बुधवार, 11 जनवरी 2012

वाटिका – जनवरी 2012





“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक और ममता किरण की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें पढ़ चुके हैं। इसबार ‘वाटिका’ के ताज़ा अंक (जनवरी 2012) में कवयित्री उमा अर्पिता की दस कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव




उमा अर्पिता की दस कविताएँ

1
सीमा

मेरे जीवन के
प्रत्येक कोण का
केन्द्र बिन्दु
तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा
बन गया है
कितना सिमट गया है
मेरी सोच का दायरा !

2
रीतते हुए

मेरे दोनों हाथों की
मुट्ठियाँ बन्द थीं
एक में थे अनगिनत
रंगीन सपने
और दूसरे में
आशा और विश्वास के संगम का
निर्मल पानी
जिन्हें सहजे-सहेजे
पग-पग धरती
धीमे-धीमे चलती रही थी मैं…

लेकिन अचानक उठा था
न जाने कैसा तूफ़ान कि अनायास ही
खुल गई थीं मेरी मुट्ठियाँ
और बिखर गया था
एक-एक सपना
रीत गया था उँगलियों के पोरों से
आशा और विश्वास का पानी भी…

अब मेरी हथेलियों में चुभती है
उदासी, निराशा और अविश्वास की रेत
तुम्हीं कहो दोस्त –
कब तक सहनी होगी मुझे यह चुभन…?

3
सुखद सपना


बिल्लौरी काँच की
खनखनाहट-सी
तुम्हारी हँसी, जब
मेरी पलकों पर
अँगड़ाई लेने लगती है, तब
अपनेपन की मादक गंध
हमारे बीच
आकर ठहर जाती है !

इस गंध को
अपनी-अपनी साँसों में
सहेजते हुए हम
करने लगते हैं
सुखद भविष्य की कल्पना
और हमारी आँखों में
खिल उठती है
गुलाब की छोटी-सी बगिया !

4
आस्था

तुम्हें छूकर
लौटी हर नज़र
मेरी ज़िन्दगी की राह में
मील का पत्थर हो गई।

5
बदलते मौसम के साथ

वो उम्र थी
कच्ची धूप-सी
गुनगुनी, सौंधी –
जब हमन
इच्छाओं के रोएँदार
नरम ऊन को
बुनना शुरू किया था
बुना था…

और आज यथार्थ ने
हमें मज़बूर कर दिया है
अपने बुने को, अपने ही हाथों
एक-एक फंदा कर उधेड़ने को…!

दोस्त –
उम्र की धूप, जब
अकेलेपन की खोह में
उतरने लगती है
तब क्या
ऐसा ही होता है…?

6
बेमानी जीवन

न धूप खिलती है
न बदरी छाती है
जब से तुम गए हो
यहाँ कुछ भी तो नहीं होता-
जहाँ कुछ भी न घटता हो
वहाँ जीवन का
घटते चले जाना
कितना बेमानी होता है…!

7
वर्जित बोल

तुम्हारी अबोली आँखों ने भी
सीख लिया है –
अनवरत बोलना/बतियाना
तब ऐसे में
कुछ भी कहना व्यर्थ है…!
बेहतर होगा –
बिछा दी जाएँ चुप्पी की सुरंगें
क्या जानते नहीं तुम दोस्त
कि प्रेम की दुनिया में
बोल वर्जित होते हैं…!

8
मान-अभिमान

स्वाति बूँद-सी मैं
तुम्हारी सीपी-सी आँखों में
खुद को
मोती होते देख
अभिमान से भर उठती हूँ
पर जब
तुम स्वयं ही
इस शुभ्र मोती को
आँसू-सा ढुलका देते हो
तब ऐसे में
मेरे मान करने का प्रश्न ही
कहाँ शेष रह जाता है!

9
उम्र का दौर


इक उम्र
वो भी आएगी, जब
चढ़ी धूप
मुंडेर से उतर
आँगन के किसी कोने में
सिमटती/खिसकती चली जाएगी
बदलने लगेंगे शब्दों के
चीज़ों के अर्थ
बदलती जाएगी हर परिभाषा
और होने लगेगा यकीं, कि
आसमाँ छू लेना
सचमुच असंभव है…!

10
उदास रात

रात उदास है
बेहद उदास

ज़िन्दगी क्या है
महज
कब्र की-सी खामोशी…

तुम्हीं कहो दोस्त
आज की रात
दर्द को
कविता में ढालूँ
या फिर
कविता को
दर्द बन जाने दूँ…?


उमा अर्पिता
जन्म : 14 जून 1956
शिक्षा : एम ए (राजनीति शास्त्र एवं हिन्दी)
लेखन : गत 35 वर्षों से देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ, व्यंग्य व लेख आदि प्रकाशित। आकाशवाणी, नई दिल्ली के कविताओं व वार्ताओं का प्रसारण्।
प्रकाशित कृतियाँ : दो कविता संग्रह ‘धूप के गुनगुने अहसास’ (1986) और ‘कुछ सच, कुछ सपने’(2011) इसके अतिरिक्त ‘चतुरंगिनी’ काव्य संग्रह में चार कवयित्रियों में से एक। हिंदी की चर्चित कवयित्रियाँ- काव्य संग्रह में कविताएँ संकलित। कई लघुकथा संग्रहों में लघुकथाएँ संकलित।
मूल लेखन के अतिरिक्त लगभग 25 पुस्तकों का अंग्रेज़ी, उर्दू और पंजाबी से हिंदी में अनुवाद।

संप्रति : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली में हिंदी संपादक व हिंदी अधिकारी के पद पर कार्यरत।
संपर्क : 113-ए, पॉकेट-6, एम आई जी डी डी ए फ़्लैट्स, मयूर विहार, फ़ेज-3, दिल्ली-110096
ई मेल :
uma_62@hotmail.com

13 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

अर्पिता जी को पढना बेहद सुखद लगा हर रचना एक से बढकर एक है………दिल को छू गयीं।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

उमा जी की सभी कविताओं में गहरी संवेदना व्यक्त हुई है। उनकी 'उदास रात' की
'तुम्हीं कहो दोस्त
आज की रात
दर्द को
कविता में ढालूँ
या फिर
कविता को
दर्द बन जाने दूँ…?' पंक्तियाँ पढ़कर मुझे खलील जिब्रान की यह रचना अनायास ही याद आ गई--'अगर कविता लिखने की ताकत और अनलिखी कविता के रोमांच के बीच किसी एक को चुनने की छूट दी जाय तो नि:संदेह मैं रोमांच को ही चुनूँगा। यही बेहतर है। लेकिन आप और मेरे सभी जानकार इस बात से सहमत होंगे कि मैं हमेशा गलत ही चुनता आया हूँ।'
उनकी 'वर्जित बोल' का यह अंश अत्यंत प्रभावशाली है:
'क्या जानते नहीं तुम दोस्त
कि प्रेम की दुनिया में
बोल वर्जित होते हैं…!'
अच्छी कविताओं के लिए उन्हें बधाई।

भगीरथ ने कहा…

अकेलेपन और प्रेम की आकांक्ष से परिपूर्ण कविताएं

सहज साहित्य ने कहा…

उमा अर्पिता जी की सभी कविताएँ ताज़गी से ओतप्रोत हैं। पत्र-पत्रिकाओं में या तो चयन का आलस्य या अच्छी कविताओं की उपेक्षा जहाँ निराश करती है , वहीं वाटिका पर नीरव जी का चयन सदैव आश्वस्त करता है। अच्छी कविताएँ प।धवाने के लिए शुक्रिया!

Sufi ने कहा…

अच्छी रचनाएँ हैं उमा जी...बधाई..!

PRAN SHARMA ने कहा…

Seedhe - saade shabdon mein Uma
Arpita ke bhaav man ko chhoote hain lekin behad udaasee achchhee
nahin . Maine kabhee likha thaa--

Muskarahat hamaaree dekhte ho
Hum to gam mein bhee muskrate hain

ओमप्रकाश यती ने कहा…

उमा अर्पिता जी की कविताएँ भावपूर्ण और हृदयस्पर्शी हैं.....साधुवाद.

Udan Tashtari ने कहा…

सुन्दर रचनायें...अर्पिता जी को पढ़ना अच्छा लगा.

सुरेश यादव ने कहा…

उमा अर्पिता को सुन्दर और संवेदन शील कविताओं के लिए हस्र्दिक बधाई .

vidya ने कहा…

बेहतरीन कवितायेँ...
उमा जी को और सुभाष जी आपको भी
धन्यवाद..
बहुत बढ़िया ब्लॉग.
सादर..

ashok andrey ने कहा…

uma jee kee ek-ek kavita bolti see lagiin thode se shabdon men bahut kuchh keh gaeen,badhai.

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

sabhi rachna adwitiye.

प्रदीप कांत ने कहा…

तुम्हें छूकर
लौटी हर नज़र
मेरी ज़िन्दगी की राह में
मील का पत्थर हो गई।
_______________________

अकेलेपन की कविताएँ।