शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

वाटिका – अप्रैल, 2010



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत और शेरजंग गर्ग, लता हया की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- हिंदी के बहुचर्चित कवि-ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…


दस ग़ज़लें – ओमप्रकाश यती

॥ एक ॥

अपने भीतर छिपी बुराई से लड़ना
मुश्किल है कड़वी सच्चाई से लड़ना

झूठ का पर्वत लोट रहा है कदमों में
चाह रहा था सच की राई से लड़ना

ऐसे वार कि भाँप नहीं पाता कोई
सीख गए हैं लोग सफ़ाई से लड़ना

आँखों से ही कहता है कुछ बेचारा
उसके वश में कहाँ क़साई से लड़ना

सेनाओं से लड़ने वाले क्या जानें
कितना मुश्किल है तन्हाई से लड़ना
0

॥ दो ॥

नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला

कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया और जेब से सिक्का नहीं निकला

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुजरती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला

जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
0

॥ तीन ॥

फूस - पत्ते अगर नहीं मिलते
जाने कितनों को घर नहीं मिलते

जिनकी उम्मीद ले के सोते हैं
स्वप्न वो रात भर नहीं मिलते

जंगलों में भी जा के ढूँढ़ो तो
इस क़दर जानवर नहीं मिलते

दूर परदेश के अतिथियों से
दौड़कर के नगर नहीं मिलते

चाहती हैं जो बाँटना ख़ुशबू
उन हवाओं को ‘पर’ नहीं मिलते
0

॥ चार ॥

तुम्हें कल की कोई चिन्ता नहीं है
तुम्हारी आँख में सपना नहीं है

ग़लत है ग़ैर कहना ही किसी को
कोई भी शख्स जब अपना नहीं है

सभी को मिल गया है साथ गम का
यहाँ अब कोई भी तन्हा नहीं है

बँधी हैं हर किसी के हाथ घड़ियाँ
पकड़ में एक भी लम्हा नहीं है

मेरी मंज़िल उठाकर दूर रख दो
अभी तो पाँव में छाला नहीं है
0

॥ पाँच ॥

प्रेम के, अठखेलियों के दिन गए
गाँव से भी मस्तियों के दिन गए

बन्द कमरा पास में बन्दूक भी
अब वो बेपरवाहियों के दिन गए

वीडियो चलते हैं शादी-ब्याह में
नाच के, नौटंकियों के दिन गए

हर गली में मजनुंओं के झुण्ड हैं
दंगलों के, कुश्तियों के दिन गए

भाई-भाई में मुक़दमेबाज़ियाँ
देवरों के, भाभियों के दिन गए
0
॥ छह ॥

कुछ खट्टा, कुछ मीठा लेकर घर आया
अनुभव कैसा - कैसा लेकर घर आया

खेल-खिलौने भूल गया सब मेले में
वो दादी का चिमटा लेकर घर आया

होम-वर्क का बोझ अभी भी सर पर है
जैसे तैसे बस्ता लेकर घर आया

उसको उसके हिस्से का आदर देना
जो बेटी का रिश्ता लेकर घर आया

कौन उसूलों के पीछे भूखों मरता
वो भी अपना हिस्सा लेकर घर आया
0

॥ सात ॥

नदी कानून की शातिर शिकारी तैर जाता है
यहाँ पर डूबता हल्का है भारी तैर जाता है

उसे कब नाव की, पतवार की दरकार होती है
निभानी है जिसे लहरों से यारी, तैर जाता है

बताते हैं कि भवसागर में दौलत की नहीं चलती
वहाँ रह जाते हैं राजा, भिखारी तैर जाता है

समझता है तुम्हारे नाम की महिमा को पत्थर भी
तभी हे राम ! मर्जी पर तुम्हारी तैर जाता है

निकलते हैं जो बच्चे घर से बाहर खेलने को भी
मुहल्ले भर की आँखों में निठारी तैर जाता है

॥ आठ ॥

पर्वत, जंगल पार करेगी, बंजर में आ जाएगी
बहते-बहते नदिया इक दिन सागर में आ जाएगी

कोंपल का उत्साह देखकर शायद मोम हुआ होगा
वर्ना इतनी नरमी कैसे पत्थर में आ जाएगी

बहनों की शादी का कितना बोझ उठाना है मुझको
ये बतलाने वाली लड़की कल घर में आ जाएगी

भाभी जब भाभी-माँ बनकर प्यार लुटाएगी अपना
लछिमन वाली मर्यादा भी देवर में आ जाएगी

शाम हुई तो कुछ रंगीनी बढ़ जाएगी शहरों की
और गाँव की बस्ती काली चादर में आ जाएगी
0

॥ नौ ॥

दिल में सौ दर्द पाले बहन-बेटियाँ
घर में बाँटें उजाले बहन-बेटियाँ

कामना एक मन में सहेजे हुए
जा रही हैं शिवाले बहन-बेटियाँ

ऐसी बातें कि पूरे सफ़र चुप रहीं
शर्म की शाल डाले बहन-बेटियाँ

हो रहीं शादियों के बहाने बहुत
भेड़ियों के हवाले बहन-बेटियाँ

गाँव-घर की निगाहों के दो रूप हैं
कोई कैसे सम्भाले बहन-बेटियाँ
0

॥ दस ॥

छिपे हैं मन में जो, भगवान से वो पाप डरते हैं
डराता वो नहीं है लोग अपने आप डरते हैं

यहाँ अब आधुनिक संगीत का ये हाल है यारो
बहुत उस्ताद भी लेते हुए अलाप डरते हैं

कहीं बैठा हुआ है भय हमारे मन के अन्दर तो
सुनाई दोस्त की भी दे अगर पदचाप डरते हैं

निकल जाती है अक्सर चीख़ जब डरते है सपनों में
हकीक़त में तो ये होता है हम चुपचाप डरते हैं

नतीजा देखिए उम्मीद के बढ़ते दबाओं का
उधर संतान डरती है इधर माँ-बाप डरते हैं
0

जन्म : 3 दिसम्बर 1959 को बलिया (उत्तर प्रदेश) के "छिब्बी " गाँव में ।
शिक्षा: प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ,बाद में सिविल इंजीनियरिंग तथा विधि में स्नातक एवं हिंदी साहित्य में एम.ए।
प्रकाशन: एक ग़ज़ल संग्रह "बाहर छाया भीतर धूप" राधाकृष्ण प्रकाशन ,दिल्ली से प्रकाशित।
- हिन्दुस्तानी ग़ज़लें तथा "ग़ज़ल दुष्यंत के बाद....आदि संकलनों में ग़ज़लें सम्मिलित।
- हाइकु-2009 में कुछ हाइकु संकलित।
-लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ समय-समय पर प्रकाशित।
प्रसारण: आकाशवाणी के नजीबाबाद,लखनऊ,भोपाल,इंदौर,दिल्ली,ओबरा,नेशनल चैनेल तथा दूरदर्शन से कवितायेँ,कहानियां और साक्षात्कार आदि प्रसारि।
-सर्वभाषा कवि-सम्मलेन 2008 में कन्नड़ कविता के अनुवादक कवि के रूप में भागीदारी ।
सम्प्रति: उत्तर-प्रदेश,सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता पद पर कार्यरत।
संपर्क: H -89 ,बीटा-2 ,ग्रेटर नॉएडा -201308
मोबाइल :09999075942 ,09410476193
ईमेल : yati_om@yahoo.com
yatiom@gmail.com