सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

वाटिका – अक्तूबर, 12



वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोजहिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता किरण, उमा अर्पिता और विपिन चौधरी की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।
 अपनी कविताओं के विशिष्ट तेवर से कविता प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करने वाली दिल्ली की युवा कवयित्री अंजू शर्मा की दस चुनिंदा कविताएँ इसबार वाटिका के ताज़ा अंक (अक्तूबर, 12) में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य निष्पक्ष प्रतिक्रिया से हमें और वाटिका के पाठकों को अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव

अंजू शर्मा की दस कविताएँ


मेरी माँ

अपनी माँ का नाम मैंने कभी नहीं सुना
लोग कहते हैं-
फलाने  की माँ, फलाने की पत्नी और
फलाने की बहू
एक नेक औरत थी
किसी को नहीं पता
माँ की आवाज़ कैसी थी
मेरे ननिहाल के कुछ लोग कहते हैं
माँ बहुत अच्छा गाती थी
माँ की गुनगुनाहट ने
कभी भी नहीं लाँघी थी
रसोई की ड्योढ़ी
बर्तन जानते थे माँ की आवाज़
चाय को कितना मीठा करती होगी
माँ की दस्तकारियाँ आज भी अधूरी हैं
अधूरे रह गए हैं सारे रिश्ते
अपनी नेकनामी के भार तले दबी हुई माँ
छोड़ गयी -
अधूरी सांसें, अधूरी दस्तकारियाँ और अधूरे रिश्ते
कभी-कभी मैं सोचती हूँ
'
नेक' बनने की कीमत चुकाने के लिए
अधूरा होना क्या पहली शर्त होती है?


जंगल

वे नहीं थी शिक्षित और बुद्धिजीवी
उनके पास नहीं थी
अपने अधिकारों के प्रति सजगता
वे सब आम औरतें थीं, बेहद आम
घर और वन को जीने वाली
वे नहीं जानती थीं
ग्लोबल वार्मिंग किसे कहते हैं
वे नहीं जानती थी
वे बनने जा रही हैं सूत्रधार
किसी आन्दोलन की
किन्तु वे जानती और मानती थी
जंगल के उपकार
वे जानती थी
मिटटी, पानी और हवा की उपयोगिता

वे गाती थी गीत वनों के
पेड़ों के, मिटटी के, हरियाली के
वे गाया करती थीं…
'
क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार ।
मिट्टी, पानी और बयार, जिन्दा रहने के आधार ।'

चीन से धोखा खायी सरकार की
अनायास जागी सीमाओं की चिंता ने
लील लिए थे कितने ही हज़ार पेड़,
वे जानती थीं
उन नीलाम किये गये रैणी गाँव के
ढाई हज़ार पेड़ों पर ही नहीं रुकेगा ये विध्वंस

मिटटी बिकी, पानी बिका, बिक गए आज हमारे वन
खाली हाथ, खाली पेट, अब किस छाँव को ढूंढेंगे हम .
उस रात वे चुन सकती थी
दिन भर की थकन के बाद सुख और चैन की नींद
वे चुन सकती थी, प्रिय का स्नेहिल गर्माता आगोश
वे चुन सकती थी, अपने शिशु के पार्श्व में एक ममत्व भरी रात
वे चुन सकती थी सपने बुनना
कपडे, गहने और तमाम सुविधाओं के उस रात

उन्होंने चुना जल, जंगल और जमीन के लिए जागरण को
उन्होंने चुना वनों को
जो उनका रोज़गार था, जीवन था, मायका था
उन्होंने चुना पेड़ों को
जो उनके पिता थे, भाई थे, मित्र थे, बच्चे थे
उनके मौन होंठों पर आज नहीं था कोई गीत
उनके खाली हाथों में नहीं था कोई हथियार
एक हाथ में आशंका और दूसरे में आत्मविश्वास को थामे
पेड़ों को बाँहों में भरकर
बचा लेना चाहती थीं वे क्रूर हाथों से
वे कहती रहीं खुद से कि
वे जंगल की रक्षा करने जा रहीं हैं
जबकि साक्षी था
ऋषिगंगा का किनारा
इस बार वे स्वयं को बचाने निकली थीं
वे लड़ीं हर डर, धमकी या प्रलोभन से
अपनी आशंका को बदलकर दृढ निश्चय में
चिपक गयी वे पेड़ों से
वे अट्ठाईस औरतें सीख गयी थीं द्विगुणित होने की कला
उस एक रात बचाते हुए अपने मायके को
वे सब आम औरतें
आन की आन में खास हो गईं…
(सत्तर के दशक के 'चिपको आन्दोलन' की सूत्रधार बनी 28 ग्रामीण महिलाओं को समर्पित)

एक स्त्री आज जाग गयी है

रात की कालिमा कुछ अधिक गहरी थी
डूबी थी सारी दिशाएं आर्तनाद में
चक्कर लगा रही थी सब उलटबांसियां
चिंता में होने लगी थी
तानाशाहों की बैठकें
बढ़ने लगा था व्यवस्था का रक्तचाप
घोषित कर दिया जाना था कर्फ्यू
एक स्त्री आज जाग गयी है…

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कोने में सर जोड़े खड़े थे
साम-दाम-दंड-भेद
ऊँची उठने को आतुर थी हर दीवार
ज़र्द होते सूखे पत्तों-सी कांपने लगी रूढ़ियाँ
सुगबुगाहटें बदलने लगीं साजिशों में
क्योंकि वह सहेजना चाहती है
थोडा-सा प्रेम खुद के लिए
सीख रही है आटे में नमक जितनी खुदगर्जी
कितना अनुचित है ना
एक स्त्री आज जाग गयी है…

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घूंघट से कलम तक के सफ़र पर निकली
चरित्र के सर्टिफिकेट को नकारती
पाप और पुण्य की
नयी परिभाषा की तलाश में
घूम आती है उस बंजारन की तरह
जिसे हर कबीला पराया लगता है
तथाकथित अतिक्रमणों की भाषा सीखती
वह आजमा लेना चाहती है
सारे पराक्रम
एक स्त्री आज जाग गयी है…

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आंचल से लिपटे शिशु से लेकर
लैपटॉप तक को साधती औरत के संग
जी उठती है कायनात
अपनी समस्त संभावनाओं के साथ
बेड़ियों का आकर्षण
बन्धनों का प्रलोभन
बदलते हुए मान्यताओं के घर्षण में
बहा ले जाता है अपनी धार में न जाने
कितनी ही शताब्दियाँ
तब उभर आते हैं कितने ही नए मानचित्र
संसार के पटल पर,
एक स्त्री आज जाग गयी है…

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खुली आँखों से देखते हुए अतीत को
मुक्त कर देना चाहती है मिथकों की कैद से
सभी दिव्य व्यक्तित्वों को
जो जबरन ही कैद कर लिए गए
सौंपते हुए जाने कितनी ही
अनामंत्रित अग्निपरीक्षाएं
हल्का हो जाना चाहती हैं छिटक कर
वे सभी पाश
जो सदियों से लपेट कर रखे गए थे
उसके इर्द-गिर्द
अलंकरणों के मानिंद
एक स्त्री आज जाग गयी है…

पब से निकली लड़की

पब से निकली लड़की
नहीं होती है किसी की माँ, बेटी या बहन,
पब से निकली लड़की का चरित्र
मोहताज हुआ करता है घडी की
तेज़ तेज चलती सुइयों का,
जो अपने हर कदम पर कर देती हैं
उसे कुछ और काला

पब से निकली लड़की के पीछे छूटी
लक्ष्मण-रेखाएं हांट करती हैं उसे जीवनपर्यंत
जिनका लांघना उतना ही मायने रखता है
जितना कि
उसे नैतिकता का सबक सिखाया जाना

पब से निकली लड़की
अभिशप्त होती है एक सनसनी में
बदल जाने के लिए
उसके लिए गुमनामी की उम्र उतनी ही होती है
जितनी देर का साथ होता है
उसके पुरुष मित्रों का

पब की लड़की के कपड़ों का चिंदियों में बदल जाना
उतना ही स्वाभाविक है कुछ लोगों के लिए
जैसे समय के साथ वे चिन्दियाँ बदल जाती हैं
'
तभी तो', 'इसीलिए' और 'होना ही था' की प्रतिक्रियाओं में

पब से निकली लड़की के
ताक पर रखते ही अपना लड़कीपना,
सदैव प्रस्तुत होते हैं 'कचरे' को बुहारते 'समाजसेवी'
कचरे के साथ बुहारते हुए
उसकी सारी मासूमियत अक्सर
वे बदल जाते हैं सिर्फ आँख और हाथों में

पब से निकली लड़की की आवाजें
हमेशा दब जाती हैं
अनायास ही मिले
चरित्र के प्रमाणपत्रों के ढेर में
पब से निकली लड़की के ब्लर किये चेहरे पर
आज छपा है एक प्रश्न
कि उसका ३० मिनट की फिल्म में बदलना
क्या जरूरी है समाज को जगाने के लिए
वह पूछती है सूनी आँखों से
क्या जरूरी है
उसके साथ हुए इस व्याभिचार का सनसनी में बदलना
या जरूरी है कैमरा थामे उन हाथों का एक सहारे में बदलना…


तीन सिरों वाली औरत

मैं अक्सर महसूस करती हूँ
उस रागात्मक सम्बन्ध को
जो सहज ही जोड़ लेती है एक स्त्री
दूसरी स्त्री के साथ
मेरे घर में काम करने वाली
एक तमिल महिला धनलक्ष्मी
या मेरे कपडे प्रेस करने वाली रेहाना
अक्सर उतर आती हैं मेरे मन में
डबडबाई आँखों के रास्ते
तब अचानक मैं पाती हूँ
मेरे तीन सिर हैं
सब देख रहे हैं, एक ही दिशा में
और सबमें एक-सी चिंताएं उभर रही हैं
जो घूमती हैं, हम तीनों की बेटियों की शक्ल में
जिन्हें बड़े होना है
इस असुरक्षित शहर में हर रोज़ थोडा-थोडा…


मुस्कान 

मैं हर रोज उसे देखता हूँ 
बालकोनी में कपडे सुखाती
या मनीप्लांट संवारती 
वह नवविवाहिता हर रोज़ ओढ़े रहती है 
किसी विमान परिचारिका-सी मुस्कान
मेरा कलम चलाता हाथ
या चश्में से अख़बार की सुर्खियाँ पीती आँखें
या हाथ में पकड़ा 
ठंडी होती कॉफ़ी का उनींदा कप
या कई दिनों बाद दाढ़ी बनाने को 
बमुश्किल तैयार रेज़र  
अक्सर ठिठक जाते हैं… 

कभी-कभी कोफ़्त होने लगती है 
इस मुस्कान से
क्या वो तब भी मुस्कुराएगी
जब पायेगी अपने 
परले दर्जे के अय्याश पति के कोट पर
एक बाल
जो उसके बालों के रंग और साइज़ से
बेमेल है
जब उसके बेड के साइड टेबल पर रखी 
तस्वीरें सिकुड़ने लगेंगी
और फ्रेम बड़ा हो जायेगा
जब शादी का रंगीन एल्बम
ब्लैक एंड व्हाइट लगने लगेगा
जब वो ऑफिस से लौटते हुए 
नहीं लायेगा कोई तोहफा
सच कहूँ तो उसका
छत पर बने उसके कमरे के
कोने में रखे बोनसाई में बदलना
मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा
लेकिन मैं जानता हूँ कि ये मुस्कान 
एक दिन खामोश सर्द मौसम में घुल जाएगी
आहिस्ता आहिस्ता…


जूते और विचार

कभी-कभी
जूते छोटे हो जाते हैं
या कहिये कि पांव बड़े हो जाते हैं
छोटे जूतों में कसमसाते पाँव
दिमाग से बाहर आने को आमादा
विचारों जैसे होते हैं
दोनों को ही बांधे रखना
मुश्किल और गैर-वाजिब है
ये द्वन्द थम जाता है जब
खलबली मचाते विचार
ढूँढ़ते हैं एक माकूल शक्ल
और शांत हो जाते हैं
वहीँ पाँव पा जाते हैं एक नया जूता…


जूते सब समझते हैं

जूते
जिनके तल्ले साक्षी होते हैं
उस यात्रा के
जो तय करते हैं लोगों के पाँव
वे स्कूल के मैदान
बनिए की दुकान
और घर तक आती सड़क
या फिर दफ़्तर का अंतर
बखूबी समझते हैं
क्योंकि वे वाकिफ हैं
उस रक्त के उस भिन्न दबाव से
जो जन्मता है
स्कूल, दुकान, घर या दफ़्तर को देखकर…


कद

बौनों के देश में
सच के कद को बर्दाश्त करना
सबसे बड़ा अपराध था
प्रतिमाओं को खंडित कर
कदों को छोटा करना ही
राष्ट्रीय धर्म था
कालातीत होना ही नियति थी
ऐसी सब ऊँचाइयों की
जो अहसास दिलाती थी
कि वे बौने हैं
हर लकीर की बगल में जब
भी खींची जानी चाहिए थी-
कोई बड़ी लकीर
पुरानी को मिटा देना ही
फैशन माना जाने लगा
छिद्रान्वेषण एक दिन राष्ट्रीय खेल
घोषित किया गया
तब आहत संवेदनाओं में
धंसाई गई किरचों के लिए
पाए गए तमगे ही असली कद
माने जाने लगे
बंद किये जाते सभी झरोंखों के बीच
एक दिन
दम तोड़ गईं गुनगुनाने वाली सभी गोरैय्याँ
जो गले में थामे
चरित्र के प्रमाणपत्रों की तख्ती
अभिशप्त थी बदलने को
अशब्द गूंगे पत्थरों में
जिनकी हर उड़ान पर ट्रिम होते
सफ़ेद पंखों पर पोत दी जाती थी
आरोपों की कालिख
प्रायोजित बैठकें भी बेकार ही रहीं
काफी हाऊसों की गरमागरम बहसों की तरह
और इससे पहले कि -
पहुंचा जाता किसी फ़ैसलाकुन नतीजे पर
क्रांति और बदलाव के बिगुल
बदल दिए गए स्वहित में की गयी घोषणाओं में
क्योंकि बोनों के सरदार के मुताबिक
'ऊँचे स्वरों' की ऊंचाई वहाँ सदैव निषिद्ध थी…


तीलियाँ

रहना ही होता है हमें
अनचाहे भी कुछ लोगों के साथ,
जैसे माचिस की डिबिया में रहती हैं
तीलियाँ सटी हुई एक दूसरे के साथ

प्रत्यक्षतः शांत
और गंभीर
एक दूसरे से चुराते नज़रें पर
देखते हुए हजारो-हज़ार आँखों से,
तलाश में बस एक रगड़ की
और बदल जाने को आतुर
एक दावानल में

नादान हैं भूल जाते हैं कि
तीलियों का धर्म होता है सुलगाना,
चूल्हा या किसी का घर
खुद कहाँ जानती हैं तीलियाँ
होती हैं स्वयं में एक सुसुप्त ज्वालामुखी
हरेक तीली

कब मिलता है अधिकार उन्हें
चुनने का अपना भविष्य
कभी कोई तीली बदलती है पवित्र अग्नि में तो
कोई बदल जाती है लेडी मेकबेथ में…
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इधर हाल ही में कुछ युवा कवयित्रियों ने अपने विशिष्ट कविता मुहावरे से हिंदी की समकालीन कविता में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज़ की है, जिनमें अंजू शर्मा भी प्रमुख हैं। दिल्ली में जन्मी, पली बढ़ी, कंप्यूटर साईंस में पोस्ट ग्रेजुएट कवि मना अंजू शर्मा अपने कविता कर्म के साथ-साथ इन दिनों दिल्ली व दिल्ली से बाहर की साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी सक्रियता से हलचल मचाए हुए हैं। इनका मानना है कि लेखक का धर्म केवल लिखना और छप जाना भर नहीं है, जब तक लेखन को सामाजिक मुद्दों से नहीं जोड़ा जाए, लेखन कभी भी सार्थकता प्राप्त नहीं कर सकता!  स्त्री-विमर्श पर लिखी इनकी अनेक कवितायेँ बहुत चर्चित हुई हैं जिनमें से कुछ को यहाँ वाटिका में प्रकाशित किया गया है। 

पिछले कुछ सालों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताओं के अलावा सांस्कृतिक रिपोर्टें भी कई पत्रिकाओं और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं!  जैसे-  जनसंदेश टाइम्स, सरिता, नयी दुनिया, शोधदिशा, फेक्ट्स ऑफ़ टुडे, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, मगहर, कल के लिए, नई पुरानी हलचल, खरीन्यूज़.कॉम, हस्तक्षेप.कॉम, नव्या, सृजनगाथा, युग ज़माना, अपनी माटी।

पिछले दिनों आकाशवाणी से भी इनका काव्यपाठ और साक्षात्कार प्रसारित हुआ!  सार्क अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर के कार्यक्रम 'डायलाग' से सक्रिय जुडाव है! लेखकों की संस्था लिखावट से भी बतौर सह-आयोजक, कवि और रिपोर्टर जुडी हुई हैं। कविता पाठ श्रृंखला, कैम्पस में कविता आदि कई कार्यक्रमों में सक्रिय भागेदारी रही है!
नेट पर इनके कई ब्लोग्ज़ हैं- .कुछ दिल ने कहा, दिल की बात और 'उड़ान अंतर्मन की
  
हाल ही में इन्हें काव्य लेखन के लिए इलाहबाद बैंक के इला त्रिवेणी सम्मान २०१२ से दिल्ली में सम्मानित किया गया!  
  
फोन : 9873893119
ई मेल : anjuvsharma2011@gmail.com