“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता
किरण, उमा अर्पिता, विपिन चौधरी और अंजू शर्मा की कविताएं तथा राजेश रेड्डी,
लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें
पढ़ चुके हैं।
इस
बार ‘वाटिका’ के इस अंक के लिए हमने चुनी हैं, हिंदी की
वरिष्ट कवयित्री सुनीता जैन की दस कविताएं। सुनीता जैन अपने आप में कविता का
पर्याय बन चुकी है। सुनीता जैन की कविता में अपने समय और समाज की गहरी संवेदनात्मक
पकड़ है और इस समय और समाज में अकेली पड़ती स्त्री, उसका संसार, उसके सपने, प्रेम,
चाहत आदि सुनीता जी की कविताओं का भाव-केन्द्र बने हैं और बहुत ही खूबसूरत कविताएं
उन्होंने हिंदी के कविता प्रेमियों को दी हैं। जब मुझे ‘वाटिका’ के लिए उनकी दस कविताएं चयन करने का अवसर मिला, तो
समझ में नहीं आया कि उनकी कौन-सी कविता छोड़ूं और कौन-सी रखूँ। सभी कविताएं एक से
बढ़कर एक ! फिर भी, चयन तो करना ही था तो मैंने उनकी जो दस कविताएं चुनीं, वे ‘वाटिका’ के माध्यम से आपसे साझा कर रहा हूँ। आशा है, आप
इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य निष्पक्ष प्रतिक्रिया से हमें और ‘वाटिका’ के पाठकों को अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव
सुनीता
जैन की दस कविताएँ
(1)
उसने चुना
उसने घर के लिए चुना आँगन
और उसे लीपा
उस ने मन के लिए चुना
धान और उसे रोपा
उसने उड़ने के लिए चुना
आकाश बहुत छोटा
उसने गीत के लिए चुना
अवकाश अपने प्रिय का
लीपना
रोपना
उड़ना
और गाना -
यही चार धाम
स्त्री ने जाना।
(2)
उत्ताराधिकार
जिस दिन बनवाओ
बेटे के लिए मकान,
उस दिन लाना एक ईंट
बेटी के लिए
ईंट पर ईंट रखते प्रतिदिन,
बन जाए शायद
उसकी भी झोंपड़ी।
बेटी उगाएगी उसके चहुँ ओर
कुछ फूल, अनार का वृक्ष,
एक कटहल, और कहेगी,
'ये फूल मेरी अम्मा हैं,
और मेरे बाबा कटहल।
बहुत प्यार करते हैं
वे मुझको।
भेजूँगी ये सारे के सारे
उनको अनार।'
(3)
प्रेम में स्त्री
प्रेम में स्त्री कुछ नहीं करती
वह भीगती है अपनी बारिश में,
बारिश में भीगती स्त्री को
अपनी देह का कोई भान नहीं -
उसका वक्ष हो सकता था
कोई वनफूल,
उसकी कटि
पगडण्डी पहाड़ की,
उसके बाल हो सकते थे
किसी भी पक्षी के पंख
देहातीत,
दिगन्त में तिरोहित होने से पूर्व
बजती है वह देह में अपनी
लगातार बज रहे तार-सी।
(4)
सीमेंट
हम दोनों पास से निकल रही थीं,
दोनों ने ही नज़र बचाई।
वह सिर पर भारी तसला पकडे थी
मैं चुटकी से साड़ी टखनों के ऊपर खींचे थी।
वह मकान बनाने वालों में से थी,
मैं मकान बनवा रही थी।
चारों ओर बिखरी तारों और कीलों से बचती
अब मैं कुर्सी की सुरक्षा में थी।
वह बेधड़क नंगे पाँव ऊपर-नीचे
गीला सीमेंट ढ़ो रही थी।
बैठे बैठे मैं सोच रही थी
हम दोनों में से कौन अधिक
स्त्री थी!
(5)
पापा पापा गाती थी
बस दो ही रोटी तो खाती थी,
'पापा...पापा...' वो गाती थी
जिस दिन आकर डोली उतरी
घूम गई तालों में चाभी।
सिल पर बट्टा होकर पिस गई,
साबुन संग कपड़ों में घुल गई,
बर्तन के ढेरों में मँज कर
सब्जी के ढ़ेरों में तुल गई।
भूल गयी कॉलेज की बातें
भूली जादू वाली रातें,
दिया सिलाई होकर जल गई,
भक् मिट्टी में मिट्टी मिल गई।
(6)
नींद में
उसने कहा धूप से
तुम खिली रहना ऐसे ही मेरे छज्जे में,
मैं निपटा लँ कुछ काम अभी
दफ्तर के।
उसने चिड़िया से कहा,
तुम गाती रहना ऐसे ही
मेरे घर की दीवार पे,
मैं कर आऊँ कुछ काम ज़रा
बाज़ार के।
उसने बादलों से कहा,
तुम घुमड़ों ऐसे ही
बिन बरसे आकाश में,
मैं निपटा कर आती हूँ कुछ काम अभी
गृहस्थी के।
उसने इन्द्रधनुष से कहा,
तुम छितराए रहना ऐसे ही
आरपार, क्षितिज के,
मैं धोकर आती हूँ जल्दी से
कुछ कपडे।
कपड़े रहे धुलते,
गृहस्थी फैलती गयी
बाज़ार में ठेलमठेल थी,
दफ्तर में मारा-मारी।
वह लौटी जब घर अपने
उसकी आँखें थी बस
नींद में।
(7)
मुझे डर लगा
घर के छज्जे में सुबह-सुबह
कुछ ढूँढ़ रही चिड़िया से मैंने कहा,
'देखो मेरी कविता की नई पुस्तक
छप कर आई है।'
चिड़िया ठिठकी। उसने गर्दन मोड़ी।
मानो मुझसे कहा,
'हाँ, मैंने देखा।'
गर्मी में निकले बेशुमार चींटों से
मैंने कहा, 'मेरी नई पुस्तक
आई है!'
चींटे जल्दी-जल्दी
चलने लगे,
एक-दूसरे
को छू-छू कर बोले,
'सुना तुमने? सुना तुमने?'
मैंने अमलतास के फूल से कहा
जो अकेला ही खिला था पेड़ पे,
'मेरी पुस्तक आई है।'
फूल अपनी सारी कोमलता
और अपना सारा रंग लेकर झुका,
जैसे उसने कहा, 'अच्छा? अच्छा!'
लेकिन जब सामने से आते आदमी को देखा
तो मुझे डर लगा।
मैंने पुस्तक पल्ले की ओट कर ली।
तब से अब तक,
पुस्तकें आती रहीं नई-नई।
चिड़िया गाती रही, 'देखा देखा...'
चींटे करते रहे ज़िक्र उनका,
और फूल कहते रहे, 'अच्छा...अच्छा।'
लेकिन आदमी
हर बार, हर बार
मारने दौड़ा।
(8)
काँटो भरी बेल में
उसने अपनी भाषा को किया नरम,
दूब सा-
उसने अपनी हथेली को किया
फूल सा-
उसने छुपा लिया अपने ही भीतर
अपना सारा असला-
वह आँखों में लाई आँज कर
एक प्रतिसंसार गहरा-
वह स्त्री थी प्रेम में,
खिल रही थी काँटो भरी बेल में।
(9)
सूर्य-स्नान
प्रेम के सूर्य-स्नान में
वह कमर तक खड़ी है
पानी में
भीगे वक्ष को
भीगे वस्त्रों से ढ़ाँपती
दोनों आँख झुकाये
दो सम्पुट हथेलियों पे टिकी
क्या आप बता सकते हैं
कितनी देर तक ऐसे
खड़ी रह सकती है
एक स्त्री -
प्रेम में डूबी
और डूबने से बचती
(10)
पानी होना याद आया
जिस दिन वह प्यासा होकर
छटपटाया,
पानी को अपना
पानी होना याद आया।
याद आए छंद कई पानी के पानी को,
कुछ झरनों, कुछ नदियों में बंद
कुछ फूलों में भी था पानी
होते होते मकरंद।
पानी ने याद किया अपना होना
अपनी शीतल अग्नि में,
याद किया घट होकर झट घट में भर जाना।
पानी अब
उतर रहा था प्यास में,
अपनी ही इच्छावश
अपनी तृप्ति की आस में।
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शिक्षा : अमेरिका से एम.ए. और पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त
करने के बाद लम्बे समय तक आई.आई.टी., दिल्ली
में अंग्रेजी की प्रोफेसर व मानविकी विभाग की अध्यक्षा रहीं।
कृतित्व : 48 कविता
संग्रह, 5 उपन्यास, 5 कहानी संग्रह व आत्मकथा।
25 पुस्तकें अंग्रेजी में भी तथा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य।
सम्मान पुरस्कार : 'पद्मश्री' के अतिरिक्त 'हरियाणा गौरव', 'साहित्य भूषण', 'साहित्यकार सम्मान', 'महादेवी वर्मा' व 'निराला' नामित सम्मान से सम्मानित।
अमेरिका में अपने अंग्रेजी उपन्यास व कहानियों के लिए कई पुरस्कारों से पुरस्कृत। 8वें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयॉर्क 2007 में 'विश्व हिन्दी सम्मान' से
सम्मानित हिन्दी की पहली कवयित्री।
सम्पर्क : सी-132, सर्वोदय इन्कलेव,
नई दिल्ली-110 017
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