शनिवार, 8 मई 2010

वाटिका – मई, 2010


“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया और ओमप्रकाश यती की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं- हिंदी की बहुचर्चित कवयित्री रंजना श्रीवास्तव की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…

दस ग़ज़लें – रंजना श्रीवास्तव

॥ एक ॥

एक आंधी घिरी है बाहर में, कोई भीतर उदास रहता है
तिरा होना भी नहीं होना, मन का सरवर उदास रहता है

एक जंगल घना है रिश्तों का, घर की सूरत में है सयानापन
कभी खोया है भीड़ में कोई, कभी बेघर उदास रहता है

मायका ठंड में रजाई सा, मीठी नींद ले के आता है
माँ की यादों का एक कोना है जो अक्सर उदास रहता है

कभी सूरज में है घिरी बदली औ बारिश में धूप हासिल है
कभी जयचंद के तर्जुबे हैं, कभी बाबर उदास रहता है

एक बीहड़ में है बसी दुनिया, सैकड़ों खेल हैं तबाही के
कभी नदियाँ उछाल लेती हैं, कभी सागर उदास रहता है

कभी अल्लाह की चली मर्जी, कभी भगवान की नसीहत है
कभी कुरान चुप-सा बैठा है, कभी मंदर उदास रहता है

‘रंजू’ दौलत से मिल नहीं सकती, इश्को ख़्वाब की सजी दुनिया
कभी तैमूर हार जाता है, कभी पोरस उदास रहता है
0

॥ दो ॥

लगी आग कैसे हुक्मरानों से पूछो
शहर की ख़ामोशी दुकानों से पूछो

क्यूँ गलियों की सूनी नज़र हो गई है
जले हैं जो आधा मकानों से पूछो

वो बच्चा अकेला खड़ा रो रहा क्यूँ
गीता से पूछो कुरानों से पूछो

मरा आदमी है ख़ौफ ज़िन्दा खड़ा है
यूँ तन्हा सिसकते ठिकानो से पूछो

शहर की हँसी खो गई है कहाँ पर
ढलानों से पूछो उठानों से पूछो

मुहब्बत के ख़त को जलाया है किसने
बिखरे पड़े इन सामानों से पूछो

न पूछो कि मंदिर में चुप क्यों वो बैठा
न मस्जिद की बहरी अजानों से पूछो
0

॥ तीन ॥

थकी सी उमंगो को काग़ज़ पे लिख दो
उदासी के रंगों को काग़ज़ पे लिख दो

ये कोहरा उदासी धुएँ का शहर है
छिड़े दिल के दंगों को काग़ज़ पे लिख दो

खिली चाँदनी में बदन जल रहा है
शमा के पतंगों को काग़ज़ पे लिख दो

वो दरिया वो मांझी वो चंचल किनारा
मिरी जल तरंगों को काग़ज़ पे लिख दो

हँसने से उसके खनकती हैं चांदी
शीशे के अंगों को काग़ज़ पे लिख दो
0

॥ चार ॥

तुम जो चाहो तो जानेजां रख दूँ
तेरी यादों का आइना रख दूँ

दर्द बनके जो जला दिल में
काली रातों का वो धुआँ रख दूँ

रातों को नींद ही नहीं आती
तेरे हर रोग की दवा रख दूँ

उसकी खुशबू से दिल बहलता है
फूल रख दूँ मैं बागवां रख दूँ

बनके पारे सा जो पिघलता है
उसके हिस्से का तापमां रख दूँ

हर तरफ रूह में उजाला हो
‘रंजू’ ऐसा मैं आसमां रख दूँ
0

॥ पाँच ॥

तिरी नज़रों में घर नहीं होता
आईना बेख़बर नहीं होता

रात पागल-सी इक पहेली है
कोई भी हमसफ़र नहीं होता

फूलों की रूह में पली खुशबू
बेवफ़ा क्यों शजर नहीं होता

पानी के जिस्म में उठीं लहरें
दरिया भी नामवर नहीं होता

सबके हिस्से में दर्द के छाले
कभी तन्हा सफ़र नहीं होता

बच्चे बच्चे सा मन का आलम
रातें होती सहर नहीं होता

‘रंजू’ किस्से को अब भुलाएँ हम
यादों में अब गुजर नहीं होता
0

॥ छह ॥

दर्द कोई दवा हो गया है
पत्ता पत्ता हरा हो गया है

सांसे जीने लगीं हैं मुक़म्मिल
उनसे जब सामना हो गया है

सरहदों पे उदासी थमी है
वक़्त का फैसला हो गया है

मुफ़लिसी के जख़्म भर गए हैं
कोई बच्चा बड़ा हो गया है

सहमी कलियाँ चटकने लगी हैं
ग़म से अब फासला हो गया है

खिलखिलाते हैं आँखों में सपने
फूल सा हौसला हो गया है
0

॥ सात ॥

फिक्र ऐसी हो कि कोई जिक्र छिड़े हल निकले
जख़्मी यादों के अंधेरों से जंगल निकले

किसी अहसास की खुशबू है कि यादों की महक
उनकी पलकों की नमी सोख के काजल निकले

जो हैं पत्थर तराशो उन्हें कोई रंग भरो
बुझती आँखों से जज्बात के बादल निकले

दरिया हैरान कि खोया है समंदर का पता
दु:खते पैरों की तकदीर से पायल निकले

बर्फ़ के खेत में ठिठुरन की फसल पकती है
खुद से अपना ही पता पूछने पागल निकले
0

॥ आठ ॥

वो पत्थर पे सपने उगाने लगे हैं
वो शीशे के घर क्यों बनाने लगे हैं

कड़ी धूप में जब जली मुफ़लिसी है
वो काग़ज़ पे नक्शे बिछाने लगे हैं

जली झोपड़ी क्यों लगी आग कैसे
गरीबी को जड़ से मिटाने लगे हैं

बढ़ी कीमतें हैं घटा आदमी है
वो भट्टी में लोहा तपाने लगे हैं

न दु:ख में न सुख में न अपने-पराये
वो कीमत समय की लगाने लगे हैं

कहाँ ताज़गी है किधर रंग बाकी
वो खुशबू पे पहरे बिठाने लगे हैं
0
॥ नौ ॥

आओ गीता कुरान की मानें
अपने अपने अजान की मानें

मानकर देखना बस इतना है
कि सब अपने ईमान की मानें

एक चादर बिछा के बैठे हम
बातें सबके बयान की मानें

मानें हम वक़्त का सही कहना
खेत की और किसान की मानें

बन्द कमरे की तंग सांसें हैं
धूप की और दालान की मानें

अपने घर की नहीं करें चिंता
‘रंजू’ सबके मकान की मानें
0

॥ दस ॥

तुम्हारी हमारी अज़ब है कहानी
ना बरखा न बूँदें दरिया न पानी

कहो न कहो प्यास जलने लगी है
कई बंदिशों में घिरी है जवानी

रोने के पहले लगातार हँसना
मुझे याद आती हैं बातें पुरानी

ख़तों के बिछोने पे चुपचाप सोना
दुप्पटे में भीगा वो चेहरा नूरानी

कई जख़्म भीतर के रिसते रहे हैं
कई ख़्वाब जलते रहे आसमानी

रिवाज़ों के कोहरे में हम घिर गए
तड़पती, सिसकती हैं रातें सयानी
0

जन्म : गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.ए., बी.एड
प्रकाशित पुस्तकें : चाहत धूप के एक टुकड़े की(कविता संग्रह), आईना-ए-रूह(ग़ज़ल संग्रह), सक्षम थीं लालटेनें(कविता संग्रह-2006 में)।
संपादन : सृजन-पथ (साहित्यिक पत्रिका) के सात अंकों का अब तक संपादन।

पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- वागर्थ, नया ज्ञानोदय, आउटलुक, इंडिया टुडे, अक्षर पर्व, परिकथा, पाखी, कादम्बिनी, सनद, पाठ, साहिती सारिका, वर्तमान साहित्य, काव्यम्, राष्ट्रीय सहारा, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता (सबरंग), जनसत्ता कोलकाता(दीवाली विशेषांक), संडे पोस्ट, निष्कर्ष, शब्दयोग, पर्वत राग आदि में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ एवं स्त्री विमर्श विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के एक टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से साहित्य की महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नं. 2, पो.ऑ. सिलीगुड़ी बाज़ार, सिलीगुड़ी(प. बंगाल)-734005
मोबाइल : 099339 46886