“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कविताएँ और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी और रामकुमार कृषक की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि-ग़ज़लगो आलोक श्रीवास्तव की दस ग़ज़लें। यों तो आलोक श्रीवास्तव की ग़ज़लें हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रही हैं और सराही जाती रही हैं, लेकिन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित उनकी पहली कविता पुस्तक “आमीन” ने कविता के सुधी पाठकों का ध्यान विशेष रूप से अपनी ओर खींचा है। “आमीन” में संकलित ग़ज़लों, नज्मों, गीतों और दोहों से गुजरते हुए यह बात बड़ी शिद्दत से पुख़्ता होती है कि यह शायर अपने समय के यथार्थ पर गहरी नज़र रखता है और अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति बेहद जागरूक है। यही नहीं, उसमें कविता के माध्यम से अपनी बात कहने की एक अलग और अनौखी प्रतिभा विद्यमान है। “वाटिका” में प्रस्तुत ये दस चुनिंदा ग़ज़लें उनकी कविता पुस्तक “आमीन” से ही ली गई हैं।
दस ग़ज़लें - आलोक श्रीवास्तव
एक
चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर- शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा
उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अंबर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा
घर में झीने-रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा
बाबूजी गुजरे घर में सारी चीज़ें तक़्सीम हुईं,तो-
मैं सबसे ख़ुशकिस्मत निकला, मेरे हिस्से आई अम्मा।
दो
घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबूजी
तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे, क़द्दावर थे बाबूजी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूज़ी
भीतर से ख़ालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा, इक तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी।
तीन
धड़कते, साँस लेते, रुकते, चलते, मैंने देखा है
कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है
तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं
तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते, मैंने देखा है
न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है
ख़ुद अपने आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है
मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें
तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है
बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी,
बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है
मुझे मालूम है उनकी दुआएँ साथ चलती हैं
सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है।
चार
झिलमिलाते हुए दिन रात हमारे लेकर
कौन आया है हथेली पे’ सितारे लेकर
हम उसे आँखों की देहरी नहीं चढ़ने देते
नींद आती न अगर ख़्वाब तुम्हारे लेकर
रात लाई है सितारों से सजी कंदीलें
सरनिगूँ¹ दिन है धनक वाले नज़ारे लेकर
एक उम्मीद बड़ी दूर तलक जाती है
तेरी आवाज़ के ख़ामोश इशारे लेकर
रात, शबनम से भिगो देती है चहरा-चहरा
दिन चला आता है आँखों में शरारे लेकर
एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा
उम्र भर चलना पड़ा मुझको सहारे लेकर।
( 1- नतमस्तक )
पाँच
तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक
मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक
टूटे हुए ख़्वाबों की इक लम्बी कहानी है
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक
दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को
बेकार ही लाये हम चाहत को जुबानों तक
लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक
इक ऐसी अदालत है, जो रूह परखती है
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक
हर वक़्त फ़िजाओं में, महसूस करोगे तुम
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूँगा ज़मानों तक।
छह
अब तो ख़ुशी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आसूदगी¹ के नाम पे कुछ भी नही रहा
सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
घर के बुजुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँटकर गए-
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’
(1-प्राप्तियाँ )
सात
बूढ़ा-टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें, सच
उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी-लम्बी रातें, सच
लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या ?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच
कच्चे-रिश्ते, बासी-चाहत और अधूरा-अपनापन
मेरे हिस्से में आईं हैं ऐसी ही सौगातें, सच
जानें क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई हैं सपनों की बारातें, सच
धोका ख़ूब दिया है ख़ुद को झूठे-मूठे क़िस्सों से
याद मगर अब करने बैठे, याद आई हैं बातें सच।
आठ
मुद्दतों ख़ुद की कुछ ख़बर न लगे
कोई अच्छा भी इस क़दर न लगे
वो मेरा दोस्त भी है दुश्मन भी
बद्दुआ दूँ उसे मगर न लगे
मैं उसे पूजता तो हूँ लेकिन
चाहता हूँ उसे ख़बर न लगे
रास्ते में बहुत है सन्नाटा
मेरे महबूब तुझको डर न लगे
बस तुझे इस नज़र से देखा है
जिस नज़र से तुझे नज़र न लगे।
नौ
ज़रा पाने की चाहत में, बहुत कुछ छूट जाता है
नदी का साथ देता हूँ, समंदर रूठ जाता है
अजब शै हैं ये रिश्ते भी बहुत मज़बूत लगते हैं
ज़रा सी भूल से लेकिन, भरोसा टूट जाता है
तराजू के ये दो पलड़े कभी यकसाँ¹ नहीं होते
जो हिम्मत साथ देती है, मुकद्दर रूठ जाता है
गनीमत है नगर वालो, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है
गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे,
कभी मैं रूठ जाता हूँ, कभी वो रूठ जाता है
ब-मुश्किल हम मुहब्बत के दफ़ीने² खोज पाते हैं
मगर हर बार ये दौलत, सिकंदर लूट जाता है।
(1-बराबर, 2- गड़ा हुआ धन,ख़जाना)
दस
ले गया दिल में दबा कर राज़ कोई
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई
बाँध कर मेरे परों में मुश्किलें
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई
नाम से जिसके मेरी पहचान है
मुझमें उस जैसा भी हो अंदाज़ कोई
जिसका तारा था वो आँखें सो गईं
अब नहीं करता मुझपे नाज़ कोई
रोज़ उसको ख़ुद के अंदर खोजना
रोज़ आना दिल से इक आवाज़ कोई।
00
आलोक श्रीवास्तव
30 दिसंबर 1971 को शाजापुर, मध्य प्रदेश में जन्म।
स्नातकोत्तर हिंदी तक शिक्षा।
शायरी, कथा-लेखन और समीक्षात्मक लेखन।
साहित्य की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
कई संकलनों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विशेषांकों में रचनाएं प्रकाशित।
उर्दू के प्रतिष्ठित शायरों की काव्य-पुस्तकों का सम्पादन।
‘अक्षरपर्व’ मासिक के विशेषांक 2000 और 2002 का अतिथि-सम्पादन।
फिल्म और टी वी के लिए गीत और कथा लेखन।
मशहूर गायकों द्वारा गीत और ग़ज़ल गायन।
देश व विदेश के प्रतिष्ठित कवि-सम्मेलनों और मुशायरों में शिरकत।
ग़ज़ल के लिए वर्ष 2002 का ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’।
दिल्ली में टी वी पत्रकारिता, न्यूज़ चैनल ‘आज तक’ में प्रोड्यूसर।
स्थायी निवास : 73, रामद्वारा, विदिशा (मध्य प्रदेश)
वर्तमान पता : वी-90, सेक्टर-12, नोएडा-201301(उत्तर प्रदेश)
फोन : 098990 33337
ई मेल : aalokansh@yahoo.com
Aalok.shrivastav@aajtak.com
धड़कते, साँस लेते, रुकते, चलते, मैंने देखा है
कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है
तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं
तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते, मैंने देखा है
न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है
ख़ुद अपने आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है
मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें
तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है
बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी,
बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है
मुझे मालूम है उनकी दुआएँ साथ चलती हैं
सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है।
चार
झिलमिलाते हुए दिन रात हमारे लेकर
कौन आया है हथेली पे’ सितारे लेकर
हम उसे आँखों की देहरी नहीं चढ़ने देते
नींद आती न अगर ख़्वाब तुम्हारे लेकर
रात लाई है सितारों से सजी कंदीलें
सरनिगूँ¹ दिन है धनक वाले नज़ारे लेकर
एक उम्मीद बड़ी दूर तलक जाती है
तेरी आवाज़ के ख़ामोश इशारे लेकर
रात, शबनम से भिगो देती है चहरा-चहरा
दिन चला आता है आँखों में शरारे लेकर
एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा
उम्र भर चलना पड़ा मुझको सहारे लेकर।
( 1- नतमस्तक )
पाँच
तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक
मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक
टूटे हुए ख़्वाबों की इक लम्बी कहानी है
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक
दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को
बेकार ही लाये हम चाहत को जुबानों तक
लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक
इक ऐसी अदालत है, जो रूह परखती है
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक
हर वक़्त फ़िजाओं में, महसूस करोगे तुम
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूँगा ज़मानों तक।
छह
अब तो ख़ुशी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आसूदगी¹ के नाम पे कुछ भी नही रहा
सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
घर के बुजुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँटकर गए-
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’
(1-प्राप्तियाँ )
सात
बूढ़ा-टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें, सच
उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी-लम्बी रातें, सच
लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या ?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच
कच्चे-रिश्ते, बासी-चाहत और अधूरा-अपनापन
मेरे हिस्से में आईं हैं ऐसी ही सौगातें, सच
जानें क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई हैं सपनों की बारातें, सच
धोका ख़ूब दिया है ख़ुद को झूठे-मूठे क़िस्सों से
याद मगर अब करने बैठे, याद आई हैं बातें सच।
आठ
मुद्दतों ख़ुद की कुछ ख़बर न लगे
कोई अच्छा भी इस क़दर न लगे
वो मेरा दोस्त भी है दुश्मन भी
बद्दुआ दूँ उसे मगर न लगे
मैं उसे पूजता तो हूँ लेकिन
चाहता हूँ उसे ख़बर न लगे
रास्ते में बहुत है सन्नाटा
मेरे महबूब तुझको डर न लगे
बस तुझे इस नज़र से देखा है
जिस नज़र से तुझे नज़र न लगे।
नौ
ज़रा पाने की चाहत में, बहुत कुछ छूट जाता है
नदी का साथ देता हूँ, समंदर रूठ जाता है
अजब शै हैं ये रिश्ते भी बहुत मज़बूत लगते हैं
ज़रा सी भूल से लेकिन, भरोसा टूट जाता है
तराजू के ये दो पलड़े कभी यकसाँ¹ नहीं होते
जो हिम्मत साथ देती है, मुकद्दर रूठ जाता है
गनीमत है नगर वालो, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है
गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे,
कभी मैं रूठ जाता हूँ, कभी वो रूठ जाता है
ब-मुश्किल हम मुहब्बत के दफ़ीने² खोज पाते हैं
मगर हर बार ये दौलत, सिकंदर लूट जाता है।
(1-बराबर, 2- गड़ा हुआ धन,ख़जाना)
दस
ले गया दिल में दबा कर राज़ कोई
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई
बाँध कर मेरे परों में मुश्किलें
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई
नाम से जिसके मेरी पहचान है
मुझमें उस जैसा भी हो अंदाज़ कोई
जिसका तारा था वो आँखें सो गईं
अब नहीं करता मुझपे नाज़ कोई
रोज़ उसको ख़ुद के अंदर खोजना
रोज़ आना दिल से इक आवाज़ कोई।
00
आलोक श्रीवास्तव
30 दिसंबर 1971 को शाजापुर, मध्य प्रदेश में जन्म।
स्नातकोत्तर हिंदी तक शिक्षा।
शायरी, कथा-लेखन और समीक्षात्मक लेखन।
साहित्य की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
कई संकलनों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विशेषांकों में रचनाएं प्रकाशित।
उर्दू के प्रतिष्ठित शायरों की काव्य-पुस्तकों का सम्पादन।
‘अक्षरपर्व’ मासिक के विशेषांक 2000 और 2002 का अतिथि-सम्पादन।
फिल्म और टी वी के लिए गीत और कथा लेखन।
मशहूर गायकों द्वारा गीत और ग़ज़ल गायन।
देश व विदेश के प्रतिष्ठित कवि-सम्मेलनों और मुशायरों में शिरकत।
ग़ज़ल के लिए वर्ष 2002 का ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’।
दिल्ली में टी वी पत्रकारिता, न्यूज़ चैनल ‘आज तक’ में प्रोड्यूसर।
स्थायी निवास : 73, रामद्वारा, विदिशा (मध्य प्रदेश)
वर्तमान पता : वी-90, सेक्टर-12, नोएडा-201301(उत्तर प्रदेश)
फोन : 098990 33337
ई मेल : aalokansh@yahoo.com
Aalok.shrivastav@aajtak.com