सोमवार, 18 फ़रवरी 2008

दस कविताएं – सुरेश यादव

(1) चाहता हूँ जब

चाहता हूँ जब कभी मैं
सुगन्ध लिखना फूल की
भर लाते हैं
शब्द जाने कहाँ से
हजारों-हजार फूलों की घुटन

चाहता हूँ जब कभी मैं लिखना
धूप की गुनगुनाहट कविता में
अजीब-सा शोर बनकर रह जाती है
धूप में चटकते
माटी के बरतनों की टूटन

चाहता हूँ कि एकटक ताकता रहूँ
खिले-खिले ये इन्द्रधनुष
हर एक रंग लेकिन
कुछ ऐसा खेल खेलता है आँखों में
कि भरने लग जाती है चुभन

और
मैं–
लिख नहीं पाता हूँ
फूलों की सुगन्ध
धूप की गुनगुनाहट
इन्द्रधनुष के रंगों की खिलन।

(2) बिछा रहा जब तक


घिरा रहा
शुभ-चिन्तकों से
बिछा रहा
जब तक सड़क सा !

खड़ा हुआ तन कर
एक दिन
अकेला रह गया
दरख़्त-सा !


(3) धार पा गए


गर्म दहकती भट्टी में
पड़े रहे तपते हुए
और– एक दिन
ढलने का अहसास पा गए

संभव और कुछ नहीं था
इस हालात में
गर्म थे
पिटे खूब
और – एक दिन
धार पा गए।


(4) अपनी जड़ें लेकर

सूख चुके हैं
समय की धूप में
पौधे – वे तमाम
रोपा था तुमने,
बहुत फुरसत में जिन्हें
स्नेह के साथ
लेकिन, खूबसूरत पत्थरों पर

नफरत में भरकर
जिन्हें कभी
जड़ों समेत उखाड़ा
और तुमने कीचड़ में फेंक दिया था
वे जहाँ-जहाँ गिरे
उठे जड़ें लेकर
और खड़े हो गए तन कर
दरख़्त बनकर।


(5) उखड़े दरख़्त की जड़ें


आँधी जब आती है
पेड़ों को हिलाती-डुलाती है
पत्तों को उड़ा कर अपने साथ
बहुत दूर तक ले जाती है

आँधी में जूझते भी पेड़ हैं
आँधी में टूटते भी पेड़ हैं
झकझोरती है आँधी जब दरख़्त को
उखाड़ देती जड़ों समेत
जड़ें उखड़े हुए दरख़्त की तब
आक्रोश में पैने पंजे की तरह तन जाती हैं
और –
आती हुई आँधी की
छाती में समाती चली जाती हैं।

(6) तिनके में आग


बरसाती मौसम का डर
अधबुना रह न जाए नीड़
चिड़िया को फिकर है

बेचैन हुई उड़ती
इधर से उधर
तिनके जुटाती
जलते चूल्हे से भी
खींचकर ले गई तिनका
बुन रही है
नीड़ में जिसको जल्दी-जल्दी !

आग है तिनके में
और
चिड़िया– आग से बेखबर है
चिड़िया को बस
नीड़ की फिकर है।

(7) परिन्दे


हवाओं के हाथों में
देखे हैं
इन परिन्दों ने
जब से पैने खंजर
खोले और पसार दिए पंख

ये परिन्दे
उड़ाने ऊँची भरते हैं
हवा से बातें करते हैं

पंजों में धरती
पंखों पर आकाश
ये परिन्दे
जब चीं-चीं, चीं-चीं करते हैं
मौसम
इनके पंखों से झरते हैं

आग बरसाता सूरज हो
या बादलों की बरसात हो तेजाबी
परिन्दे उड़ते हैं

नीड़ जब से उजड़े हैं
इन परिन्दों के
उड़ते-उड़ते साते हैं
ये उड़ते-उड़ते जगते हैं
पूरे आसमान को
ये परिन्दे
अपना घर कहते हैं।

(8) बिकने लगा सूरज


लोग हैं कुछ
सूरज को भी जो
बेचने लगे हैं – अपनी दुकानों पर

बहुत लोग हैं
जो खड़े हैं इन्तजार में
आएगी धूप भी
उनके मकानों पर

बहेलियों के हाथों
जाल मचलने लगे हैं
परिन्दों की भूख ने
निगाहें उनकी
गिरा दी हैं– साजिश के दानों पर

कैसा हक मिलेगा
उड़ते इन परिन्दों को
फैसला लिखने वाले अब
कमानों पर चढ़ाकर तीर
चढ़ चुके हैं ऊँचे मचानों पर।


(9) वादे

उम्र भर
संग चलने के वादे
कितनी जल्दी थक जाते हैं
दो चार कदम चलते
रुक जाते हैं

ज़िन्दगी की राह
इतनी उबड़-खाबड़ है कि
वादों के नन्हें-नन्हें पांव
डग नहीं भर पाते

कोई भी मोड़
बहाने की तरह
खड़ा मिल जाता है इनको
और
वादे– बहाने की उंगली थाम कर
जाने कहाँ चले जाते हैं।


(10) ज़मीन

मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पांवों की ज़मीन

भुरभुरा उर्वर किये हैं
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन

इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है

इसलिए
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब– दर्द की फसल होती है
और– मैं इसी फसल को
बार-बार काटता हूँ
हर बार बोता हूँ।

इस तरह आदमी के रिश्ते को
कविता में ढोता हूँ
और
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।
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जन्म:1 जनवरी, 1955, मैनपुरी(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा:एम.ए. हिन्दी एवं राजनीति शास्त्र।
कृतियाँ: उगते अंकुर(कविता संग्रह)
दिन अभी डूबा नहीं(कविता संग्रह)
यह शहर किसका है(कविता संग्रह)(शीघ्र प्रकाश्य)
सम्मान:‘दिन अभी डूबा नहीं’ कविता संग्रह पर हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 86-87 का ‘साहित्यिक कृति पुरस्कार’ एवं अन्य सम्मान।
सम्प्रति: निदेशक, दिल्ली नगर निगम, दिल्ली।

कवि सम्पर्क:
2/3, एम सी डी फ्लैट्स,
साउथ एक्स, पार्ट–।।,
नई दिल्ली–110065
दूरभाष:011–26255131(निवास)
09818032913(मोबाइल)
ई मेल:sureshyadav55@gmail.com

4 टिप्‍पणियां:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

सुरेश यादव जी की कविताओं में गज़ब की उष्मा और जीवन को गति देने वाली उर्जा है.

Sushil Kumar ने कहा…

सुरेश यादव की इन कविताओं में जीवन को पाने की तड़प है और संघर्ष की स्वीकृति भी।इस लिहाज़ से ये कविताएं पाठक के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं।भाषा भी संयत और लचीली है,गरज कि,जीवन के इन छोटे किंतु मर्मभेदी पहल की कविताओं को लोग ध्यान से पढे़।
"इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है"-
-यह इनके कविताओं पर भी लागू है जो हिंदी के कविताओं के सुखद भविष्य की आश्वस्ति देते हैं।सुरेश यादव जी को इसके लिये बहुत-बहुत बधाई।-सुशील कुमार,हंस निवास, कालीमंडा, हरनाकुंडी रोड,दुमका-814101
email-sk.dumka@gmail.com

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

प्रिय सुभाष,

फरवरी की वाटिका में भाई सुरेश यादव की कविताएं पढीं . मन पर अमिट छाप छोड्ती ये रचनाएं यादव की उपलब्धि हैं . तुम्हारी भी . ओर , ब्लाग में तुम्हारी फोटो बहुत सुन्दर है. बधाई .

रूपसिंह च्न्देल

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

कविताएं बार- बार पढ़ने योग्य है,बहुत सुन्दर है, बधाई!