“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता
किरण, उमा अर्पिता, विपिन चौधरी, अंजू शर्मा और सुनीता जैन की कविताएं तथा राजेश रेड्डी,
लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें
पढ़ चुके हैं।
इस
बार ‘वाटिका’ के जनवरी 2013 अंक के लिए हमने चुनी हैं,
हिंदी की वरिष्ट कवयित्री डॉ पुष्पिता अवस्थी की दस कविताएं। पुष्पिता जी का कविता
को जीने, उसे आत्मसात करने और कागज पर उतारने का अपना अलग ही ढंग है। समकालीन
कविता में कवयित्री का नाम प्रेम कविता का पर्याय-सा बन गया है। आज मनुष्य के भीतर
की संवेदना का जिस तीव्रता से ह्रास हुआ है, उसी तीव्रता से हमारे जीवन से प्रेम
भी विलुप्त होता चला गया है। आज प्रेम के मानी बहुत बदले हुए है। आज नि:स्वार्थ
प्रेम की कल्पना करना भी दुष्कर हो गया है। प्रेम जो जीवन की धुरी है, जिसका जीवन
में होना बेहद ज़रूरी है और बेहद ज़रूरी है, मनुष्य के भीतर संवेदना को बचा कर रख
पाना। यह काम बेहतर ढंग से साहित्य, साहित्य में भी विशेषकर कविता के माध्यम से
किया जा सकता है। डॉ पुष्पिता अवस्थी वर्षों से अपनी कविता के माध्यम से यही कर
रहीं हैं। अभी हाल ही में उनकी कविताओं का
एक खूबसूरत संग्रह प्रकाशित हुआ है – “शैल प्रतिमाओं से”
जिसमें उनकी 54 कविताएं संकलित है। यह कविता संग्रह न केवल अपनी कविताओं की वजह से
विशिष्ट है, बल्कि इस बात के लिए भी विशिष्ट और गौरतलब बन पड़ा है कि इसमें हर
कविता का ‘डच’ और अंग्रेजी में अनुवाद भी शामिल है। संग्रह
की सभी कविताएं एक से बढ़कर एक हैं लेकिन मैं ‘वाटिका’ में इस संग्रह से पुष्पिता जी की दस कविताएं यहाँ
कविता प्रेमियों से नव वर्ष 2013 की शुरुआत में साझा करना चाहता हूँ ! मुझे
विश्वास है कि आप जब इन्हें पढ़ेंगे तो पसन्द किये बिना नहीं रहेंगे। मुझे यह भी
यकीन है कि ये कविताएं आपके साथ जुड़ेंगी, संवाद करेंगी और आपके साथ-साथ यात्रा भी
करेंगी। अपनी बहुमूल्य निष्पक्ष प्रतिक्रिया से यदि आप हमें अवगत कराएंगे तो हमें
अच्छा लगेगा।
-सुभाष नीरव
डॉ. पुष्पिता अवस्थी की दस कविताएँ
(1)
अनाम ‘वह’ के लिए
वह
हमेशा जागती रहती है
नदी की तरह
वह
हमेशा खड़ी रहती है
पहाड़ की तरह
वह
हमेशा चलती रहती है
हवा की तरह
वह अपने भीतर
कभी अपनी ॠतुएँ
नहीं देख पाती है
वह
अपनी ही नदी में
कभी नहीं नहा पाती है
वह
अपने ही स्वाद को
कभी नहीं चख पाती है।
(2)
मैं जानती हूँ
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
फूल जानता है गंध
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
पानी जानता है अपना
स्वाद
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
धरती जानती है जल पीना
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
फूल जानता है अपना फल,
अपना बीज
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
हवाएँ पहचानती हैं मानसूनी बादल
बादल जानते हैं धरती की प्यास
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
शब्द जानते हैं अपने अर्थ
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
पृथ्वी जानती है सृष्टि का ॠतुचक्र
ॠतुचक्र जानते हैं अपने फल, फूल, फसल
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
वर्षा पहचानती है अन्न, कीट-पतंग
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
फुनगी जानती है जड़ों की ज़रूरत
और जड़ें पहचानती हैं फुनगी की खुराक
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
बीज सूँघते हैं ॠतुओं की गंध
और पृथ्वी जानती है बीज की अकुलाहट
मैं जानती हूँ तुम्हें
जैसे
स्त्री अनुभव करती है
भ्रूण के शिशु होने का स्पंदन
जैसे
आत्मा जानती है देह की ज़रूरत
देह जानती है आत्मा का सुख।
(3)
बीज
औरत सहती रहती है
और चुप रहती है
जैसे रात
औरत सुलगती रहती है
और शांत रहती है
जैसे चिंगारी
औरत बढ़ती रहती है
सीमाओं में जीती रहती है
जैसे नदी
औरत फूलती-फलती है
पर सदा भूखी रहती है
जैसे वृक्ष
औरत झरती और बरसती रहती है
और सदैव प्यासी रहती है
जैसे बादल
औरत बनाती है घर
पर हमेशा रहती है बेघर
जैसे पक्षी
औरत बुलंद आवाज़ है
पर चुप रहती है
जैसे शब्द
औरत जन्मती है आदमी
पर गुलाम रहती है सदा
जैसे बीज।
(4)
ओठों पर शंख
कागज पर शब्द
जैसे
ओठों पर शंख
मेरा मन
तुम्हारी स्मृतियों की
जीवंत पुस्तक
ईश्वर ने
हम-दोनों में
बचाया है प्रेम
और हम-दोनों ने
प्रेम में ईश्वर…।
(5)
मेघ बूँद
नदी के
द्वीप वक्ष पर
लहरें लिख जाती हैं
नदी की हृदयाकांक्षा
जैसे मैं
सागर के
रेतीले तट पर
भंवरें लिख जाती हैं
सागर के स्वप्न भँवर
जैसे तुम
पृथ्वी के
सूने वक्ष पर
कभी ओस
कभी मेघ बूँद
लिख जाती है
तृषा-तृप्ति की
अनुपम गाथा
जैसे मैं।
(6)
अनमिट परछाईं
सूर्य को
सौंप देती हूँ तुम्हारा ताप
नदी को
चढ़ा देती हूँ तुम्हारी
शीतलता
हवाओं को
सौंप देती हूँ तुम्हारा
वसंत
फूलों को
दे आती हूँ तुम्हारा अधर
वर्ण
वृक्षों को
तुम्हारे स्पर्श की
ऊँचाई
धरती को
तुम्हारा सोंधापन
प्रकृति को
समर्पित कर आती हूँ
तुम्हारी साँसों की अनुगूँज
वाटिका में
लगा आती हूँ तुम्हारे
विश्वास का अक्षय वट
तुम्हारी छवि से
लेती हूँ अपने लिए अनमिट
परछाईं
जो तुम्हारे प्राण से
मेरे प्राण में
चुपचाप कहने आती हैं
तुम्हारी भोली अनजीवी
आकांक्षाएँ
तुम्हारे दिवस का एकांत
एकालाप
तुम्हारी रातों का एकाकी
करुण विलाप
मंदिर की मूर्ति में
दे आती हूँ तुम्हारी
आस्था
ईश्वर में
ईश्वरत्व की शक्ति भर पवित्रता
ईश्वरत्व की शक्ति भर पवित्रता
तुमसे मिलने के बाद!
(7)
स्वप्न की आँखों में स्वप्न
जल की
पारदर्शी आँखों में
नदी बनने के स्वप्न
नदी की
तरल आँखों में हैं
समुद्र बनने के स्वप्न
समुद्र की
तूफानी आँखों में हैं
बादल बनने के स्वप्न
बादल की
घुमड़ती आँखों में हैं
तृषित को तृप्त करने के
स्वप्न
मेरी
आतुर आँखों में हैं
तुम्हारे लिए स्वप्न
जैसे
पृथ्वी की आँखों में है
सुख-स्वप्न।
(8)
तुम्हारी साँसों के नाम
वे ही हैं
जो जुते हैं ज़मीन में
मेरी भूख के विरुद्ध
वे ही हैं
जो डटे हैं मिल-कारखानों में
मेरी यातना के विरुद्ध
वे ही हैं
जो लगे हैं सड़कों और रेल
पटरियों पर
सूर्य-ताप की पगड़ी बाँधे
हमारी यात्राओं के लिए
वे ही हैं
जो दे रहे हैं अपने हाथ
अपनी नींद
अपने सपने मशीनों में
हमारी हर सुविधा के लिए
वे ही हैं
जो रहते हैं
अपने जीवन का स्वर्ण सिक्का लगाए
कि कागजिया नोट के अभाव में
उन्हें नहीं मिलता
साँस बचाने के लिए शिक्षा
न सड़क पर रास्ता
न गाड़ी में सीट
न घर चलाने को नौकरी
न मरने पर कफ़न
वे ही हैं
जिन्हें मुँह होने पर भी
मुँह खोलने का अधिकार नहीं मिलता
वे ही हैं
जिनके बच्चे हमारे बच्चे पालते हैं
जिनकी औरतें हमारा घर चलाती हैं
जो हमें जीवन देते हैं
अपने जीवन की तलाश में
जैसे मेघ को चाहिए ज़मीन
ज़मीन को चाहिए बीज
बीज को चाहिए ॠतु
ॠतु को चाहिए प्रकृति
शब्द को चाहिए अर्थ
अर्थ को चाहिए जीवन
जीवन को चाहिए मनुष्य
मनुष्य को चाहिए सृष्टि प्रकृति
वे ही हैं
जो चुप रहते हैं
पर आँखों से बोलते हैं
उनके जुड़े हाथों के भीतर
हैं भेदों के सारे रहस्य
जिनकी रस्सी अगोचर है।
(9)
शब्दों में
होती है वह
शब्दों में बचाकर
रखती है वह
खुद को
शब्दों में बचाती है
वह अपनी इच्छाएँ
शब्दों में रखती है वह
अपनी संवेदनाओं का अमृत
शब्दों को वह
अपनी तिजोरी की तरह
इस्तेमाल करती है
और रखती है
प्रेम के शब्द
मन के चमकते रत्न
और देह के सिक्के
शब्दों में सहेजती है वह
अपनी साँसों की कसक
फेफड़ों में फँसी
आँसुओं की उमस
मन का अकेलापन
और संताप का दु:ख
अपने शब्दों में
वह सब कहती है
उसके शब्द बोलते नहीं
सिर्फ़ अपनी आँखें खोलते
हैं
और पारखी आँखों में
उतर जाते हैं शब्द
और शब्दों के बहाने वह
शब्दों की हथेली में
रचाती है वह प्रेम की
मेहंदी
और प्रेम में रचाती है
शब्द
शब्दों में प्रेम का
जादू
जो दिखता नहीं
पर, अनुभूतियों की रगों
में
उतर जाता है
अमृत सुख बनकर
शब्द के घर में
अर्थ बनकर रहती है वह
अपने जीवन-प्राण से
शब्दों को देती है अपने
प्राण
प्राण के प्रणय-संकल्प
अर्थ को मिलता है नव
शब्द
आत्मा के आत्मसंघर्ष से
अंतस् के बट्टनराक्षस के
लड़ता हुआ
जन्म लेता है नव शब्द
शब्दकोश से परे
जिसे वह खुद गढ़ती है
स्व से, स्व में
शायद आत्म से परे पर के
लिए
शब्दों में बचाती है वह
खुद को
और बचे हुए शब्दों में
देखती है खुद को
और उनसे ही खींचती है
प्राणतत्व
अपनी डूबती साँसों
और आँखों की रोशनी के
लिए
शब्दों में
दर्ज करती है
वह अपना बचा हुआ समय
और समय की धड़कनें
शब्दों में रखती है वह
अपनी आत्मा के शब्द
अपने ईश्वर के अंश से
रचती है वह
प्रेम के नए शब्द !
(10)
चिट्ठी से…
चिट्ठियाँ
दु:ख पूछने आएँगीं
शब्द
आँसू पोंछेंगे
आँखें
प्रेम के बैठने के लिए
शहर में
कोई पार्क…
कोई रेस्तराँ…
कोई प्लेटफॉर्म…
कोई बेंच…
कोई धँसा ढाबा…
कोना-अतरा जैसा
ठियाँ नहीं खोजेंगी
सिर्फ़ देखेंगी
कैलेंडर
तारीखें
और डाक-विभाग की तत्परता
चिट्ठियाँ
समय पार लगाएँगी
जिनके
शब्द कभी ओंठ की तरह
सिहरेंगे…काँपेंगे…सूखेंगे
शब्द कभी आह से थकी-मुंदी
आँख की तरह चुप मिलेंगे
पढ़कर आँखें जानेंगी
गीला दुख
कसकता ताप
अकेलपन का संताप
मौन का संत्रास
जो किसी से कहा नहीं जा सकता
सिवाय
चिट्ठियों के आत्मीय वक्ष से।
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पुष्पिता अवस्थी अध्यापक हैं, कवि हैं, संपादक, अनुवादक, कहानीकार, कुशल
संगठनकर्ता और हिंदी की विश्वदूत हैं यानी बहुमुखी प्रतिभा की धनी पुष्पिता जी को
किसी एक सीमा में रख पाना कठिन है। कानपुर, भारत में जन्मी पुष्पिता जी की पढ़ाई
राजघाट, वाराणसी के प्रतिष्टित जे. कृष्णमूर्ति फाउंडेशन
(बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संबद्ध) में हुई, बाद में सन 1984 से 2001 तक ये जे. कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के वसंत कॉलेज फ़ॉर विमैन के काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की अध्यक्ष भी रहीं। भारतीय दूतावास एवं भारतीय
सांस्कृतिक केन्द्र, पारामारियो, सूरीनाम में प्रथम सचिव एवं हिंदी प्रोफ़ेसर के
रूप में सन् 2001 से 2005 तक कार्य किया। सन् 2003 में सूरीनाम में सातवाँ विश्व
हिंदी सम्मेलन इन्हीं के कुशल संयोजन में संपन्न हुआ। सन् 2006 से नीदरलैंड स्थित ‘हिंदी यूनिवर्स फाउंडेशन’ की निदेशक हैं। सामाजिक
सरोकारों से गहराई से जुड़ी पुष्पिता जी ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ और स्त्री अधिकारों के लिए संघर्षरत समूहों से सक्रियता से संबद्ध रही
हैं। अपने सूरीनाम प्रवास के दौरान पुष्पिता जी ने अथक प्रयास से एक हिंदीप्रेमी
समुदाय संगठित किया जिसकी परिणति उनके द्वारा अनूदित और संपादित समकालीन सूरीनामी
लेखन के दो संग्रहों ‘कविता सूरीनाम’और
‘कहानी सूरीनाम(दोनों पुस्तकें राजकमल प्रकाशन से वर्ष
2003 में प्रकाशित) में हुई। वर्ष 2003 में ही राजकमल प्रकाशन से मोनोग्राफ़ ‘सूरीनाम’ भी प्रकाशित हुआ। इनके कविता संग्रहों ‘शब्द बनकर रहती हैं ॠतुएँ’(कथारूप 1997), ‘अक्षत’ (राधाकृष्ण प्रकाशन,2002), ‘ईश्वराशीष’(राधाकृष्ण प्रकाशन,2005) और ‘हृदय की हथेली’(राधाकृष्ण प्रकाशन 2009) तथा कहानी संग्रह ‘गोखरू’(राजकमल प्रकाशन,2002) को साहित्य प्रेमियों
द्वारा खूब सराहना मिली। वर्ष 2005 में राधाकृष्ण प्रकाशन से ‘आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ वर्ष’
एक आलोचनात्मक पुस्तक आई। हिंदी और संस्कृत के विद्वान पंडित विद्यानिवास मिश्र से
संवाद ‘सांस्कृतिक आलोक से संवाद’
वर्ष 2006 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ।
वर्ष 2009 में मेधा बुक्स से ‘अंतर्ध्वनि’ काव्य-संग्रह और अंग्रेजी अनुवाद सहित ‘रे
माधव प्रकाशन’ से ‘देववृक्ष’ का प्रकाशन हुआ। साहित्य अकादमी, दिल्ली से ‘सूरीनाम
का सृजनात्मक हिंदी साहित्य-2010’ और नेशनल बुक ट्रस्ट से ‘सूरीनाम’ वर्ष 2010 में प्रकाशित हुआ। इंडियन
इंस्टिट्यूट, एम्सटर्डम ने डिक प्लक्कर और लोडविक ब्रण्ट द्बारा डच में किए इनकी
कविताओं के अनुवाद का एक संग्रह 2008 में छापा है। नीदरलैंड के ‘अमृत’ प्रकाशन से डच अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में
2010 में ‘शैल प्रतिमाओं से’
शीर्षक से काव्य-संकलन प्रकाशित हुआ।
सम्पर्क :
Postbus 1080
1810 KB Alkmaar
Netherlands
Telephone: 0031 72 540 2005
Mobile:
0031 6 30 41 07 58
Fax: 0031 72 512 70 55
6 टिप्पणियां:
apne naye andaaj men likhii pushpita jee kii sabhii kavitaen apna achchha prabhav chhodtin hain,badhai.
पुष्पिता जी की सभी कविताएँ गहरी अनुभूति को समेटे हैं। उनकी 'शब्दों में वह' ने तो मन को मोह लिया। इससे ज्यादा कोई क्या कह सकता है! शब्द से परे तो उन्होंने जैसे कुछ छोड़ा ही नहीं। मनुष्य अगर यह समझ ले कि वह एक शब्द है तो किसी की क्या हिम्मत कि उसके अस्तित्व पर उँगली उठा सके।
सुपरिचित कवि, आलोचक ओम निश्चल जी ने डॉ पुष्पिता जी की कविताओं पर अपनी टिप्पणी मेल से मुझे भेजी है जिसे मैं नीचे दे रहा हूँ -
भाई नीरव जी
पुष्पिता जी की सारी कविताऍं पढ़ीं।
बहुत ही अच्छी प्रेम कविताऍं हैं।
इन्हें पहले भी पढ़ चुका हूँ।
शैलप्रतिमाओं से संग्रह मेरे पास है।
अन्य संग्रह भी।
कविता का एक बहुत ही कोमल संसार
पुष्पिता के यहॉं धडकता है।
बधाई वाटिका के इस अंक के लिए।
-ओम निश्चल, वाराणसी
डॉ. पुष्पिता अवस्थी की कविताएं पहले भी पढ़ी हैं और सराही हैं. वाटिका की कविताएं उनके कवि के कद के अनुरूप हैं.बेहद संवेदनशील और हृदयस्पर्शी.
डॉ. अवस्थी से मेरी मुलाकात वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी के कार्यालय में १९९० के आसपस कभी हुई थी. तब वह कहानीकार के सम्पादक डॉ. कमल गुप्त के साथ हिमांशु जी से मिलने आयी थीं.
इन कविताओं के लिए उन्हें और प्रकाशित करने के लिए तुम्हें बधाई.
रूपसिंह चन्देल
पुष्पिता अवस्थी की कविताओं में शब्द बारंबार आते हैं और हर बार जीवन को नई अर्थ-मुद्राएँ प्रदान कर कविता को और अनुभूतिमय, और अधिक जीवंत बना जाते हैं | अच्छी कविता प्रकाशन हेतु भाई सुभाष नीरव जी का आभारी हूँ |
बहुत सुन्दर रचनाएं....
सभी सीधे ह्रदय में उतरती चली गयीं....
आभार साझा करने के लिए.
सादर
अनु
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