शनिवार, 24 जुलाई 2010

वाटिका - जुलाई, 2010



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती और रंजना श्रीवास्तव की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं- समकालीन हिंदी कविता के जाने-माने कवि-ग़ज़लकार नरेश शांडिल्य की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…


दस ग़ज़लें - नरेश शांडिल्य

॥एक॥

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई
है उम्र भर की यही कमाई

किसी ने हम पर जिगर उलीचा
किसी ने हमसे नज़र चुराई

दिया ख़ुदा ने भी ख़ूब हमको
लुटाई हमने भी पाई-पाई

न जीत पाए, न हार मानी
यही कहानी, ग़ज़ल, रुबाई

न पूछ कैसे कटे हैं ये दिन
न माँग रातों की यूँ सफाई
॥दो॥

सर न झुकाया, हाथ न जोड़े
बेशक हम पर बरसे कोड़े

लाख परों को कतरा उसने
ख़ूब कफ़स हमने भी तोड़े

हार गए ना दिल से आख़िर
दौड़े लाख 'अक़ल के घोड़े'

हम वो एक कथा हैं जिसने
लाखों क़िस्से पीछे छोड़े

हमसे मत टकराना बबुआ
हमने रुख तूफ़ाँ के मोड़े
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॥तीन॥

दिलकश कमसिन बातें छोड़ो आज तल्ख़ियों पर चर्चा हो
फिर करना रिमझिम की बातें आज बिजलियों पर चर्चा हो

तितली, भौंरे, प्यार, वफ़ा, ठंडी फुहार, जज्बाती मसले
ये मस्ती का वक्त नहीं है राख-बस्तियों पर चर्चा हो

घूँघट-चूनर-शाल-दुप्पटा, लाज-शर्म था उसका गहना
फ़ैशन शो में नाच रहीं उन आम लड़कियों पर चर्चा हो

फ़ुर्सत से देखेंगे इनको, सारहीन ख़बरों को छोड़ो
आज तो केवल अख़बारों की ख़ास सुर्खियों पर चर्चा हो

बेमानी हैं सम्मानों के लेन-देन पर बासी बहसें
आज नवोदित कवि की ताज़ा रक्त-पंक्तियों पर चर्चा हो
॥चार॥

सह चुके अब तो बहुत अब सर उठाना चाहिए
आदमी को आदमी होकर दिखाना चाहिए

कब तलक क़िस्मत की हाँ में हाँ मिलाते जाएँगे
अपने पैबंदों को अब परचम बनाना चाहिए

आँधियों में ख़ुद को दीये-सा जलाएँ तो सही
हाँ कभी ऐसे भी ख़ुद को आज़माना चाहिए

तू मेरे आँसू को समझे, मैं तेरी मुस्कान को
आपसी रिश्तों में ऐसा ताना-बाना चाहिए

हममें से ही कुछ को मेहतर होना होगा सोच लो
साफ़-सुथरा-सा अगर बेहतर ज़माना चाहिए
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॥पाँच॥

वक्त लहू से तर लगता है
इस दुनिया से डर लगता है

इंसानों के धड़ के ऊपर
हैवानों का सर लगता है

बाज़ के पंजों में अटका वो
इक चिड़िया का पर लगता है

रिश्ते - नाते पलड़ों पर हैं
बाज़ारों सा घर लगता है

जितना ज्यादा सच बोलें हम
उतना ज्यादा कर लगता है
॥छह॥

एक खुली खिड़की-सी लड़की
देखी मस्त नदी -सी लड़की

खुशबू की चूनर ओढ़े थी
फूल बदन तितली-सी लड़की

मैं बच्चे-सा खोया उसमें
वो थी चाँदपरी -सी लड़की

जितना बाँचूँ उतना कम है
थी ऐसी चिट्ठी-सी लड़की

काश कभी फिर से मिल जाए
वो खोई-खोई -सी लड़की
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॥सात॥

ये हवा, ये धूप, ये बरसात पहले-सी नहीं
दिन नहीं पहले से अब ये रात पहले-सी नहीं

आज क्यों हर आदमी बदनाम आता है नज़र
आज क्यों हर आदमी की ज़ात पहले-सी नहीं

किसलिए रट हाय-हाय की लगी है हर तरफ़
क्यों हमारे दिल-जिगर में बात पहले-सी नहीं

अब कहाँ वो ज़हर के प्याले, कहाँ मीरा कहो
प्रेम की बाज़ी में क्यों शह-मात पहले-सी नहीं

उनकी चौखट ने नहीं क्यों आज पहचाना मुझे
क्या मेरी हस्ती मेरी औक़ात पहले-सी नहीं
॥आठ॥

अब न रहीं वो दादी-नानी
कौन सुनाए आज कहानी

पापा दफ्तर, उलझन, गुस्सा
अम्मा चूल्हा, बरतन, पानी

किसकी गोदी में छिप जाएँ
करके अब अपनी मनमानी

चाँद पे बुढ़िया और न चरखा
और न वो परियाँ नूरानी

बाबा की तस्वीर मिली कल
गठरी में इक ख़ूब पुरानी
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॥नौ॥

महफ़िल में मेरा ज़िक्र मेरे बाद हो न हो
दुनिया को मेरा नाम तलक याद हो न हो

है वक्त मेहरबान जो करना है कर अभी
मालूम किसे कल यूँ खुदा शाद हो न हो

दिल दर्द से आबाद है कह लूँ ग़ज़ल अभी
इस दिल का क्या पता कि फिर आबाद हो न हो

इज़हार मोहब्बत का किया सोच कर यही
कल किसको ख़बर फिर से यूँ इरशाद हो न हो

उलफ़त के मेरी आज तो चर्चे हैं हर तरफ़
कल वक्त क़े होंठों पे ये रूदाद हो न हो
॥दस॥

हमने तो बस ग़ज़ल कही है, देखो जी
तुम जानो क्या गलत-सही है, देखो जी

अक्ल नहीं वो, अदब नहीं वो, हाँ फिर भी
हमने दिल की व्यथा कहीं है, देखो जी

सबकी अपनी अलग-अलग तासीरें हैं
दूध अलग है, अलग दही है, देखो जी

ठौर-ठिकाना बदल लिया हमने बेशक
तौर-तरीक़ा मगर वही है, देखो जी

बदलेगा फिर समाँ बहारें आएँगी
डाली-डाली कुहुक रही है, देखो जी।
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नरेश शांडिल्य
मूल नाम : नरेश चन्द शर्मा
जन्म : 15 अगस्त,1958, नई दिल्ली।
शिक्षा : एम.ए.(हिन्दी)
प्रकाशित कृतियाँ : 'टुकड़ा-टुकड़ा ये ज़िन्दगी'(कविता संग्रह-1995), 'दर्द जब हँसता है'(दोहा कविता संग्रह-2000), 'मैं सदियों की प्यास' (ग़ज़ल संग्रह-2006), 'नाट्य प्रस्तुति में गीतों की सार्थकता' (शोधकार्य)।
पुरस्कार/सम्मान : हिन्दी अकादमी, दिल्ली की ओर से कविता संग्रह 'टुकड़ा-टुकड़ा ये ज़िन्दगी' के लिए 'साहित्यिक कृति सम्मान(1996), भारतीय साहित्य परिषद्, दिल्ली की ओर से 'भवानीप्रसाद मिश्र सम्मान'(2001), वातायन, लंदन, यू.के. की ओर से 'वातायन कविता सम्मान'(2005)
पत्रकारिता : 'अक्षरम् संगोष्ठी' हिन्दी साहित्य की अन्तरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक, 'प्रवासी टाइम्स' प्रवासी भारतीयों की अन्तरराष्ट्रीय मासिक पत्रिका के रचनात्मक निदेशक।
सम्प्रति : यूनियन बैंक में कार्यरत एवं स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क : ए-5, मनसाराम पार्क, संडे बाज़ार रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
दूरभाष : 09868303565