मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

वाटिका – दिसम्बर 2011



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, विनीता जोशी और ममता किरण की कविताएं, तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं। ‘वाटिका’ के पिछले अंक (अक्तूबर 2011) में समकालीन हिंदी कविता की प्रमुख कवयित्री ममता किरण की दस कविताएँ आपने पढ़ीं। इसबार समकालीन हिंदी ग़ज़ल के बहुत महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हरेराम ‘समीप’ की हम दस चुनिन्दा ग़ज़लें प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव




दस ग़ज़लें : हरेराम समीप


जाने कहाँ गईं मुस्कानें देकर बौनी ख़ामोशी
ख़ुशियों के धागे में हमको पड़ी पिरोनी ख़ामोशी

अब के शब्द दराँती, भाले, लाठी लेकर आए हैं
जीवन के हर चेहरे पर है तनी घिनौनी ख़ामोशी

पत्ते थर-थर काँप रहे हैं, सहमी-सहमी शाखें हैं
बगिया के पेड़ों पर ठहरी इक अनहोनी ख़ामोशी

हमने अपने प्यारे रिश्ते भाव-ताव कर बेच दिए
बदले में घर ले आए हैं आधी-पौनी ख़ामोशी

सभी शिकायत करते हैं कि मौसम ये बर्फ़ीला है
लेकिन कोई नहीं चाहता, यहाँ बिलोनी ख़ामोशी

कुछ तो बोलो, आपस में तुम बातचीत मत बंद करो
पड़ जाएगी सम्बंधों को वर्ना ढोनी ख़ामोशी



वेदना को शब्द के परिधान पहनाने तो दो
ज़िंदगी को गीत में ढलकर ज़रा आने तो दो

वक़्त की ठण्डक से शायद जम गई मन की नदी
देखना बदलेंगे मंज़र, धूप गर्माने तो दो

खोज ही लेंगे नया आकाश ये नन्हें परिंद
इन परिंदों को ज़रा तुम पंख फैलाने तो दो

ऐ अँधेरो ! देख लेंगे हम तुम्हें भी कल सुबह
सूर्य को अपने सफ़र से लौटकर आने तो दो

मुद्दतों से सोच अपनी बंद कमरे में है क़ैद
खिड़कियाँ खोलो, यहाँ ताज़ा हवा आने तो दो

ना-समझ है वक़्त, लेकिन ये बुरा बिल्कुल नहीं
मान जाएगा, उसे इक बार समझाने तो दो

कब तलक डरते रहें हम, ये न हो, फिर वो न हो
जो भी होना है, उसे इस बार हो जाने तो दो



प्यार के सौदाइयों को आप क्या जानें हुजूर
वक़्त की सच्चाइयों को आप क्या जानें हुजूर

इस नगर की गगनचुम्बी सभ्यता ने ढँक लिया
गाँव की अमराइयों को आप क्या जानें हुजूर

ख़्वाहिशों की रौशनी है आपके चारों तरफ
दर्द की परछाइयों को आप क्या जानें हुजूर

आप तो महलों से बाहर आज तक आए नहीं
फिर मेरी कठिनाइयों को आप क्या जानें हुजूर

व्यक्ति-पूजा, दुर्व्यवस्था, खौफ, नफ़रत औ’ ज़नून
देश की इन खाइयों को आप क्या जानें हुजूर

फिर यहाँ दुख-दर्द चीख़ें मौत बिखरा दें न ये
मौत के अनुयायियों को आप क्या जानें हुजूर



झुलसती धूप, थकते पाँव, मीलों तक नहीं पानी
बताओ तो कहाँ धोऊँ, सफ़र की ये परेशानी

इधर भागूँ, उधर भागूँ, जहाँ जाऊँ, वहीं पाऊँ
परेशानी, परेशानी, परेशानी, परेशानी

बड़ा सुंदर-सा मेला है, मगर उलझन मेरी ये है
नज़र में है किसी खोए हुए बच्चे की हैरानी

यहाँ मेरी लड़ाई सिर्फ़ इतनी रह गई यारो
गले के बस ज़रा नीचे, रुका है बाढ़ का पानी

तबीयत आजकल मेरी यहाँ अच्छी नहीं रहती
विषैला हो गया शायद, यहाँ का भी हवा-पानी

समय के ज़ंग खाए पेंच दाँतों से नहीं खुलते
समझ भी लो मेरे यारो बग़ावत के नए मानी



देखना फरमान ये जल्दी निकाला जाएगा
जुर्म होते जिसने देखा मार डाला जाएगा

मसखरों के स्वागतम् में गीत गाए जाएँगे
शायरों को देश के बाहर निकाला जाएगा

दिल की बेरंगी ने बदला है नज़र का ज़ाविया
हमसे ऐसे में न कोई चित्र ढाला जाएगा

पोथियाँ मत सौंपिए झूठे किसी इतिहास की
व्यर्थ का यह बोझ न हमसे सँभाला जाएगा

खो गई यह कौन-सी तारीकियों में ज़िंदगी
खोजने उसको न जाने, कब उजाला जाएगा

आग मत भड़काइए देकर तआस्सुब की हवा
वक़्त के चूल्हे पे वर्ना ख़ूँ उबाला जाएगा



क्या हुआ क्यों बाग़ के सारे शजर लड़ने लगे
आँधियाँ कैसी हैं, जो ये घर से घर लड़ने लगे

एक ही मंज़िल है उनकी, एक ही है रास्ता
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे

एक तो मौसम की साज़िश मेरे घर बढ़ती गई
फिर हवा यूँ तेज़ आई, बामो-दर लड़ने लगे

मेरा साया तेरे साए से बड़ा होगा इधर
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे

एक ही ईश्वर अगर है तो वो है सबके ‘समीप’
बंदगी कैसी हो, बस इस बात पर लड़ने लगे



यहाँ तो प्यास-भर पानी भी अब सस्ता नहीं आता
मगर अख़बार में इस बात का चर्चा नहीं आता

तमाचा मार लो, बटुआ छुड़ा लो, कुछ भी कर डालो
ये दुनियादार शहरी हैं, इन्हें गुस्सा नहीं आता

सुलगते शब्द हाथों में उठाए फिर रहा हूँ मैं
मुझे मालूम है, इस राह में दरिया नहीं आता

हमारी बात ज़ालिम की समझ में आए, तो कैसे
कहीं ये तो नहीं है कि हमें कहना नहीं आता

मनोबल गिर गया जिसका, बग़ावत क्या करेगा वह
लड़ेगा वो भला कैसे, जिसे मरना नहीं आता

बड़े से भी बड़े पर्वत का सीना चीरता है खुद
किसी के पाँव से चलकर कोई दरिया नहीं आता



आए जो धीरज बँधाने कल मुझे
दे गए अपना भी कोलाहल मुझे

राह में छिलना ही था ये तन-बदन
जब बबूलों-के मिले जंगल मुझे

प्यास से दम तोड़ने वाला था मैं
तब मिला दो बूँद गंगाजल मुझे

मैं अना के घर में कब से बंद हूँ
तू यहाँ से अब कहीं ले चल मुझे

बंदिशें - दर - बंदिशें- दर- बंदिशें
जैसे घेरे कोई दावानल मुझे

छाँव की उम्मीद जिससे थी ‘समीप’
दूर जाता वह मिला बादल मुझे



ये शहर लगता है मुझको एक मेले की तरह
घूमता हूँ मैं यहाँ नादान बच्चे की तरह

अपनी यादों को समेटे फिर रहा हूँ मैं यहाँ
बे-पता, बे-सिम्त, तन्हा ज़र्द पत्ते की तरह

जब तलक है साँस, लड़ना ही पड़ेगा वक़्त से
बैटरी से चलनेवाले इक खिलौने की तरह

नौकरी की खोज में निकला है, तो ये सोच ले
अब उछालेगा ज़माना तुझको सिक्के की तरह

तैरने के गुर सिखाता है वो सबको आजकल
धार में बहता रहा जो एक तिनके की तरह

काम से थक-हार कर जब लौटता हूँ रोज़ मैं
घर तरो-ताज़ा बना देता फरिश्ते की तरह

तुम ज़माने से अलग ही बात करते थे ‘समीप’
तुम भी बातें कर रहे हो अब ज़माने की तरह

१०


तुमको और बताएँ क्या-क्या भूल गए
घर में रखकर कहीं ख़जाना भूल गए

कर्तव्यों के बोझ लादकर शहर गए
फिर आपा-धापी में जीना भूल गए

आकर्षक दिखने की जिद में खूब सजे
सजते-सजते अपना चेहरा भूल गए

रस्ते में जब धूप लगी तो याद आया
जाने कहाँ हम अपना छाता भूल गए

सागर से पानी लेकर बादल निकले
खेत में आते-आते रस्ता भूल गए

मोबाइल ईमेल चले तो बच्चे अब
माँ-बापू को चिट्ठी लिखना भूल गए
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जन्म- 13 अगस्त ,1951 (ग्राम: मेख, जिला: नरसिंहपुर, म.प्र.)
समकालीन हिंदी ग़ज़ल में हरेराम समीप एक खास पहचान रखते हैं। ग़ज़ल कहने का सलीका उन्हें आता है और वह जिस देश-समाज में रहते हैं, उसके सरोकारों को बखूबी जानते हैं और अपनी ग़ज़लों में अपने समकालीन सामाजिक यथार्थ से दो-चार होते दीखते हैं। तहों में छिपे झूठ से वह निरंतर जूझते हुए उसे नंगा करते हैं और अपनी शायरी में सच को स्थापित करने में संलग्न दीखते हैं। ‘समीप’ किस सकारात्मक सोच के कवि हैं, उनकी ग़ज़लें इसकी बानगी प्रस्तुत करती हैं। साहित्य की अनेक विधाओं में लिखने वाले हरेराम समीप की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

प्रकाशन : ग़ज़ल-संग्रह-हवा में भीगते हुए(1990), आँधियों के दौर में(1992) , कुछ तो बोलो (1995),किसे नहीं मालूम (2004), इस समय में (2011)
कहानी –संग्रह : समय से पहले (1992),
दोहा-संग्रह: जैसे (2000), साथ चलेगा कौन (2005)
सम्पादन: कथाभाषा (अनियतकालीन) पत्रिका 1987 से ‘निष्पक्ष भारती’ के ग़ज़ल विशेषांक का एवं मसि कागद त्रैमासिकी के दोहा विशेषांक का सम्पादन। अनेक विश्व प्रसिद्ध रचनाओं का अनुवाद।
विशेष :दूरदर्शन सीरियल ‘नक्षत्र स्वामी’ की पटकथा व गीत-लेखन।
हरियाणा साहित्य अकादमी समेत अनेक पुरस्कार एवं सम्मान।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा समीप के ग़ज़ल एवं दोहों पर एम-फ़िल हेतु शोध-कार्य सम्पन्न।
सम्प्रति- लेखाधिकारी ,जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि ,तीन मूर्ति भवन, नई दिल्ली-1 संपर्क : 395 ,सेक्टर -8 , फ़रीदाबाद -121006
ई-मेल-
sameep395@gmail.com