
दस ग़ज़लें – सुरेन्द्र शजर
ग़ज़लों के साथ सभी चित्र : अवधेश मिश्र
ख़ूने -दिल ख़ूने-जिगर पड़ता है पीना क्या करें
दिन-ब-दिन मुश्किल हुआ जाता है जीना क्या करें
लड़ के तूफ़ानों में हम अक्सर निकल आते तो हैं
साहिलों पर डूब जाता है सफ़ीना क्या करें
जब कोई हसरत नहीं रहती तो रहता है सुकूं
हसरतें दुश्वार कर देती हैं जीना क्या करें
इससे पहले कि गिला करते जफ़ा का उन से हम
आ गया है उनके माथे पर पसीना क्या करें
चार जानिब से मेरे दिल को है ग़म घेरे हुए
सैंकड़ों तूफ़ान हैं और इक सफ़ीना क्या करें
जो भी कुछ है पास अपने ऐश-ओ-इश्रत के लिए
ज़िन्दगानी के बख़ील हाथों से छीना क्या करें
उन को हम जैसे अदब वालों में भी रहकर 'शजर'
बात करने का नहीं आया क़रीना क्या करें
2
बहारों में कभी ऐसा नहीं था
शजर पे: एक भी पत्ता नहीं था
मेरा उससे कोई रिश्ता नहीं था
मगर ऐसा कभी लगता नहीं था
जिसे आदत नहीं थी महफ़िलों की
वही इक आदमी तन्हा नहीं था
सुकूं था, प्यार था दिल में वफ़ा थी
हमारे पास जब पैसा नहीं था
उसे अपने उसूलों से ग़रज़ थी
किसी से कोई समझौता नहीं था
तसव्वुर में हज़ारों मंज़िलें थीं
नज़र में एक भी रस्ता नहीं था
वो: मेरी खुश्क आँखें देखता था
उसे तूफ़ाँ का अन्दाज़ा नहीं था
इक आईना तो मेरे रूबरू था
'शजर' उस में कोई चेहरा नहीं था
3
दर्द को दिल के पास मत रखना
खुद को इतना उदास मत रखना
हर तरफ़ आग है हवाओें में
अपने घर में कपास मत रखना
देखिए ये: सफ़र है सहरा का
इस में दरिया की आस मत रखना
मुफ़लिसों की हंसी उड़ाए जो
तन पे: ऐसा लिबास मत रखना
शेख़ साहब नज़र से पीते हैं
उनके आगे गिलास मत रखना
या बिछड़ने न: दे मुझे, या फिर
मेरे मिलने की आस मत रखना
ख़ुद को पहचान भी न: पाओगे
आईने आस- पास मत रखना
तुम भटकते फिरोगे सहरा में
लब पे: इस दर्जा प्यास मत रखना
4
खुद को इतना उदास मत रखना
हर तरफ़ आग है हवाओें में
अपने घर में कपास मत रखना
देखिए ये: सफ़र है सहरा का
इस में दरिया की आस मत रखना
मुफ़लिसों की हंसी उड़ाए जो
तन पे: ऐसा लिबास मत रखना
शेख़ साहब नज़र से पीते हैं
उनके आगे गिलास मत रखना
या बिछड़ने न: दे मुझे, या फिर
मेरे मिलने की आस मत रखना
ख़ुद को पहचान भी न: पाओगे
आईने आस- पास मत रखना
तुम भटकते फिरोगे सहरा में
लब पे: इस दर्जा प्यास मत रखना
4

उनको अक्सर नज़र नहीं आते
टूटते घर नज़र नहीं आते
अब इन्हीं में गुज़र बसर कर लो
इनसे बेहतर नज़र नहीं आते
जब से पत्थर उठा लिए हम ने
कांच के घर नज़र नहीं आते
सर झुकाने की रस्म आम हुई
दार¹ पे: सर नज़र नहीं आते
अजनबी शह्र में कहां जाते
तुम हमें गर नज़र नहीं आते
जाने क्या ख़ौफ़ है कि शह्र के लोग
घर से बाहर नज़र नहीं आते
मंज़िलें सब को मिल रही हैं 'शजर'
जब से रहबर नज़र नहीं आते
1-फांसी
5
टूटते घर नज़र नहीं आते
अब इन्हीं में गुज़र बसर कर लो
इनसे बेहतर नज़र नहीं आते
जब से पत्थर उठा लिए हम ने
कांच के घर नज़र नहीं आते
सर झुकाने की रस्म आम हुई
दार¹ पे: सर नज़र नहीं आते
अजनबी शह्र में कहां जाते
तुम हमें गर नज़र नहीं आते
जाने क्या ख़ौफ़ है कि शह्र के लोग
घर से बाहर नज़र नहीं आते
मंज़िलें सब को मिल रही हैं 'शजर'
जब से रहबर नज़र नहीं आते
1-फांसी
5

अगर हो रास्ता हमवार तो सफ़र कैसा
न: आए बीच में दीवार तो सफ़र कैसा
भटकना भी है ज़रूरी मुसाफ़िरों के लिए
मिलें जो रहनुमा हरबार तो सफ़र कैसा
मज़ा तो तब है वो: आंखें बिछाए बैठा हो
वो: मुन्तज़िर¹ न: हो उस पार तो सफ़र कैसा
ये: क्या कि चलते गए और आ गई मंज़िल
लगें न: ठोकरें दो चार तो सफ़र कैसा
बजा² है आरज़ू मंज़िल की भी 'शजर' लेकिन
चुभे न: पाँव में कुछ ख़ार तो सफ़र कैसा
1-प्रतीक्षा में 2-उचित, सच।
6

वो: शख्स जिस ने मुझे आईना दिखाया था
ख़ुद उसका चेहरा कब उसकी नज़र में आया था
किसी भी ख्वाब की ताबीर मेरे पास न: थी
वो: चन्द ख्वाब लिए मेरे पास आया था
खुली जो आंख तो दीवारें गिर गईं घर की
जो मैंने नींद की दहलीज़ पर बनाया था
जो मुश्किलों के सफ़र में था हमसफ़र मेरा
वो: काई और नहीं था मेरा ही साया था
तुम्हारे दिल ही से उतरी न: धूल रंजिश की
तुम्हारी बज्म में सब कुछ भुला के आया था
मेरे लबों पे: अभी तक है वो: हंसी साकित¹
तमाम ज़िन्दगी जिसने मुझे रूलाया था
सिवा अंधेरों के कुछ भी नहीं मिला जिससे
चिराग़ बन के मेरी ज़िन्दगी में आया था
जो दूसरों के घरों में लगाई थी मैंने
'शजर' उस आग ने मेरा भी घर जलाया था
1-ठहरी हुई।
7

तुमसे रिश्ता कायम रखना मुश्किल है
अंगारों में शबनम रखना मुश्किल है
कभी - कभी अच्छी लगती है तन्हाई
तन्हा खुद को हर दम रखना मुश्किल है
जिन से ताज़ा रहती हैं तेरी यादें
उन ज़ख्मों पे: मरहम रखना मुश्किल है
जब कोई अपनी हद से बढ़ जाता है
उन हालात में संयम रखना मुश्किल है
है आसान ग़मों को सहना मेरे लिए
और आँखों को पुरनम रखना मुश्किल है
वक्त क़े साथ बदल जाती है फ़ज़ा 'शजर'
बांध के कोई मौसम रखना मुश्किल है
8
अंगारों में शबनम रखना मुश्किल है
कभी - कभी अच्छी लगती है तन्हाई
तन्हा खुद को हर दम रखना मुश्किल है
जिन से ताज़ा रहती हैं तेरी यादें
उन ज़ख्मों पे: मरहम रखना मुश्किल है
जब कोई अपनी हद से बढ़ जाता है
उन हालात में संयम रखना मुश्किल है
है आसान ग़मों को सहना मेरे लिए
और आँखों को पुरनम रखना मुश्किल है
वक्त क़े साथ बदल जाती है फ़ज़ा 'शजर'
बांध के कोई मौसम रखना मुश्किल है
8

कभी तो दोस्त कभी गैर मान लेता है
कहां कहां वो: मेरा इम्तेहान लेता है
जो हुक्मरां हो दलीलें नहीं सुना करते
जो उसके हक़ में हो उसका बयान लेता है
तो मिल के क्यों न उसे बेनक़ाब कर दें हम
जो अपने शह्र का अम्न-ओ-अमान लेता है
चलो निकल चलें बारिश के ख़त्म होने तक
हमारे क़दमों के कोई निशान लेता है
उसी के दर पे: चलें चल के बैठ जाएं 'शजर'
दिलों का हाल जो चेहरों से जान लेता है
9

दिल की दहलीज़ पर क़दम रक्खा
आ गए तुम मेरा भरम रक्खा
दोस्ती प्यार में बदल जाती
मिलना-जुलना तुम्हीं ने कम रक्खा
तेरे होठों के फूल ताज़ा रहें
अपनी आँखों को मैंने नम रक्खा
शायरी में निखार आएगा
तुमने जारी अगर सितम रक्खा
इस करम का तेरे जवाब नहीं
मेरे हिस्से में ग़म ही ग़म रक्खा
खुद-ब-खुद सहल¹ हो गई है 'शजर'
मैं ने जिस राह में क़दम रक्खा
1-सरल
10
ग़म को अश्कों में डुबोने दे मुझे
आज तू जी भर के रोने दे मुझे
या मुझे कांटों की आदत डाल दे
वरना मख़मल के बिछौने दे मुझे
तूने जब अपना बनाना ही नहीं
जिसका होता हूँ मैं होने दे मुझे
शुक्रिया ऐ मौत तेरा शुक्रिया
ज़िन्दगी का बोझ ढोने दे मुझे
मुझ को ताबीरों से कुछ मतलब नहीं
ख्वाब तू लेकिन सलोने दे मुझे
काट कर ये: फ़सल नफ़रत की 'शजर'
बीज कुछ उल्फ़त के बोने दे मुझे
00
जन्म : 5 अक्तूबर 1958
आकाशवाण से अनुबंधित। 1986 में पहला मुशायरा कमानी ऑडिटोरियम, नई दिल्ली में पढ़ा। देश के विभिन्न शहरों में मुशायरों और कवि सम्मेलनों में भाग लिया। 2005 में विदेश में कराची शहर में आयोजित मुशायरों में शिरक्त की। जून 2008 में साउदी अरब (जेद्दा एवं रियाद) में हुए मुशायरों में भाग लिया। 1992 में पहली किताब ''शजर-ए-सदा''(ग़ज़ल संग्रह) हिन्दी और उर्दू में प्रकाशित। 2005 में दूसरी किताब ''रेत की दीवार'' (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित हुई।
संप्रति - 1/158, सदर बाजार, दिल्ली कैन्ट-110010
फोन - 25693953, 9871557703