1
ईश्वर की शर्त
वहाँ
एक आग थी
उसकी आँखों में
जहाँ धधकते थे दृश्य
और स्मृतियाँ
पछाड़ खाने के बावजूद
सूरज की लालटेन थामे
खड़ी थीं
रजस्वला हुई स्त्री की
शर्म से बेख़बर
अब वह ईश्वर के
बिल्कुल करीब थी
ईश्वर उदास था
क्योंकि वहाँ अब स्त्री नहीं थी
स्त्री होने के लिए
पानी हो जाना
ईश्वर की पहली शर्त थी।
2
ईश्वर नाराज है
वह पानी होने की
तमाम शर्तों के खिलाफ़ है
ईश्वर नाराज है
वह अपनी रफ़्तार से
दौड़ते हुए
हवा बन जाना चाहती है
धूप से चाहती है
अपने हिस्से की रोशनी
और ईश्वर से न्याय
नैतिकता की कोख से
जन्म लेकर
अनैतिक हुए ईश्वर के लिए
उसकी संवेदनाएं
नहीं छटपटातीं
वह आग के चरित्र से पूछती है
स्त्री होने के सवाल
धुआँ छटपटाता है
अपनी पीड़ाओं के
अंतिम छोर तक
आग के पास
मौन के सिवा
कुछ भी नहीं
वह जानती है…
3
मायूसियों के फूल
दु:ख जितने हरे होंगे
खिलेंगे मायूसियों के फूल
उदासी के रंगों की महक
देर तक बसी रहती है
मन-प्राणों में
बिछोह की आत्मीयता से
गले मिलते हुए सुना है कभी
साँसों की गहरी
अनुभूतियों का विलाप
समय के आइने में झांक कर देखो
सुखों की अनगिन आकृतियों के बीच
छिपी है जो
एक गहरी मुस्कान वाली परछाईं
वह तुम्हारे प्राणों पर
छाया रहने वाला सबसे कमनीय
दु:ख ही तो है।
4
मिठास के लिए ज़रूरी नहीं होता
हवा की हथेली पर
तैरते हैं सपने
वह नींद में गुनगुनाती है कोई गीत
उसकी झरने-सी हँसी
नींद के झरोखों से
खिलखिलाती है
गलती से
खुला रह गया है पिंजरा
आसमान उसकी मुटठी में है
वह रोटियों की चर्चा करते हुए
नमक के स्वाद के आख्यान में
उलझ जाती है
मिठास के लिए
ज़रूरी नहीं होता
हमेशा तैरने का सुख
अँधेरी कोठरी में भी
सूरज उगता है कभी-कभी
वह डूबने के सुख को
पीती है बूँद-बूँद
उसके चारों ओर प्रेम की
नदी बह रही है
उसे लग रहा है
वह धरती की
सबसे सुखी स्त्री है।
5
गृहस्थी
सुखों के अनगिन दृश्यों से
सजी हुई है गृहस्थी
एक खूबसूरत
पेटिंग की तरह
निर्जीव होते हुए
सजीवता से बेहद करीब
हँसी के निर्मल झरने
बहते रहते हैं रात-दिन
कितनी रंगीन शामों का
इतिहास जज्ब है
काल की दबी हुई परतों के बीच
बेहद उदास सी
टहल रही हैं
सन्नाटे की स्याह
घाटियों में
जिन्हें कोई नहीं देख पा रहा है
कितनी चीखें
अपनी कराह दबाये
सिसकियों के गहरे कुंड में
डूब जाना चाहती हैं
सबके चेहरे चमक रहे हैं
सब एक-दूसरे का रख रहे हैं ख्याल
कोई नहीं कह सकता
यहाँ दु:ख के लिए
कोई जगह बची है
पानी की तरह
बह रहा है जीवन
खुशी तैर रही है
जिस पर
कोमल और नर्म
पत्ते की तरह
रिक्त कोष्ठों के
भारी किवाड़ के पीछे
हवा सहमी-सी खड़ी है
बारिश अभी थमी हुई है
कुछ देर के लिए।
6
तुम्हारी दिव्यताओं में
मेरे हिस्से में
जैसे ठहरे हो तुम
तुम्हारे हिस्से
नहीं हूँ मैं
अबूझ है बूझे गए
मन का रहस्य
एक नाम, एक दृष्टि, एक देह
बस इतना-सा परिचय
एक चमक
जो छूकर निकल जाती है
तुम्हारी वासना की ओर
एक दृश्य
जो धुंधलाते बिम्बों का संग्रह
तुम्हारे अतीत के वैभव में
मेरी आत्मा का
निर्वसन होते जाना
तुम्हारे प्राणों से
फिसल जाना
मेरी अनुदार साँसों का
मैं एक धूप टुकड़ों में
बँटी हुई
एक काग़ज़
गलती हुई तुम्हारे पानी में
तुम्हारी दिव्यताओं में
मेरी लघुताओं का
प्रहसन हो जैसे
मैं कहीं नहीं
तुम्हारे शब्दों
तुम्हारी आत्मा के पार
विकर्षण के
पिघलते पहाड़ों से निर्मित
एक चट्टानी नदी
एक लहर
जिस पर खेलती है आग।
7
जीवन दुर्गम समीकरणों में
हम जीते हैं
अलग-अलग चेहरों के साथ
भीतर और बाहर में
एक चेहरा जब
हँस रहा होता है
उसके भीतरी सतह को
छू रही होती है कोई आग
किसी चेहरे की मद्धिम हँसी में
उसके भीतर के घाव पिघलकर
आँसू बन जाना चाहते हैं
जब कोई कह रहा होता है
कि उस पर भरोसा करें
उसके भीतर के घटित से
सर्वथा अनभिज्ञ और अनजान
होते हैं आप
संभव है
किसी चेहरे के ऊपर
छायी कठोरता में
नर्म गरमाहट वाली खुशबू
आपको अपनी अंतरंगता से
सराबोर कर दे
ऐसे ही किसी स्याह रातों में
कोई हमदर्दी भरा चेहरा
चुरा सकता है
आपकी स्वायत्तता का
सबसे प्रागैतिहासिक क्षण
और जिसे आप
अपने तजुर्बों की पंक्ति में
अपनी बिरादरी से
बहिष्कृत कर देते हैं
वही हो सकता है आपका
सबसे सगा और आत्मीय
जीवन के
दुर्गम समीकरणों में
सबसे जटिल है मनुष्य
वह अपने आप को
बेहतर ढंग से
छिपा सकता है
और छीन सकता है
औरों के चेहरे की धूप
सभ्यता की नई रोशनी में
चेहरों की हैसियत पर
उंगलियाँ उठाने में
बदनाम हैं जो लोग
उन्हें बख़्श दिया जाए
पूरी क्षमाशीलता के साथ
क्योंकि युग की आहट को
वे नहीं पहचानते
फूल के जंगल हो जाने पर
तितलियाँ कहाँ जाएंगी
निरर्थक प्रश्न है
धूप की चिन्गारियाँ
बर्फ़ में तब्दील हो रही हैं
बारिश की सूनी आँखों में
उग रही है प्यास।
8
दीवारें कितना भी बोलें
कई-कई नैतिकताओं की
दीवारें फांदकर
जन्म लेता है प्रेम
और तुम उसे
संस्कारों के घने कोहरे में
गुम होने से
बचाए रखना चाहते हो
दीवारें कितना भी बोलें
तुम अपने होने को
परिभाषित करते हुए
प्रेम के घने वृक्ष के नीचे
प्रकृति-प्रांगण में
छोड़ देते हो
देह और मन को निर्बन्ध
तभी चेतना की महीन परत को
चीर पैदा होता है
एक थरथराता हुआ सुख
जिसमें दुनिया की
तमाम सभ्यताओं की कंदीलें
एक साथ भक्क से जल उठती हैं
रोशनी और सुगन्ध के
धुएं से सराबोर
इस लम्हें में
तुम्हारे अस्तित्व का आदिम-सुख
तुम्हारी प्राणवायु के आलिंगन से
जान लेता है
अस्मिताओं के वर्चस्व की
रहस्यमयी गाथावलियाँ
इतिहास की पगडंडी पर
भविष्य के सपने के बीच
वर्तमान के इस अंतरंग पुल से
गुजरते हुए
मनुष्यता के किले में
तुम्हारे प्रवेश पर
चकित है
तुम्हारे ही भीतर का
वह अनचीन्हा आदमी
जिससे पहलीबार
मिल रहे होते हो तुम।
9
जहाँ जीवन सुगबुगाता है
छूट जाने का अहसास जब भी होता है
पकड़ती हूँ – छायाओं, दृश्यों व बिम्बों को
जहाँ जीवन सुगबुगाता है
अनास्था के काग़ज़ पर
आस्था के गीत लिख
तुम्हें गुनगुनाते हुए
रोपती हूँ तुममें ईश्वर
वहीं, जहाँ से शून्य की नदी बहती है
और सिफ़र की उदास वारदातें
अपनी हथेलियों पर
सरसों की तरह
डगराती हैं मुझे
तुम्हारा अपने आप में
मुझे छींट लेना
बो देना
गीली मिट्टी की सोंधी
महक में
और उगा लेना फिर से
अद्भुत है मेरा
पुनर्जन्म में प्रवेश
कामना के कैलाश शिखरों पर
मेरे प्राणों को
अपनी अंजुरी में रोंपते हुए
बूंद-बूंद सोखना
निर्बाध, नि:संकोच
मेरे आरम्भ !
तुममें ही विलय हैं
मेरी समस्त
गंगा-यमुनाएं !
10
पिता परंपरा थे
पिता परंपरा थे
उस परंपरा की लीक पर चलना
माँ की नैतिक जिम्मेदारी थी
ठीक वैसे ही
जैसे आग की कथा में
आग की नीतियों की बजाय
उसके जलने के स्वभाव पर
टिका होता है आग का भविष्य
पिता तय करते थे
माँ के हिस्से की रोशनी
और धुएं का वजूद
और माँ घने अंधेरे में
गुम हो जाती थीं
घर के लिए
जब भी कोई मानदंड
पिता द्वारा तय किया जाता था
माँ हमेशा पिता के पक्ष में होती थीं
पिता के पक्ष में
होते हुए भी उनके प्रतिपक्ष में
पैदा कर लेती थीं आवाज़ें
आवाज़ें बोलती थीं
माँ के मौन के गहरे समंदर में
अलग-अलग आवाज़ों के
अलग-अलग वजूद से
लिपटा था माँ का समय
माँ की अंतरंग दुनिया में
आवाज़ों से प्रतिध्वनित
शब्दों और रंगों का
एक बड़ा-सा तहखाना था
माँ का सूरज वहीं उगता था
पिता को माँ के हिस्से का
अंधेरा पसंद था
इसलिए माँ छिपा लेती थी
उनसे
अपने हिस्से की रोशनी।
00
रंजना श्रीवास्तव
शिक्षा : एम ए, बी एड ।
जन्म : गाज़ीपुर(उत्तर प्रदेश)
प्रकाशित पुस्तकें : ‘चाहत धूप के टुकड़े की’, ‘सक्षम थीं लालटेनें’(कविता संग्रह), ‘आईना-ए-रूह’(ग़ज़ल संग्रह)
संपादन : ‘सृजन-पथ’(साहित्यिक पत्रिका)
पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध। हिन्दी की प्रतिष्ठित लघु पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियाँ, समीक्षाएं एवं स्त्री विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नंबर 2, पी ओ – सिलीगुड़ी बाज़ार, जिला- सिलीगुड़ी(पश्चिम बंगाल)-734 005
फोन : 09933946886
ई-मेल : ranjananishant@yahoo.co.in
दीवारें कितना भी बोलें
कई-कई नैतिकताओं की
दीवारें फांदकर
जन्म लेता है प्रेम
और तुम उसे
संस्कारों के घने कोहरे में
गुम होने से
बचाए रखना चाहते हो
दीवारें कितना भी बोलें
तुम अपने होने को
परिभाषित करते हुए
प्रेम के घने वृक्ष के नीचे
प्रकृति-प्रांगण में
छोड़ देते हो
देह और मन को निर्बन्ध
तभी चेतना की महीन परत को
चीर पैदा होता है
एक थरथराता हुआ सुख
जिसमें दुनिया की
तमाम सभ्यताओं की कंदीलें
एक साथ भक्क से जल उठती हैं
रोशनी और सुगन्ध के
धुएं से सराबोर
इस लम्हें में
तुम्हारे अस्तित्व का आदिम-सुख
तुम्हारी प्राणवायु के आलिंगन से
जान लेता है
अस्मिताओं के वर्चस्व की
रहस्यमयी गाथावलियाँ
इतिहास की पगडंडी पर
भविष्य के सपने के बीच
वर्तमान के इस अंतरंग पुल से
गुजरते हुए
मनुष्यता के किले में
तुम्हारे प्रवेश पर
चकित है
तुम्हारे ही भीतर का
वह अनचीन्हा आदमी
जिससे पहलीबार
मिल रहे होते हो तुम।
9
जहाँ जीवन सुगबुगाता है
छूट जाने का अहसास जब भी होता है
पकड़ती हूँ – छायाओं, दृश्यों व बिम्बों को
जहाँ जीवन सुगबुगाता है
अनास्था के काग़ज़ पर
आस्था के गीत लिख
तुम्हें गुनगुनाते हुए
रोपती हूँ तुममें ईश्वर
वहीं, जहाँ से शून्य की नदी बहती है
और सिफ़र की उदास वारदातें
अपनी हथेलियों पर
सरसों की तरह
डगराती हैं मुझे
तुम्हारा अपने आप में
मुझे छींट लेना
बो देना
गीली मिट्टी की सोंधी
महक में
और उगा लेना फिर से
अद्भुत है मेरा
पुनर्जन्म में प्रवेश
कामना के कैलाश शिखरों पर
मेरे प्राणों को
अपनी अंजुरी में रोंपते हुए
बूंद-बूंद सोखना
निर्बाध, नि:संकोच
मेरे आरम्भ !
तुममें ही विलय हैं
मेरी समस्त
गंगा-यमुनाएं !
10
पिता परंपरा थे
पिता परंपरा थे
उस परंपरा की लीक पर चलना
माँ की नैतिक जिम्मेदारी थी
ठीक वैसे ही
जैसे आग की कथा में
आग की नीतियों की बजाय
उसके जलने के स्वभाव पर
टिका होता है आग का भविष्य
पिता तय करते थे
माँ के हिस्से की रोशनी
और धुएं का वजूद
और माँ घने अंधेरे में
गुम हो जाती थीं
घर के लिए
जब भी कोई मानदंड
पिता द्वारा तय किया जाता था
माँ हमेशा पिता के पक्ष में होती थीं
पिता के पक्ष में
होते हुए भी उनके प्रतिपक्ष में
पैदा कर लेती थीं आवाज़ें
आवाज़ें बोलती थीं
माँ के मौन के गहरे समंदर में
अलग-अलग आवाज़ों के
अलग-अलग वजूद से
लिपटा था माँ का समय
माँ की अंतरंग दुनिया में
आवाज़ों से प्रतिध्वनित
शब्दों और रंगों का
एक बड़ा-सा तहखाना था
माँ का सूरज वहीं उगता था
पिता को माँ के हिस्से का
अंधेरा पसंद था
इसलिए माँ छिपा लेती थी
उनसे
अपने हिस्से की रोशनी।
00
रंजना श्रीवास्तव
शिक्षा : एम ए, बी एड ।
जन्म : गाज़ीपुर(उत्तर प्रदेश)
प्रकाशित पुस्तकें : ‘चाहत धूप के टुकड़े की’, ‘सक्षम थीं लालटेनें’(कविता संग्रह), ‘आईना-ए-रूह’(ग़ज़ल संग्रह)
संपादन : ‘सृजन-पथ’(साहित्यिक पत्रिका)
पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध। हिन्दी की प्रतिष्ठित लघु पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियाँ, समीक्षाएं एवं स्त्री विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नंबर 2, पी ओ – सिलीगुड़ी बाज़ार, जिला- सिलीगुड़ी(पश्चिम बंगाल)-734 005
फोन : 09933946886
ई-मेल : ranjananishant@yahoo.co.in
6 टिप्पणियां:
Dard aur krodh dono bhawnaen jyada mukhar hain aapki kawitaon men. Bahut achchi kawitaen.
Waah !!
adbhut salta v sahjta ke saath piroye jeevan ke kuch kshan
मेरे हिस्से में
जैसे ठहरे हो तुम
तुम्हारे हिस्से
नहीं हूँ मैं
marmsparshi aur sunder!!!
Devi nangrani
"Pita prampara the" Kavita sach mein ek maa ke mann ki vayatha kehti hai, wo na cahate hue bhi aapnae hisse ki roshani chhupa leti hai, kyunki pita ki pramparaon ko wo roshni shayad gawara na ho...
wah kya khoob likha hai....
bahut achhi kavitayen hain ranjnaa ji ki. vaatikaa ki yah peshksh apratim hai.--Om Nishchal, Delhi
Subhash Ji,
Namaskar,
"Vaatika" me Ranjana srivastava ki kavitayen padhi. Behad pasand Aayee.
Ashfaque Ahmed Siddiqui
Mumbai
Mob. no. 09820117150
ashfaqueahmed@rediffmail.com
bahut khubsurat kavitaen hain....congrates.....amarjeet kaunke
एक टिप्पणी भेजें