“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनमऔर नोमान शौक की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।
‘वाटिका’ के पिछले अंक (मई 2011) में उर्दू-हिंदी के जाने माने कवि नोमान शौक की दस कविताएँ प्रस्तुत की थीं जिनको पाठकों ने भरपूर सराहा। इसबार‘वाटिका’ के जून अंक 2011 में हम उत्तराखंड की एक युवा कवयित्री विनीता जोशी की दस कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये कविताएँ अभी हाल में ही प्रकाशित उनके प्रथम कविता संग्रह “चिड़िया चुग लो आसमान” से ली गई हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव
विनीता जोशी की दस कविताएँ
माँ जब तक रहेगी
माँ
जब तक रहेगी
छोटी-छोटी
क्यारियों में महकेगा
धनिया/पुदीना
खेतों की मेड़ों पर
खिलेंगे
गेंदे के पीले फूल
आँगन में
दाना चुगने आएगी
नन्हीं गोरैया
देहरी पर
सजी रहेगी रंगोली
कोठरी में
खेलेंगे
भूरी बिल्ली के बच्चे
रम्भाएगी बूढ़ी गाय
छत में सूखेंगी
कबूतरों-सी सफ़ेद धोतियाँ
माँ
जब तक रहेगी
बेटियों को मिलता रहेगा
प्रेम का नेग
तेरे बाद जैसे
दुनिया ही खत्म हो जाएगी
माँ मेरे लिए।
0
रोटियाँ
एक औरत
ज़िन्दगी भर
अपने चूल्हे में
सेंकती है
न जाने कितनी रोटियाँ
धरती से बड़ी
आकाश-सी चौड़ी
धूप-सी गरम
सूरज-सी चमकती रोटियाँ
ममता से सनी
प्रार्थनाओं से भरी
प्रेम से चुपड़ी रोटियाँ
तृप्ति देकर यथार्थ को...
खुशी देकर स्वप्न को
घर की नींव
बन जाती रोटियाँ।
0
मौसम बदलते ही
कितनी बार
रख आई है माँ
उसके सिर से
नींबू मिर्च उतारकर
चौराहों में
मगर उदासी है कि
बार-बार आकर
छुप जाती है
आँखों में
कभी
पत्रियाँ नहीं मिलती
कभी बात
अटक जाती है सौदे में
शो केस में रखे
कपड़ों-सी
वह लड़की
फीकी पड़ जाती है
मौसम बदलते ही
खो गया है
एक चीज़ में
कहीं उसका राजकुमार
भूल गई है वो
क्या है दिल
और क्या है प्यार...।
0
औरतें
बकरियों-सी
पाली जाती हैं औरतें
औरतें
भूख मिटाने
रिश्तों के झुंड में
चुपचाप चलने
प्रेत भगाने
देवता रिझाने के लिए
घर की मन्नतें
पूरी करने को हमेशा
औरत ही खोती है
अपना वज़ूद
हर बार।
0
पहाड़
औरत और पहाड़
एक दूसरे के पर्याय हैं...
दोनों ही
दरकते हैं...
धधकते हैं...
कसकते हैं...
भीतर ही भीतर
आदमी और कुदरत
दोनों के अत्याचार
सहते हैं चुपचाप
फिर भी अडिग खड़े
रहते हैं...
अपनी कोख
हरी देखकर
दोनों ही
खुश होते हैं...
नदियाँ बहती रहें...
जंगल झूमते रहें...
पक्षी चहचहाते रहें...
दोनों के मन में
एक ही चाह है
औरत और पहाड़
एक दूसरे का पर्याय हैं।
0
प्रेम में
प्रेम में
ये क्या हो जाता है
दिन बीत जाता है पलों में
रात को चाँद
आँखों में समा जाता है
आँसू और मुस्कान की
होती है जुगलबंदी
साँसों में संगीत लहराता है
कोई चुपचाप
पर्दा उठाकर
उदासियों के भीतर
झाँक जाता है
अच्छी लगने लगती है
परिन्दों की उड़ान
मन आकाश
तन धरती
बन जाता है
प्रेम में
ये क्या हो जाता है।
0
नटखट धूप
पहाड़ों की चोटियों पर
इधर से उधर
दौड़ती नटखट धूप
पेड़ों की शाखों पर
झूलती
आँगन में छिप्पा-छिप्पी खेलती
साँझ पड़े मुँह फुलाए
जा रही है सूरज की
उंगली पकड़े
कभी पीछे मुड़कर देखती
बादल को हाथ हिलाती
जा रही है चुपचाप
जैसे कहना चाहती हो
बाबा कुछ देर
और खेलने दो।
0
खिड़कियाँ
दो खुली खिड़कियाँ हैं
तुम्हारी आँखें
जिनसे मैं देखती हूँ
आकाश-सूरज
उड़ते पंछी
कुलाँचे भरते
खरगोश-हिरण
तुम्हारी आँखों से
देखती हूँ
आँगन में खेलती बेटी को
दूध पीते बछड़े को
छत पर जाती बेल को
तुम्हारी इन्हीं आँखों से
देखती हूँ
तुलसी को जल चढ़ाते माँ को
नदी में तैरती किरणों को
आती-जाती
हवाओं के बीच
दिखाई देता है
मुझे अपना वजूद
महसूस होता है
खुलेपन का अनोखा अहसास।
0
चलो एक दिन
तुमने
किरणों को
कभी अपने पास
बुलाया ही नहीं
और
रूठ गई धूप
तुमने कभी
ऊपर की ओर
देखा ही नहीं
और खो गया आकाश
माटी की छुअन से
तुम हमेशा रहे दूर
गुम हो गई
हरियाली
चलो, एक दिन
चिड़िया से जाकर
पूछें आकाश
का रास्ता
हवाओं से
धूप को भेजें संदेश
माटी छूकर
आवाज़ दें
हरियाली को।
0
‘वाटिका’ के पिछले अंक (मई 2011) में उर्दू-हिंदी के जाने माने कवि नोमान शौक की दस कविताएँ प्रस्तुत की थीं जिनको पाठकों ने भरपूर सराहा। इसबार‘वाटिका’ के जून अंक 2011 में हम उत्तराखंड की एक युवा कवयित्री विनीता जोशी की दस कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये कविताएँ अभी हाल में ही प्रकाशित उनके प्रथम कविता संग्रह “चिड़िया चुग लो आसमान” से ली गई हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव
विनीता जोशी की दस कविताएँ
माँ जब तक रहेगी
माँ
जब तक रहेगी
छोटी-छोटी
क्यारियों में महकेगा
धनिया/पुदीना
खेतों की मेड़ों पर
खिलेंगे
गेंदे के पीले फूल
आँगन में
दाना चुगने आएगी
नन्हीं गोरैया
देहरी पर
सजी रहेगी रंगोली
कोठरी में
खेलेंगे
भूरी बिल्ली के बच्चे
रम्भाएगी बूढ़ी गाय
छत में सूखेंगी
कबूतरों-सी सफ़ेद धोतियाँ
माँ
जब तक रहेगी
बेटियों को मिलता रहेगा
प्रेम का नेग
तेरे बाद जैसे
दुनिया ही खत्म हो जाएगी
माँ मेरे लिए।
0
रोटियाँ
एक औरत
ज़िन्दगी भर
अपने चूल्हे में
सेंकती है
न जाने कितनी रोटियाँ
धरती से बड़ी
आकाश-सी चौड़ी
धूप-सी गरम
सूरज-सी चमकती रोटियाँ
ममता से सनी
प्रार्थनाओं से भरी
प्रेम से चुपड़ी रोटियाँ
तृप्ति देकर यथार्थ को...
खुशी देकर स्वप्न को
घर की नींव
बन जाती रोटियाँ।
0
मौसम बदलते ही
कितनी बार
रख आई है माँ
उसके सिर से
नींबू मिर्च उतारकर
चौराहों में
मगर उदासी है कि
बार-बार आकर
छुप जाती है
आँखों में
कभी
पत्रियाँ नहीं मिलती
कभी बात
अटक जाती है सौदे में
शो केस में रखे
कपड़ों-सी
वह लड़की
फीकी पड़ जाती है
मौसम बदलते ही
खो गया है
एक चीज़ में
कहीं उसका राजकुमार
भूल गई है वो
क्या है दिल
और क्या है प्यार...।
0
औरतें
बकरियों-सी
पाली जाती हैं औरतें
औरतें
भूख मिटाने
रिश्तों के झुंड में
चुपचाप चलने
प्रेत भगाने
देवता रिझाने के लिए
घर की मन्नतें
पूरी करने को हमेशा
औरत ही खोती है
अपना वज़ूद
हर बार।
0
पहाड़
औरत और पहाड़
एक दूसरे के पर्याय हैं...
दोनों ही
दरकते हैं...
धधकते हैं...
कसकते हैं...
भीतर ही भीतर
आदमी और कुदरत
दोनों के अत्याचार
सहते हैं चुपचाप
फिर भी अडिग खड़े
रहते हैं...
अपनी कोख
हरी देखकर
दोनों ही
खुश होते हैं...
नदियाँ बहती रहें...
जंगल झूमते रहें...
पक्षी चहचहाते रहें...
दोनों के मन में
एक ही चाह है
औरत और पहाड़
एक दूसरे का पर्याय हैं।
0
प्रेम में
प्रेम में
ये क्या हो जाता है
दिन बीत जाता है पलों में
रात को चाँद
आँखों में समा जाता है
आँसू और मुस्कान की
होती है जुगलबंदी
साँसों में संगीत लहराता है
कोई चुपचाप
पर्दा उठाकर
उदासियों के भीतर
झाँक जाता है
अच्छी लगने लगती है
परिन्दों की उड़ान
मन आकाश
तन धरती
बन जाता है
प्रेम में
ये क्या हो जाता है।
0
नटखट धूप
पहाड़ों की चोटियों पर
इधर से उधर
दौड़ती नटखट धूप
पेड़ों की शाखों पर
झूलती
आँगन में छिप्पा-छिप्पी खेलती
साँझ पड़े मुँह फुलाए
जा रही है सूरज की
उंगली पकड़े
कभी पीछे मुड़कर देखती
बादल को हाथ हिलाती
जा रही है चुपचाप
जैसे कहना चाहती हो
बाबा कुछ देर
और खेलने दो।
0
खिड़कियाँ
दो खुली खिड़कियाँ हैं
तुम्हारी आँखें
जिनसे मैं देखती हूँ
आकाश-सूरज
उड़ते पंछी
कुलाँचे भरते
खरगोश-हिरण
तुम्हारी आँखों से
देखती हूँ
आँगन में खेलती बेटी को
दूध पीते बछड़े को
छत पर जाती बेल को
तुम्हारी इन्हीं आँखों से
देखती हूँ
तुलसी को जल चढ़ाते माँ को
नदी में तैरती किरणों को
आती-जाती
हवाओं के बीच
दिखाई देता है
मुझे अपना वजूद
महसूस होता है
खुलेपन का अनोखा अहसास।
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चलो एक दिन
तुमने
किरणों को
कभी अपने पास
बुलाया ही नहीं
और
रूठ गई धूप
तुमने कभी
ऊपर की ओर
देखा ही नहीं
और खो गया आकाश
माटी की छुअन से
तुम हमेशा रहे दूर
गुम हो गई
हरियाली
चलो, एक दिन
चिड़िया से जाकर
पूछें आकाश
का रास्ता
हवाओं से
धूप को भेजें संदेश
माटी छूकर
आवाज़ दें
हरियाली को।
0
तुमने भी
कभी
महसूसी है
तुमने
बसंत की पत्तियों की
खुशबू
कभी छुआ है
तुमने
घास में चमकती ओस को
कभी झाँका है
तुमने
किसी मेमने की
मासूम आँखों में
कभी उतरा है
तुम्हारे मन में
नीला आकाश
कभी खोए हो
तुम
यूँ ही कहीं
कभी सुने हैं
तुमने
खामोशी के गीत
यदि हाँ,
तो लगता है
तुमने भी
कभी
पिया होगा
प्रेम का प्याला...
कभी...।
00
विनीता जोशी
शिक्षा : एम.ए., बी.एड(हिंदी साहित्य, अर्थशास्त्र)
प्रकाशन : कादम्बिनी, वागर्थ, पाखी, गुंजन, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा समय, शब्द सरोकार में कविताएँ, लघुकथाएँ और बाल कविताएँ प्रकाशित। अभी हाल में एक कविता संग्रह ''चिड़िया चुग लो आसमान'' पार्वती प्रकाशन, इन्दौर से प्रकाशित हुआ है जिसका पिछले दिनों भोपाल में नामवर जी ने विमोचन किया।
सम्मान : बाल साहित्य के लिए खतीमा में सम्मानित।
सम्प्रति : अध्यापन।
सम्पर्क : तिवारी खोला, पूर्वी पोखर खाली
अल्मोड़ा-263601(उत्तराखंड)
दूरभाष : 09411096830
कभी
महसूसी है
तुमने
बसंत की पत्तियों की
खुशबू
कभी छुआ है
तुमने
घास में चमकती ओस को
कभी झाँका है
तुमने
किसी मेमने की
मासूम आँखों में
कभी उतरा है
तुम्हारे मन में
नीला आकाश
कभी खोए हो
तुम
यूँ ही कहीं
कभी सुने हैं
तुमने
खामोशी के गीत
यदि हाँ,
तो लगता है
तुमने भी
कभी
पिया होगा
प्रेम का प्याला...
कभी...।
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विनीता जोशी
शिक्षा : एम.ए., बी.एड(हिंदी साहित्य, अर्थशास्त्र)
प्रकाशन : कादम्बिनी, वागर्थ, पाखी, गुंजन, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा समय, शब्द सरोकार में कविताएँ, लघुकथाएँ और बाल कविताएँ प्रकाशित। अभी हाल में एक कविता संग्रह ''चिड़िया चुग लो आसमान'' पार्वती प्रकाशन, इन्दौर से प्रकाशित हुआ है जिसका पिछले दिनों भोपाल में नामवर जी ने विमोचन किया।
सम्मान : बाल साहित्य के लिए खतीमा में सम्मानित।
सम्प्रति : अध्यापन।
सम्पर्क : तिवारी खोला, पूर्वी पोखर खाली
अल्मोड़ा-263601(उत्तराखंड)
दूरभाष : 09411096830