शनिवार, 24 जुलाई 2010

वाटिका - जुलाई, 2010



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती और रंजना श्रीवास्तव की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं- समकालीन हिंदी कविता के जाने-माने कवि-ग़ज़लकार नरेश शांडिल्य की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…


दस ग़ज़लें - नरेश शांडिल्य

॥एक॥

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई
है उम्र भर की यही कमाई

किसी ने हम पर जिगर उलीचा
किसी ने हमसे नज़र चुराई

दिया ख़ुदा ने भी ख़ूब हमको
लुटाई हमने भी पाई-पाई

न जीत पाए, न हार मानी
यही कहानी, ग़ज़ल, रुबाई

न पूछ कैसे कटे हैं ये दिन
न माँग रातों की यूँ सफाई
॥दो॥

सर न झुकाया, हाथ न जोड़े
बेशक हम पर बरसे कोड़े

लाख परों को कतरा उसने
ख़ूब कफ़स हमने भी तोड़े

हार गए ना दिल से आख़िर
दौड़े लाख 'अक़ल के घोड़े'

हम वो एक कथा हैं जिसने
लाखों क़िस्से पीछे छोड़े

हमसे मत टकराना बबुआ
हमने रुख तूफ़ाँ के मोड़े
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॥तीन॥

दिलकश कमसिन बातें छोड़ो आज तल्ख़ियों पर चर्चा हो
फिर करना रिमझिम की बातें आज बिजलियों पर चर्चा हो

तितली, भौंरे, प्यार, वफ़ा, ठंडी फुहार, जज्बाती मसले
ये मस्ती का वक्त नहीं है राख-बस्तियों पर चर्चा हो

घूँघट-चूनर-शाल-दुप्पटा, लाज-शर्म था उसका गहना
फ़ैशन शो में नाच रहीं उन आम लड़कियों पर चर्चा हो

फ़ुर्सत से देखेंगे इनको, सारहीन ख़बरों को छोड़ो
आज तो केवल अख़बारों की ख़ास सुर्खियों पर चर्चा हो

बेमानी हैं सम्मानों के लेन-देन पर बासी बहसें
आज नवोदित कवि की ताज़ा रक्त-पंक्तियों पर चर्चा हो
॥चार॥

सह चुके अब तो बहुत अब सर उठाना चाहिए
आदमी को आदमी होकर दिखाना चाहिए

कब तलक क़िस्मत की हाँ में हाँ मिलाते जाएँगे
अपने पैबंदों को अब परचम बनाना चाहिए

आँधियों में ख़ुद को दीये-सा जलाएँ तो सही
हाँ कभी ऐसे भी ख़ुद को आज़माना चाहिए

तू मेरे आँसू को समझे, मैं तेरी मुस्कान को
आपसी रिश्तों में ऐसा ताना-बाना चाहिए

हममें से ही कुछ को मेहतर होना होगा सोच लो
साफ़-सुथरा-सा अगर बेहतर ज़माना चाहिए
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॥पाँच॥

वक्त लहू से तर लगता है
इस दुनिया से डर लगता है

इंसानों के धड़ के ऊपर
हैवानों का सर लगता है

बाज़ के पंजों में अटका वो
इक चिड़िया का पर लगता है

रिश्ते - नाते पलड़ों पर हैं
बाज़ारों सा घर लगता है

जितना ज्यादा सच बोलें हम
उतना ज्यादा कर लगता है
॥छह॥

एक खुली खिड़की-सी लड़की
देखी मस्त नदी -सी लड़की

खुशबू की चूनर ओढ़े थी
फूल बदन तितली-सी लड़की

मैं बच्चे-सा खोया उसमें
वो थी चाँदपरी -सी लड़की

जितना बाँचूँ उतना कम है
थी ऐसी चिट्ठी-सी लड़की

काश कभी फिर से मिल जाए
वो खोई-खोई -सी लड़की
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॥सात॥

ये हवा, ये धूप, ये बरसात पहले-सी नहीं
दिन नहीं पहले से अब ये रात पहले-सी नहीं

आज क्यों हर आदमी बदनाम आता है नज़र
आज क्यों हर आदमी की ज़ात पहले-सी नहीं

किसलिए रट हाय-हाय की लगी है हर तरफ़
क्यों हमारे दिल-जिगर में बात पहले-सी नहीं

अब कहाँ वो ज़हर के प्याले, कहाँ मीरा कहो
प्रेम की बाज़ी में क्यों शह-मात पहले-सी नहीं

उनकी चौखट ने नहीं क्यों आज पहचाना मुझे
क्या मेरी हस्ती मेरी औक़ात पहले-सी नहीं
॥आठ॥

अब न रहीं वो दादी-नानी
कौन सुनाए आज कहानी

पापा दफ्तर, उलझन, गुस्सा
अम्मा चूल्हा, बरतन, पानी

किसकी गोदी में छिप जाएँ
करके अब अपनी मनमानी

चाँद पे बुढ़िया और न चरखा
और न वो परियाँ नूरानी

बाबा की तस्वीर मिली कल
गठरी में इक ख़ूब पुरानी
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॥नौ॥

महफ़िल में मेरा ज़िक्र मेरे बाद हो न हो
दुनिया को मेरा नाम तलक याद हो न हो

है वक्त मेहरबान जो करना है कर अभी
मालूम किसे कल यूँ खुदा शाद हो न हो

दिल दर्द से आबाद है कह लूँ ग़ज़ल अभी
इस दिल का क्या पता कि फिर आबाद हो न हो

इज़हार मोहब्बत का किया सोच कर यही
कल किसको ख़बर फिर से यूँ इरशाद हो न हो

उलफ़त के मेरी आज तो चर्चे हैं हर तरफ़
कल वक्त क़े होंठों पे ये रूदाद हो न हो
॥दस॥

हमने तो बस ग़ज़ल कही है, देखो जी
तुम जानो क्या गलत-सही है, देखो जी

अक्ल नहीं वो, अदब नहीं वो, हाँ फिर भी
हमने दिल की व्यथा कहीं है, देखो जी

सबकी अपनी अलग-अलग तासीरें हैं
दूध अलग है, अलग दही है, देखो जी

ठौर-ठिकाना बदल लिया हमने बेशक
तौर-तरीक़ा मगर वही है, देखो जी

बदलेगा फिर समाँ बहारें आएँगी
डाली-डाली कुहुक रही है, देखो जी।
00

नरेश शांडिल्य
मूल नाम : नरेश चन्द शर्मा
जन्म : 15 अगस्त,1958, नई दिल्ली।
शिक्षा : एम.ए.(हिन्दी)
प्रकाशित कृतियाँ : 'टुकड़ा-टुकड़ा ये ज़िन्दगी'(कविता संग्रह-1995), 'दर्द जब हँसता है'(दोहा कविता संग्रह-2000), 'मैं सदियों की प्यास' (ग़ज़ल संग्रह-2006), 'नाट्य प्रस्तुति में गीतों की सार्थकता' (शोधकार्य)।
पुरस्कार/सम्मान : हिन्दी अकादमी, दिल्ली की ओर से कविता संग्रह 'टुकड़ा-टुकड़ा ये ज़िन्दगी' के लिए 'साहित्यिक कृति सम्मान(1996), भारतीय साहित्य परिषद्, दिल्ली की ओर से 'भवानीप्रसाद मिश्र सम्मान'(2001), वातायन, लंदन, यू.के. की ओर से 'वातायन कविता सम्मान'(2005)
पत्रकारिता : 'अक्षरम् संगोष्ठी' हिन्दी साहित्य की अन्तरराष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका के सम्पादक, 'प्रवासी टाइम्स' प्रवासी भारतीयों की अन्तरराष्ट्रीय मासिक पत्रिका के रचनात्मक निदेशक।
सम्प्रति : यूनियन बैंक में कार्यरत एवं स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क : ए-5, मनसाराम पार्क, संडे बाज़ार रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
दूरभाष : 09868303565

शनिवार, 8 मई 2010

वाटिका – मई, 2010


“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया और ओमप्रकाश यती की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं- हिंदी की बहुचर्चित कवयित्री रंजना श्रीवास्तव की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…

दस ग़ज़लें – रंजना श्रीवास्तव

॥ एक ॥

एक आंधी घिरी है बाहर में, कोई भीतर उदास रहता है
तिरा होना भी नहीं होना, मन का सरवर उदास रहता है

एक जंगल घना है रिश्तों का, घर की सूरत में है सयानापन
कभी खोया है भीड़ में कोई, कभी बेघर उदास रहता है

मायका ठंड में रजाई सा, मीठी नींद ले के आता है
माँ की यादों का एक कोना है जो अक्सर उदास रहता है

कभी सूरज में है घिरी बदली औ बारिश में धूप हासिल है
कभी जयचंद के तर्जुबे हैं, कभी बाबर उदास रहता है

एक बीहड़ में है बसी दुनिया, सैकड़ों खेल हैं तबाही के
कभी नदियाँ उछाल लेती हैं, कभी सागर उदास रहता है

कभी अल्लाह की चली मर्जी, कभी भगवान की नसीहत है
कभी कुरान चुप-सा बैठा है, कभी मंदर उदास रहता है

‘रंजू’ दौलत से मिल नहीं सकती, इश्को ख़्वाब की सजी दुनिया
कभी तैमूर हार जाता है, कभी पोरस उदास रहता है
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॥ दो ॥

लगी आग कैसे हुक्मरानों से पूछो
शहर की ख़ामोशी दुकानों से पूछो

क्यूँ गलियों की सूनी नज़र हो गई है
जले हैं जो आधा मकानों से पूछो

वो बच्चा अकेला खड़ा रो रहा क्यूँ
गीता से पूछो कुरानों से पूछो

मरा आदमी है ख़ौफ ज़िन्दा खड़ा है
यूँ तन्हा सिसकते ठिकानो से पूछो

शहर की हँसी खो गई है कहाँ पर
ढलानों से पूछो उठानों से पूछो

मुहब्बत के ख़त को जलाया है किसने
बिखरे पड़े इन सामानों से पूछो

न पूछो कि मंदिर में चुप क्यों वो बैठा
न मस्जिद की बहरी अजानों से पूछो
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॥ तीन ॥

थकी सी उमंगो को काग़ज़ पे लिख दो
उदासी के रंगों को काग़ज़ पे लिख दो

ये कोहरा उदासी धुएँ का शहर है
छिड़े दिल के दंगों को काग़ज़ पे लिख दो

खिली चाँदनी में बदन जल रहा है
शमा के पतंगों को काग़ज़ पे लिख दो

वो दरिया वो मांझी वो चंचल किनारा
मिरी जल तरंगों को काग़ज़ पे लिख दो

हँसने से उसके खनकती हैं चांदी
शीशे के अंगों को काग़ज़ पे लिख दो
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॥ चार ॥

तुम जो चाहो तो जानेजां रख दूँ
तेरी यादों का आइना रख दूँ

दर्द बनके जो जला दिल में
काली रातों का वो धुआँ रख दूँ

रातों को नींद ही नहीं आती
तेरे हर रोग की दवा रख दूँ

उसकी खुशबू से दिल बहलता है
फूल रख दूँ मैं बागवां रख दूँ

बनके पारे सा जो पिघलता है
उसके हिस्से का तापमां रख दूँ

हर तरफ रूह में उजाला हो
‘रंजू’ ऐसा मैं आसमां रख दूँ
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॥ पाँच ॥

तिरी नज़रों में घर नहीं होता
आईना बेख़बर नहीं होता

रात पागल-सी इक पहेली है
कोई भी हमसफ़र नहीं होता

फूलों की रूह में पली खुशबू
बेवफ़ा क्यों शजर नहीं होता

पानी के जिस्म में उठीं लहरें
दरिया भी नामवर नहीं होता

सबके हिस्से में दर्द के छाले
कभी तन्हा सफ़र नहीं होता

बच्चे बच्चे सा मन का आलम
रातें होती सहर नहीं होता

‘रंजू’ किस्से को अब भुलाएँ हम
यादों में अब गुजर नहीं होता
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॥ छह ॥

दर्द कोई दवा हो गया है
पत्ता पत्ता हरा हो गया है

सांसे जीने लगीं हैं मुक़म्मिल
उनसे जब सामना हो गया है

सरहदों पे उदासी थमी है
वक़्त का फैसला हो गया है

मुफ़लिसी के जख़्म भर गए हैं
कोई बच्चा बड़ा हो गया है

सहमी कलियाँ चटकने लगी हैं
ग़म से अब फासला हो गया है

खिलखिलाते हैं आँखों में सपने
फूल सा हौसला हो गया है
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॥ सात ॥

फिक्र ऐसी हो कि कोई जिक्र छिड़े हल निकले
जख़्मी यादों के अंधेरों से जंगल निकले

किसी अहसास की खुशबू है कि यादों की महक
उनकी पलकों की नमी सोख के काजल निकले

जो हैं पत्थर तराशो उन्हें कोई रंग भरो
बुझती आँखों से जज्बात के बादल निकले

दरिया हैरान कि खोया है समंदर का पता
दु:खते पैरों की तकदीर से पायल निकले

बर्फ़ के खेत में ठिठुरन की फसल पकती है
खुद से अपना ही पता पूछने पागल निकले
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॥ आठ ॥

वो पत्थर पे सपने उगाने लगे हैं
वो शीशे के घर क्यों बनाने लगे हैं

कड़ी धूप में जब जली मुफ़लिसी है
वो काग़ज़ पे नक्शे बिछाने लगे हैं

जली झोपड़ी क्यों लगी आग कैसे
गरीबी को जड़ से मिटाने लगे हैं

बढ़ी कीमतें हैं घटा आदमी है
वो भट्टी में लोहा तपाने लगे हैं

न दु:ख में न सुख में न अपने-पराये
वो कीमत समय की लगाने लगे हैं

कहाँ ताज़गी है किधर रंग बाकी
वो खुशबू पे पहरे बिठाने लगे हैं
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॥ नौ ॥

आओ गीता कुरान की मानें
अपने अपने अजान की मानें

मानकर देखना बस इतना है
कि सब अपने ईमान की मानें

एक चादर बिछा के बैठे हम
बातें सबके बयान की मानें

मानें हम वक़्त का सही कहना
खेत की और किसान की मानें

बन्द कमरे की तंग सांसें हैं
धूप की और दालान की मानें

अपने घर की नहीं करें चिंता
‘रंजू’ सबके मकान की मानें
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॥ दस ॥

तुम्हारी हमारी अज़ब है कहानी
ना बरखा न बूँदें दरिया न पानी

कहो न कहो प्यास जलने लगी है
कई बंदिशों में घिरी है जवानी

रोने के पहले लगातार हँसना
मुझे याद आती हैं बातें पुरानी

ख़तों के बिछोने पे चुपचाप सोना
दुप्पटे में भीगा वो चेहरा नूरानी

कई जख़्म भीतर के रिसते रहे हैं
कई ख़्वाब जलते रहे आसमानी

रिवाज़ों के कोहरे में हम घिर गए
तड़पती, सिसकती हैं रातें सयानी
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जन्म : गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.ए., बी.एड
प्रकाशित पुस्तकें : चाहत धूप के एक टुकड़े की(कविता संग्रह), आईना-ए-रूह(ग़ज़ल संग्रह), सक्षम थीं लालटेनें(कविता संग्रह-2006 में)।
संपादन : सृजन-पथ (साहित्यिक पत्रिका) के सात अंकों का अब तक संपादन।

पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध। हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा- वागर्थ, नया ज्ञानोदय, आउटलुक, इंडिया टुडे, अक्षर पर्व, परिकथा, पाखी, कादम्बिनी, सनद, पाठ, साहिती सारिका, वर्तमान साहित्य, काव्यम्, राष्ट्रीय सहारा, उत्तर प्रदेश, जनसत्ता (सबरंग), जनसत्ता कोलकाता(दीवाली विशेषांक), संडे पोस्ट, निष्कर्ष, शब्दयोग, पर्वत राग आदि में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ एवं स्त्री विमर्श विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के एक टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से साहित्य की महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नं. 2, पो.ऑ. सिलीगुड़ी बाज़ार, सिलीगुड़ी(प. बंगाल)-734005
मोबाइल : 099339 46886

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

वाटिका – अप्रैल, 2010



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत और शेरजंग गर्ग, लता हया की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- हिंदी के बहुचर्चित कवि-ग़ज़लकार ओमप्रकाश यती की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…


दस ग़ज़लें – ओमप्रकाश यती

॥ एक ॥

अपने भीतर छिपी बुराई से लड़ना
मुश्किल है कड़वी सच्चाई से लड़ना

झूठ का पर्वत लोट रहा है कदमों में
चाह रहा था सच की राई से लड़ना

ऐसे वार कि भाँप नहीं पाता कोई
सीख गए हैं लोग सफ़ाई से लड़ना

आँखों से ही कहता है कुछ बेचारा
उसके वश में कहाँ क़साई से लड़ना

सेनाओं से लड़ने वाले क्या जानें
कितना मुश्किल है तन्हाई से लड़ना
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॥ दो ॥

नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला

कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया और जेब से सिक्का नहीं निकला

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुजरती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला

जहाँ पर ज़िन्दगी की, यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला
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॥ तीन ॥

फूस - पत्ते अगर नहीं मिलते
जाने कितनों को घर नहीं मिलते

जिनकी उम्मीद ले के सोते हैं
स्वप्न वो रात भर नहीं मिलते

जंगलों में भी जा के ढूँढ़ो तो
इस क़दर जानवर नहीं मिलते

दूर परदेश के अतिथियों से
दौड़कर के नगर नहीं मिलते

चाहती हैं जो बाँटना ख़ुशबू
उन हवाओं को ‘पर’ नहीं मिलते
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॥ चार ॥

तुम्हें कल की कोई चिन्ता नहीं है
तुम्हारी आँख में सपना नहीं है

ग़लत है ग़ैर कहना ही किसी को
कोई भी शख्स जब अपना नहीं है

सभी को मिल गया है साथ गम का
यहाँ अब कोई भी तन्हा नहीं है

बँधी हैं हर किसी के हाथ घड़ियाँ
पकड़ में एक भी लम्हा नहीं है

मेरी मंज़िल उठाकर दूर रख दो
अभी तो पाँव में छाला नहीं है
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॥ पाँच ॥

प्रेम के, अठखेलियों के दिन गए
गाँव से भी मस्तियों के दिन गए

बन्द कमरा पास में बन्दूक भी
अब वो बेपरवाहियों के दिन गए

वीडियो चलते हैं शादी-ब्याह में
नाच के, नौटंकियों के दिन गए

हर गली में मजनुंओं के झुण्ड हैं
दंगलों के, कुश्तियों के दिन गए

भाई-भाई में मुक़दमेबाज़ियाँ
देवरों के, भाभियों के दिन गए
0
॥ छह ॥

कुछ खट्टा, कुछ मीठा लेकर घर आया
अनुभव कैसा - कैसा लेकर घर आया

खेल-खिलौने भूल गया सब मेले में
वो दादी का चिमटा लेकर घर आया

होम-वर्क का बोझ अभी भी सर पर है
जैसे तैसे बस्ता लेकर घर आया

उसको उसके हिस्से का आदर देना
जो बेटी का रिश्ता लेकर घर आया

कौन उसूलों के पीछे भूखों मरता
वो भी अपना हिस्सा लेकर घर आया
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॥ सात ॥

नदी कानून की शातिर शिकारी तैर जाता है
यहाँ पर डूबता हल्का है भारी तैर जाता है

उसे कब नाव की, पतवार की दरकार होती है
निभानी है जिसे लहरों से यारी, तैर जाता है

बताते हैं कि भवसागर में दौलत की नहीं चलती
वहाँ रह जाते हैं राजा, भिखारी तैर जाता है

समझता है तुम्हारे नाम की महिमा को पत्थर भी
तभी हे राम ! मर्जी पर तुम्हारी तैर जाता है

निकलते हैं जो बच्चे घर से बाहर खेलने को भी
मुहल्ले भर की आँखों में निठारी तैर जाता है

॥ आठ ॥

पर्वत, जंगल पार करेगी, बंजर में आ जाएगी
बहते-बहते नदिया इक दिन सागर में आ जाएगी

कोंपल का उत्साह देखकर शायद मोम हुआ होगा
वर्ना इतनी नरमी कैसे पत्थर में आ जाएगी

बहनों की शादी का कितना बोझ उठाना है मुझको
ये बतलाने वाली लड़की कल घर में आ जाएगी

भाभी जब भाभी-माँ बनकर प्यार लुटाएगी अपना
लछिमन वाली मर्यादा भी देवर में आ जाएगी

शाम हुई तो कुछ रंगीनी बढ़ जाएगी शहरों की
और गाँव की बस्ती काली चादर में आ जाएगी
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॥ नौ ॥

दिल में सौ दर्द पाले बहन-बेटियाँ
घर में बाँटें उजाले बहन-बेटियाँ

कामना एक मन में सहेजे हुए
जा रही हैं शिवाले बहन-बेटियाँ

ऐसी बातें कि पूरे सफ़र चुप रहीं
शर्म की शाल डाले बहन-बेटियाँ

हो रहीं शादियों के बहाने बहुत
भेड़ियों के हवाले बहन-बेटियाँ

गाँव-घर की निगाहों के दो रूप हैं
कोई कैसे सम्भाले बहन-बेटियाँ
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॥ दस ॥

छिपे हैं मन में जो, भगवान से वो पाप डरते हैं
डराता वो नहीं है लोग अपने आप डरते हैं

यहाँ अब आधुनिक संगीत का ये हाल है यारो
बहुत उस्ताद भी लेते हुए अलाप डरते हैं

कहीं बैठा हुआ है भय हमारे मन के अन्दर तो
सुनाई दोस्त की भी दे अगर पदचाप डरते हैं

निकल जाती है अक्सर चीख़ जब डरते है सपनों में
हकीक़त में तो ये होता है हम चुपचाप डरते हैं

नतीजा देखिए उम्मीद के बढ़ते दबाओं का
उधर संतान डरती है इधर माँ-बाप डरते हैं
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जन्म : 3 दिसम्बर 1959 को बलिया (उत्तर प्रदेश) के "छिब्बी " गाँव में ।
शिक्षा: प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ,बाद में सिविल इंजीनियरिंग तथा विधि में स्नातक एवं हिंदी साहित्य में एम.ए।
प्रकाशन: एक ग़ज़ल संग्रह "बाहर छाया भीतर धूप" राधाकृष्ण प्रकाशन ,दिल्ली से प्रकाशित।
- हिन्दुस्तानी ग़ज़लें तथा "ग़ज़ल दुष्यंत के बाद....आदि संकलनों में ग़ज़लें सम्मिलित।
- हाइकु-2009 में कुछ हाइकु संकलित।
-लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ समय-समय पर प्रकाशित।
प्रसारण: आकाशवाणी के नजीबाबाद,लखनऊ,भोपाल,इंदौर,दिल्ली,ओबरा,नेशनल चैनेल तथा दूरदर्शन से कवितायेँ,कहानियां और साक्षात्कार आदि प्रसारि।
-सर्वभाषा कवि-सम्मलेन 2008 में कन्नड़ कविता के अनुवादक कवि के रूप में भागीदारी ।
सम्प्रति: उत्तर-प्रदेश,सिंचाई विभाग में सहायक अभियंता पद पर कार्यरत।
संपर्क: H -89 ,बीटा-2 ,ग्रेटर नॉएडा -201308
मोबाइल :09999075942 ,09410476193
ईमेल : yati_om@yahoo.com
yatiom@gmail.com

रविवार, 21 मार्च 2010

वाटिका - मार्च, 2010



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत और शेरजंग गर्ग की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- उर्दू-हिंदी शायरी की एक बेहद जानी-पहचानी शायरा लता हया की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…

दस ग़ज़लें - लता हया

॥ एक ॥

वो हमसफ़र है मगर हमसफ़र नहीं लगता
मैं जिस मकान में रहती हूँ, घर नहीं लगता

हरा-भरा भी है, खुशबू भी है, समर भी है
बग़ैर साये के फिर भी शजर नहीं लगता

ये मेरी ज़िद है उसे और याद आऊँगी
मेरी जुदाई का जिस पर असर नहीं लगता

तू जब भी ज़हन में आँधी की तरह उठता है
मेरे वजूद के तिनकों को डर नहीं लगता

इसे मैं सादगी समझूं कि हौसला उनका
मुहाफ़िजों से कभी जिनको डर नहीं लगता

गुलाब बोया है जिस दिन से अपने आँगन में
ख़ुद अपने जिस्म के ख़ारों से डर नहीं लगता

'हया' की क़ैद में माना ज़बान है लेकिन
नज़र से तो वो मेरी बेख़बर नहीं लगता।
समर= फल, शजर =पेड़
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॥ दो ॥

मेरी तो ज़ात, पात, धर्म, दीन शायरी
है घर, मकां, जहाँ, फ़लक, ज़मीन शायरी

देखा जो तुमने प्यार से तो यूँ लगा मुझे
जैसे कि हो गई हूँ मैं हसीन शायरी

ख्वाहिश की तितलियाँ बड़ी कमसिन हैं, शोख हैं
इनके तफ़ैल हो गई रंगीन शायरी

सरज़द हुई हैं ऐसी भी दिल पर हक़ीक़तें
रिश्तों को लिख गई नया आईन शायरी

ग़ैरत की लाश हाथ में लेकर ग़ज़ल कहूँ
तेरी न कर सकूँगी तौहीन शायरी

लैला-ए-शायरी हूँ, मेरा कैस है सुख़न
ये जुर्म है तो दे सज़ा, न छीन शायरी

इक लम्स है ये शायरी मेरे लिए 'हया'
उनकी नज़र में लाम, मीम, सीन शायरी।
तफ़ैल=कारण, सरज़द = घटित, आईन=संविधान, कैस =मजनूं का नाम, लम्स=स्पर्श
लाम, मीम, सीन =उर्दू की वर्णमाला के अक्षर
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॥ तीन ॥

बात करने का सलीक़ा हो तो पत्थर बोले
वरना तू कौन है तुझसे कोई क्योंकर बोले

वो ख़ुदा है तो रहे दूर ही मुझसे, कह दो
पास आए तो ज़रा आदमी बन कर बोले

मैं भी हर तरह के ज़ख्मों की ज़बां सीख चुकी
अब समझ लेती हूँ वो बात जो ठोकर बोले

वो भी क़ासिर था मेरी बात समझने के लिए
मैं भी ख़ामोश रही पर मेरे तेवर बोले

मश्क़ जारी है हक़ीक़त को समझने की अभी
पर हक़ीक़त तो वही है जो मुक़दर बोले

हमने जो भी कहा वो मुँह पर कहा है सबके
और कुछ लोग थे जो भेस बदलकर बोले

जब भी शरमा के नज़र उससे चुराती है 'हया'
उसकी आँखों में अजब ख़ौफ, अजब डर बोले।
क़ासिर-=बेचैन, उतावला
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॥ चार ॥

वो लोग जिनके लब पे तबस्सुम हज़ार हैं
उनके दिलों में झाँकिए, ग़म बेशुमार हैं

काँटों के बीच हँस के कहा ये गुलाब ने
हँस लो कि ज़िंदगानी के दिन सिर्फ़ चार हैं

ग़ज़लों में उसका ज़िक्र, न होंठों पे उसका नाम
हालाँकि उसको सोचते हम बार-बार हैं

दिल पर अभी हमारे हुकूमत है ज़ह्न की
ठोकर तो खा रहे हैं मगर होशियार हैं

बुलडोज़रों से रौंदते हैं घर गरीब का
तामीरे- मुल्को क़ौम के जो ज़िम्मेदार हैं

ओढ़े हुए लिहाफ़, पढ़ी सुब्ह को ख़बर
कल रात ठंड से जो मरे बेशुमार हैं

ग़म दूसरों के इनमें झलकते हैं ए 'हया'
अशआर मेरे ग़ैरों के आईनादार हैं।
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॥ पाँच ॥

हमने वीराने को गुलज़ार बना रक्खा है
क्या बुरा है जो हक़ीक़त को छुपा रक्खा है

दौरे-हाज़िर में कोई काश ज़मीं से पूछे
आज इंसान कहाँ तूने छुपा रक्खा है

वो तो ख़ुदगर्ज़ी है, लालच है, हवस है जिसका
नाम इस दौर के इंसां ने वफ़ा रक्खा है

तू मेरे सह्न में बरसेगा कभी तो खुलकर
मैंने ख्वाहिश का शजर कब से लगा रक्खा है

मेरी बेटी तू सितारों सी फ़रोज़ा होगी
ये मेरी माँ ने वसीयत में लिखा रक्खा है

मैं तो मुश्ताक़ हूँ आँधी में भी उड़ने के लिए
मैंने ये शौक़ अजब दिल को लगा रक्खा है

मैं कि औरत हूँ मेरी शर्म है मेरा ज़ेवर
बस तख़ल्लुस इसी बाईस तो 'हया' रक्खा है।
दौरे-हाज़िर=आज का ज़माना. सह्न = आँगन, फ़रोज़ा =रौशन, मुश्ताक़ =बेचैन,
तख़ल्लुस =उपनाम, बाईस = कारण
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॥ छह ॥

आँखों में जब मेरी वो अपना अक्स पाएगा
अपनी अना का शीशमहल ख़ुद गिराएगा

पहले दिलों को जीतने की तर्ज़ सीख ले
ये इक हुनर ही तेरे बहुत काम आएगा

इक़रार न करूँ तो करूँ क्या बताईए
वो इस क़दर है मुझपे फ़िदा, मर ही जाएगा

दरअस्ल दाद पाएगी उस दिन मेरी ग़ज़ल
जब तू मुहब्बतों से उसे गुनगुनाएगा

तारीफ़ मेरी इतनी जो करता है रात-दिन
कितना हसीन वो मुझे आख़िर बनाएगा

मैं हूँ कि खुल के हँसती हूँ ज़ख्मों के बावजूद
ऐसे भी हादसों में कोई मुस्कुराएगा

इतना तो प्यार मैंने भी ख़ुद को नहीं किया
अब दूर जाएगा तो बहुत याद आएगा

दीदार की मैं ख़ुद हूँ तेरे मुंतज़िर मगर
शर्ते 'हया' है तू मेरा घूंघट उठाएगा।
अना=ग़ुरूर, तर्ज़ =तरीक़ा, मुंतज़िर=प्रतीक्षारत
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॥ सात ॥

ये तमन्ना है, मुझे काश वो जादू आए
मैं जिधर जाऊँ उधर बस तेरी ख़ुशबू आए

ज़िंदगी घिर गई जब-जब भी अंधेरों में मेरी
तब बहुत काम तेरी याद के जुगनू आए

मुझको अपने पे भरोसा तो बहुत है लेकिन
दिल तो फिर दिल है किसी तरह न क़ाबू आए

सोच बदली नहीं लोगों की, ज़माना बदला
अब भी औरत के मुक़दर में ही आँसू आए

वो परिंदों से भी बढ़कर के चहकना दिल का
मुझसे मिलने को जो ससुराल में बापू आए

यूँ तो बेख़ौफ़ हूँ, बेबाक हूँ, बिंदास भी हूँ
फिर भी आ जाए 'हया' सामने जब तू आए।
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॥ आठ ॥

धर्म की, कुछ ज़ात की, कुछ हैसियत की सरहदें
आदमीयत की ज़मीं पर कैसी कैसी सरहदें

मुल्क को तो बाँट लें लेकिन ये सोचा है कभी
दिल को कैसे बाँट सकती हैं सियासी सरहदें

माँग भर कर उसने मेरी माँग ली आज़ादियाँ
अब कफ़स है, और मैं हूँ या सिंदूरी सरहदें

मैं हक़ीक़त की पुजारिन वो रिवायत का असीर
मेरी अपनी मुश्किलें हैं, उसकी अपनी सरहदें

बस ! बहुत तौहीन कर ली आपने अब देखिए
खींचनी आती हैं मुझको भी अना की सरहदें

अब तलक पाक़ीज़गी बाक़ी है अपनी फ़िक्र में
हैं हमारे दरमियाँ गीता - कुरआनी सरहदें

देख कर आँखों में उनकी छलछलाती चाहतें
सोचती हूँ तोड़ दूँ, शर्मो - हया की सरहदें।
कफ़स=क़ैद, रिवायत=रूढ़ियाँ, असीर=क़ैदी
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॥ नौ ॥

मैं ग़ज़ल हूँ, मुझे जब आप सुना करते हैं
चंद लम्हे, मेरा ग़म बाँट लिया करते हैं

लोग चाहत की किताबों में छुपाकर चेहरा
सिर्फ़ जिस्मों की ही तहरीर पढ़ा करते हैं

लोग नफ़रत की फ़ज़ाओं में भी जी लेते हैं
हम मुहब्बत की हवा से भी डरा करते हैं

जब वफ़ा करते हैं हम सिर्फ़ वफ़ा करते हैं
और जफ़ा करते हैं जब सिर्फ़ जफ़ा करते हैं

अपने बच्चों के लिए लाख गरीबी हो मगर
माँ के पल्लू में कई सिक्के मिला करते हैं

जो कभी ख़ुश न हुए देख तरक्क़ी मेरी
मेरे अपने हैं, मुझे प्यार किया करते हैं

जिनके जज्बात हों, नुकसान-नफ़ा की ज़द में
उनके दिल में कई बाज़ार सजा करते हैं

मेरे एहसास पे पहरा है 'हया' का वरना
हम गलत बात न सुनते, न सहा करते हैं।
तहरीर=लिखावट
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॥ दस ॥

मैं पी रही हूँ कि ज़हराब हैं मेरे आँसू
तेरी नज़र में फ़क़त आब हैं मेरे आँसू

तू आफ़ताब है मेरा, मैं तुझसे रौशन हूँ
तेरे हुज़ूर तो महताब हैं मेरे आँसू

वो गालिबन इन्हें हाथों में थाम भी लेता
उसे ख़बर न थी, सैलाब हैं मेरे आँसू

ख़याल रखते हैं तन्हाइयों का, महफ़िल का
ये कितने वाक़िफ़े आदाब हैं मेरे आँसू

छूपा के रखती हूँ हर गम को लाख पर्दों में
फ़सीले- ज़ब्त से नायाब हैं मेरे आँसू

सहीफ़ा जानके आँखों को पढ़ रहा है कोई
ये रस्मे- इजरा को बेताब हैं मेरे आँसू

मैं शायरी के हूँ फ़न-ए-अरूज़ से वाक़िफ़
ज़बर हैं, जेर हैं, ऐराब हैं मेरे आँसू

'हया' के राज़ को आँखों में ढूँढ़ने वालो
शिनावरों सुनो, गिर्दाब हैं मेरे आँसू।
ज़हराब=ज़हर का पानी, आफ़ताब=सूरज, हुज़ूर=तेरे सामने, फ़सीले- ज़ब्त=सहनशक्ति की दीवार,
सहीफ़ा=किताब, रस्मे- इजरा=विमोचन की रस्म, फ़न-ए-अरूज़=व्याकरण,
ज़बर, जेर, ऐराब=उर्दू लिपि की मात्राएं, शिनावरों =गोताखोर, गिर्दाब=भंवर

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एक हिंदू ब्राह्मण मारवाड़ी परिवार में जन्मी लता हया की मादरी ज़बान राजस्थानी और हिंदी है लेकिन तहज़ीबी ज़बान उर्दू है। इन दिनों मुम्बई में निवास करती हैं और हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान से बाहर कई देशों में कवि सम्मेलनों और मुशायरों में शिरकत कर चुकी हैं। इन्होंने अपनी बेहतरीन शायरी और कलाम, अपनी मधुर आवाज़ और अभिनय कला की मार्फ़त, कला और अदब की दुनिया में जो शोहरत हासिल की है, वह काबिलेगौर है। अपने बारे में परिचय देते हुए बस इतना ही कहती है कि 'एक साधारण भारतीय नारी जो अदब में औरत की असाधारण मौजूदगी और इंसानियत की तरफ़दार है।' कला और अदब में योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित लता हया ने कई टेलीविजन सीरियल्स में भी काम किया है जैसे 'अलिफ़ लैला', 'कृष्णा', 'कुंती', 'औरत', 'अमानत', 'जय संतोषी माँ', 'कस्तूरी', 'कशमकश' और 'अधिकार'। इन दिनों डी.डी.1 पर 'कसक', कलर्स पर 'मेरे घर आई इक नन्हीं परी' और ई.टी.वी.(उर्दू) पर 'सवेरा' में काम कर रही हैं।
'हया' शीर्षक से हिंदी और उर्दू लिपि में शायरी की पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है और इन दिनों अंतर्जाल पर 'हया' (www.latahaya.blogspot.com) नाम से ब्लॉग है जिसमें इनकी नई-पुरानी शायरी के रंग और मौजूदा हालात पर तीखी टिप्पणियाँ भी देखने-पढ़ने को मिलती हैं। इनका ई मेल आई डी है- latahaya @gmail.com

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

वाटिका - फरवरी 2010


“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव की कविताएं, और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत और शेरजंग गर्ग की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- समकालीन हिंदी कविता में सुपरिचित कवयित्री इला प्रसाद की दस चुनिन्दा कविताएं… होली 2010 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ…



दस कविताएँ - इला प्रसाद

॥ एक ॥
जाड़े की धूप

आती है देर से
भागती है जल्दी
बहुत कामचोर
हो गई है लड़की !


॥ दो ॥
दीमक

वक्त की दीमक
मेरे अक्षरों को चाट जाए
इससे पहले ही
दिखा देनी होगी इन्हें
दोपहर की धूप।

सीख लें ये भी
आँच में तपना
वक्त की कसौटी पर चढ़कर
खरा उतरना
धूप में चमकना
किसी के हिस्से का सूरज बनकर
राह में
रोशनी सा बरसना।

वक्त की दीमक
मेरे अक्षरों को लगे
इससे पहले ही
मैं दिखला जाऊँगी इन्हें
सुबह की धूप !

॥तीन॥
स्त्री

कच्चे भुट्टे के दानों-सी बिखरी
तुम्हारी वह उजली हँसी
लोगों की याद का
हिस्सा बन चुकी है
अपनी खुशबू के साथ।

वक्त ने चाहे
तुम्हारे होंठ सिल दिए हों
तुम्हारी हँसी के हस्ताक्षर
अब भी ज़िन्दगी की किताब के
पिछले पन्नों में बन्द हैं।

अगले पन्नों पर 'खामोशी' लिखते हुए
चाहे फिलहाल
तुम्हें पीछे देखने की इजाज़त न हो
समय का सूरज
ज़रूर लौटा लाएगा
तुम्हारे हिस्से की धूप
एक न एक दिन।

शायद तब
जब सुलगती उंगलियों से
आख़िरी पन्नों पर
तुम आग उगल रही होगी
क्योंकि आग, ख़ामोशी, धूप और खिलखिलाहट
औरत की ज़िन्दगी का सारा जोड़-घटाव है
जिसका उत्तर कभी भी 'शून्य' नहीं आता।

॥चार॥
द्वीप

आस्था की नदी में
विश्वास का द्वीप था
उसी द्वीप पर तो मैं
चुनौती देती निगाहों को
निरस्त करती
अकेली खड़ी थी !

॥पाँच॥
कविता

आज फिर मैंने तुम्हारा नाम लिया
आज फिर मैंने किसी से तुम्हारी बात की।

आज फिर मैंने किसी को प्यार से सहलाया
किसी को अपनी उजली हँसी से नहलाया
कोई मेरे करीब आया
मैं किसी के पास थी।

यह कैसा वक्फ़ा था
जो मेरे और कविता के बीच में आया
तुम्हारा मेरे क़रीब होना
एक कविता-सी ही तो बात थी !

॥छह॥
एक दोस्त के लिए

स्नेह यदि सम्बोधित होता है स्पर्शों से
स्पर्शों की यदि कोई भाषा होती है
तो शब्दों को अनुपस्थित ही रहने दो।

अनुभूतियों की कोई ज़मीन होगी
एहसासों का कोई मकान होगा
इन अनकहे अनुभवों को
उसी ज़मीन पर, उसी मकान में बसने दो।

स्मृतियों की एक किताब होगी
जो तुम्हारे भी पास होगी
इन कोमल नेह पंखुरियों को
उसी किताब में झरने दो।

ताकि किन्हीं बोझिल पलों में
जब भी किताब खुले
स्नेह का सुवास
तुम्हारे आसपास
घुले !

॥सात॥
अस्वीकृति

मैं तलछट-सी निकालकर
फेंक दी गई हूँ
किनारे पर
लहरों को मेरा
साथ बहना
रास नहीं आया।

मैं न शंख थी
न सीपी
कि चुन ली गई होती
किन्हीं उत्सुक निगाहों से
रेत थी
रेत-सी रौंदी गई
काल के क्रूर हाथों से।

॥आठ॥
लड़कियों से

मत रहो घर के अन्दर
सिर्फ़ इसलिए
कि सड़क पर ख़तरे बहुत हैं।

चारदीवारियाँ निश्चित करने लगें जब
तुम्हारे व्यक्तित्व की परिभाषाएँ
तो डरो।

खो जाएगी तुम्हारी पहचान
अँधेरे में
तुम्हारी क्षमताओं का विस्तार बाधित होगा
डरो ।

सड़क पर आने से मत डरो
मत डरो कि वहाँ
कोई छत नहीं है सिर पर।

तुमने क्या महसूसा नहीं अब तक
कि अपराध और अँधेरे का गणित
एक होता है ?
और अँधेरा घर के अन्दर भी
कुछ कम नहीं हैं

डरना ही है तो अँधेरे से डरो
घर के अन्दर रहकर
घर का अँधेरा
बनने से डरो !

॥नौ॥
सम्बन्ध

सम्बन्धों को उन्होंने ओढ़ा था
शॉल की तरह
ताकि वक्त ज़रूरत उन्हें
उतार दें गर्मियों में
और उम्मीद की मुझसे
कि मैं उनसे चिपकी रहूँ
जाड़ों में स्वेटर की तरह।

मासूम हैं लोग
नहीं समझते
कि न शॉल, न स्वेटर
रास आता है मुझे
मुझे तो ठिठुरती ठंड में
अपनी हड्डियों का
कड़ा होते जाना अच्छा लगता है।

॥दस॥
अगरबत्ती

अन्दर की आँच
अधिक तो नहीं थी
बस एक जलती हुई अगरबत्ती थी
जो धीमे-धीमे सुलगती रही
अलक्षित
और एक दुनिया अन्दर ही अन्दर
जल कर राख हो गयी।

अपने अन्दर की आग से
अगरबत्ती की राख से
फिर से उठी मैं
अगरबत्ती बन कर
और फिर से तपने लगी।
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झारखंड
की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/ सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।
कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।
छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।
"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।
कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) । एक कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य्।
सम्प्रति :स्वतंत्र लेखन ।
सम्पर्क : ILA PRASAD
12934, MEADOW RUN
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ई मेल : ila_prasad1@yahoo.com