीले अनन्त विस्तार में
उड़ने के
रोमांच के बारे में।

जाल के बारे में पूछने पर
गहरे समुद्र में
खो जाने के
सपने के बारे में
बातें करने लगती है।

यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही
गाने लगती है
प्यार के बारे में एक गीत।

रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबासियाँ
इन्हें समझो,
इस स्त्री से डरो।
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॥दो॥
भाषा में छिप जाना स्त्री का

न जाने क्या सूझा
एक दिन स्त्री को
खेल-खेल में भागती हुई
भाषा में समा गई
छिपकर बैठ गई।

उस दिन
तानाशाहों को
नींद नहीं आई रात भर।

उस दिन
खेल न सके कविगण
अग्निपिण्ड के मानिंद
तपते शब्दों से।

भाषा चुप रही सारी रात।

रुद्रवीणा पर
कोई प्रचण्ड राग बजता रहा।

केवल बच्चे
निर्भीक
गलियों में खेलते रहे।
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॥तीन॥
स्त्री का सोचना एकान्त में

चैन की एक साँस
लेने के लिए स्त्री
अपने एकान्त को बुलाती है।

एकान्त को छूती है स्त्री
संवाद करती है उससे।

जीती है
पीती है उसको चुपचाप।

एक दिन
वह कुछ नहीं कहती अपने एकान्त से
कोई भी कोशिश नहीं करती
दुख बाँटने की
बस, सोचती है।

वह सोचती है
एकान्त में
नतीजे तक पहुँचने से पहले ही
ख़तरनाक घोषित कर दी जाती है !
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॥चार॥
देह न होना

देह नहीं होती है
एक दिन स्त्री
और उलट-पुलट जाती है
सारी दुनिया
अचानक !
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॥पाँच॥
हॉकी खेलती लड़कियाँ

आज शुक्रवार का दिन है
और इस छोटे से शहर की ये लड़कियाँ
खेल रही हैं हॉकी।
खुश हैं लड़कियाँ
फिलहाल
खेल रही हैं हॉकी
कोई डर नहीं।

बॉल के साथ दौड़ती हुई
हाथों में साधे स्टिक
वे हरी घास पर तैरती हैं
चूल्हे की आँच से
मूसल की धमक से
दौड़ती हुई
बहुत दूर आ जाती हैं।

वहाँ इंतज़ार कर रहे हैं
उन्हें देखने आए हुए वर पक्ष के लोग
वहाँ अम्मा बैठी राह तकती है
कि बेटियाँ आएं तो
संतोषी माता की कथा सुनाएं
और
वे अपना व्रत तोड़ें।

वहाँ बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं
दफ्तर से लौटकर
पकौड़ी और चाय की
वहाँ भाई घूम-घूम कर लौट आ रहा है
चौराहे से
जहाँ खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे
रोज़ की तरह
लड़कियाँ हैं कि हॉकी खेल रही हैं।

लड़कियाँ
पेनाल्टी कार्नर मार रही हैं
लड़कियाँ
पास दे रही हैं
लड़कियाँ
'गो...ल- गो...ल' चिल्लाती हुई
बीच मैदान की ओर भाग रही हैं।
लड़कियाँ
एक-दूसरे पर ढह रही हैं
एक-दूसरे को चूम रही हैं
और हँस रही हैं।

लड़कियाँ फाउल खेल रही हैं
लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है
और वे हँस रही हैं
कि यह ज़िन्दगी नहीं है
-इस बात से निश्चिंत हैं लड़कियाँ
हँस रही हैं
रेफ़री की चेतावनी पर।

लड़कियाँ
बारिश के बाद की
नम घास पर फिसल रही हैं
और गिर रही हैं
और उठ रही हैं

वे लहरा रही हैं
चमक रही हैं
और मैदान के अलग-अलग मोर्चों में
रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं।

वे चीख़ रही हैं
सीटी मार रही हैं
और बिना रुके भाग रही हैं
एक छोर से दूसरे छोर तक।

उनकी पुष्ट टांगें चमक रही हैं
नृत्य की लयबद्ध गति के साथ
और लड़कियाँ हैं कि निर्द्वन्द्व निश्चिन्त हैं
बिना यह सोचे कि
मुँह दिखाई की रस्म करते समय
सास क्या सोचेगी।

इसी तरह खेलती रहती लड़कियाँ
निस्संकोच-निर्भीक
दौड़ती-भागती और हँसती रहतीं
इसी तरह
और हम देखते रहते उन्हें।

पर शाम है कि होगी ही
रेफ़री है कि बाज नहीं आएगा
सीटी बजाने से
और स्टिक लटकाये हाथों में
एक भीषण जंग से निपटने की
तैयारी करती लड़कियाँ लौटेंगी घर।

अगर ऐसा न हो तो
समय रुक जाएगा
इन्द्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जाएंगे
वज्रपात हो जाएगा, चक्रवात आ जाएगा
घर पर बैठे
देखने आए वर पक्ष के लोग
पैर पटकते चले जाएंगे
बाबूजी घुस आएंगे गरजते हुए मैदान में
भाई दौड़ता हुआ आएगा
और झोंट पकड़कर घसीट ले जाएगा
अम्मा कोसेगी-
'किस घड़ी में पैदा किया था
ऐसी कुलच्छनी बेटी को!'
बाबूजी चीखेंगे-
'सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है !'
घर फिर एक अँधेरे में डूब जाएगा
सब सो जाएंगे
लड़कियाँ घूरेंगी अँधेरे में
खटिया पर चित्त लेटी हुईं
अम्मा की लम्बी साँसें सुनतीं
इंतज़ार करती हुईं
कि अभी वे आकर उनका सिर सहलाएंगी
सो जाएंगी लड़कियाँ
सपने में दौड़ती हुई बॉल के पीछे
स्टिक को साधे हुए हाथों में
पृथ्वी के छोर पर पहुँच जाएंगी
और 'गोल-गोल' चिल्लाती हुईं
एक दूसरे को चूमती हुईं
लिपटकर धरती पर गिर जाएंगी !
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॥छह॥
सात भाइयों के बीच चम्पा

सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई।

बाँस की टहनी-सी लचक वाली
बाप की छाती पर साँप-सी लोटती
सपनों में काली छाया-सी डोलती
सात भाइयों के बीच
चम्पा सयानी हुई।

ओखल में धान के साथ
कूट दी गई
भूसी के साथ कूड़े पर
फेंक दी गई
वहाँ अमरबेल बन कर उगी।

झरबेरी के साथ कँटीली झाड़ों के बीच
चम्पा अमरबेल बन सयानी हुई
फिर से घर में आ धमकी।

सात भाइयों के बीच सयानी चम्पा
एक दिन घर की छत से
लटकती पाई गई
तालाब में जलकुम्भी के जालों के बीच
दबा दी गई
वहाँ एक नीलकमल उग आया।

जलकुम्भी के जालों से ऊपर उठकर
चम्पा फिर घर आ गई
देवता पर चढ़ाई गई
मुरझाने पर मसल कर फेंक दी गई,
जलायी गई
उसकी राख बिखेर दी गई
पूरे गाँव में।

रात को बारिश हुई झमड़कर।

अगले ही दिन
हर दरवाज़े के बाहर
नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच
निर्भय-निस्संग चम्पा
मुस्कुराती पाई गई।
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॥सात॥
प्रार्थना

प्रभु !
मुझे गौरवान्वित होने के लिए
सच बोलने का मौक़ा दो
परोपकार करने का
स्वर्णिम अवसर दो प्रभु मुझे।

भोजन दो प्रभु, ताकि मैं
तुम्हारी भक्ति करने के लिए
जीवित रह सकूँ।
मेरे दरवाज़े पर थोड़े से ग़रीबों को
भेज दो
मैं भूखों को भोजन कराना चाहता हूँ।

प्रभु, मुझे दान करने के लिए
सोने की गिन्नियाँ दो।
प्रभु, मुझे वफ़ादार पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र,
लायक़ भाई और शरीफ़ पड़ोसी दो।

प्रभु, मुझे इहलोक में
सुखी जीवन दो ताकि बुढ़ापे में
परलोक की चिन्ता कर सकूँ।

प्रभु,
मेरी आत्मा प्रायश्चित करने के लिए
तड़प रही है
मुझे पाप करने के लिए
एक औरत दो !
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॥आठ॥
नहीं हो सकता तेरा भला

बेवकूफ़ जाहिल औरत !
कैसे कोई करेगा तेरा भला?
अमृता शेरगिल का तूने
नाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो कि
इन्दिरा गाँधी इस मुल्क़ की रानी थीं।
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता)

रह गई तू निपट गँवार की गँवार।

पी.टी. उषा को तो जानती तक नहीं
मार्गरेट अल्वा एक अजूबा है
तुम्हारे लिए।
'क ख ग घ' आता नहीं
'मानुषी' कैसे पढ़ेगी भला!
कैसे होगा तुम्हारा भला-
मैं तो परेशान हो उठता हूँ
आज़िज़ आ गया हूँ मैं तुमसे।

क्या करूँ मैं तुम्हारा?

हे ईश्वर !
मुझे ऐसी औरत क्यों नहीं दी
जिसका कुछ तो भला किया जा सकता
यह औरत तो बस भात राँध सकती है
और बच्चे जन सकती है
इसे भला कैसे मुक्त किया जा सकता है?
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॥नौ॥
अपराजिता

(सृष्टिकर्ता ने नारी को रचते समय बिस्तर, घर, ज़ेवर, अपवित्र इच्छाएँ, ईर्ष्या, बेईमानी और दुर्व्यवहार दिया --'मनु' )
उन्होंने यही
सिर्फ़ यही दिया हमें
अपनी वहशी वासनाओं की तृप्ति के लिए
दिया एक बिस्तर
जीवन घिसने के लिए, राख होते रहने के लिए
चौका-बरतन करने के लिए बस एक घर
समय-समय पर
नुमाइश के लिए गहने पहनाए
और हमारी आत्मा को पराजित करने के लिए
लाद दिया उस पर
तमाम अपवित्र इच्छाओं और दुष्कर्मों का भार।

पर नहीं कर सके पराजित वे
हमारी अजेय आत्मा को
उनके उत्तराधिकारी
और फिर उनके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी भी
नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजय आत्मा को
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे
हमारी अजेय आत्मा को
आज भी वह संघर्षरत है
नित-निरंतर
उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं
बिल्कुल हमारी ही तरह !
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॥दस॥
माँ के लिए एक कविता

वहाँ
अभी भी सन्नाटा गाता रहता है
उदास,फीकी धुनों पर
पराजित आत्माओं का गीत।

पीली धूप में
पत्ते झड़ते रहते हैं
जूठे बरतन इन्तज़ार करते रहते हैं
नल के नीचे
शाम होने का।

एक जोड़ी घिसी हुई चप्पलें
थकी-हारी दाख़िल होती हैं घर में
दिन भर की पूरी थकान
शरीर से उतरकर पसर जाती है
घर-आँगन में।

इन्तज़ार आँखों में उतर आता है
उम्मीदों की तरह
कि छोटी-सी लहर की तरह
एक बस्ता उछलता हुआ घर आता है
बरतन में ढँका ठण्डा खाना
मुस्कराने लगता है।

पार्श्व में गूँजता
उदासी का संगीत मद्धिम पड़ जाता है।

दाह-संस्कार से लौटे पाँवों की तरह
आतंक घर में दाख़िल होता है
शाम के अँधेरे के साथ
बल्ब की बीमार रौशनी में
दफ्तर के काग़ज़ात खोलकर बैठ जाता है।

बस्ता बैठा हुआ
सबक याद करने लगता है
पुन: गूँजने लगता है सन्नाटे का वही संगीत
धीरे-धीरे खर्राटों में तब्दील होता हुआ।

एक थकी हुई प्रतीक्षा
बरामदे में निरुद्देश्य घूमती है
चौका-बरतन के काम निबटाने के बाद।

सन्नाटा गाता रहता है
एक उदास बूढ़े भजन की तरह
पराजित आत्माओं का गीत।

तलघर में सफ़ेद बौने राक्षस
सिसकारी भरते हैं
दीवार पर लटकी तस्वीर के पीछे
घोंसला बनाए हुए कबूतर
पंख फड़फड़ाते हैं।

दिन भर के थके हुए हाथ
घूमते हैं आलस भाव से
एक नन्हें शरीर पर
भय को धूल की तरह पोंछते हुए।

प्यार भरी उनींदी -सी लोरी
उम्मीदें गाने लगती है।

जीवन सुगबुगाता है
करवट बदलकर
गले में बाँहें डाल निश्चिन्त हो जाता है।

पार्श्व में गूँजता रहता है
पराजित आत्माओं का वहीं गीत
सपनों पर कालिख़ की तरह छाता हुआ।

चूल्हे की राख की परतों के बीच से
चिंगारियाँ झाँकती रहती हैं
हल्की-सी लाल रोशनी बिखेरती हुईं।
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जन्म : 7 मई 1959
शिक्षा : एम.ए., एम.फिल.(हिन्दी)
विगत 24 वर्षों से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन। लगभग सात वर्षों तक 'नवभारत टाइम्स' और 'स्वतंत्र भारत' की संवाददाता के रूप में भी काम किया। संप्रति : स्वतंत्र लेखन।
कविताएँ हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कुछ कविताएँ अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी, गुजराती में अनुदित-प्रकाशित। आधा दर्जन कहानियाँ प्रकाशित।
चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, फुटपाथ पर कुर्सी, राख अँधेरे की बारिश में(सभी कविता संकलन), दुर्ग द्वार पर दस्तक (स्त्री-प्रश्न विषयक निबन्धों का संकलन), षडयंत्ररत् मृतात्माओं के बीच(साम्प्रदायिक, फासीवाद, बुद्धिजीवी प्रश्न और साहित्य की सामाजिक भूमिका पर केन्द्रित निबन्धों का संकलन), कुछ जीवन्त, कुछ ज्वलन्त(समाज, संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित निबन्धों का संकलन), प्रेम, परम्परा और विद्रोह( शोधपरक निबन्ध) प्रकाशित।
समकालीन भारतीय स्त्री कवियों के पेंगुइन द्वारा प्रकाशित संकलन 'इन देयर ओन वॉयस' में कविताएँ शामिल।
क्रान्तिकारी वामपंथी राजनीति से अनुप्रमाणित सामाजिक सक्रियता, सांस्कृतिक मोर्चे व नारी मोर्चे के साथ साथ मज़दूर मोर्चे पर भी सक्रिय।
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