रविवार, 21 दिसंबर 2008

वाटिका (दिसंबर 2008)

वाटिका – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कविताएँ और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी और रामकुमार कृषक की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि-ग़ज़लगो आलोक श्रीवास्तव की दस ग़ज़लें। यों तो आलोक श्रीवास्तव की ग़ज़लें हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रही हैं और सराही जाती रही हैं, लेकिन राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से वर्ष 2007 में प्रकाशित उनकी पहली कविता पुस्तक “आमीन” ने कविता के सुधी पाठकों का ध्यान विशेष रूप से अपनी ओर खींचा है। “आमीन” में संकलित ग़ज़लों, नज्मों, गीतों और दोहों से गुजरते हुए यह बात बड़ी शिद्दत से पुख़्ता होती है कि यह शायर अपने समय के यथार्थ पर गहरी नज़र रखता है और अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति बेहद जागरूक है। यही नहीं, उसमें कविता के माध्यम से अपनी बात कहने की एक अलग और अनौखी प्रतिभा विद्यमान है। “वाटिका” में प्रस्तुत ये दस चुनिंदा ग़ज़लें उनकी कविता पुस्तक “आमीन” से ही ली गई हैं।



दस ग़ज़लें - आलोक श्रीवास्तव

एक

चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा
सारे घर का शोर- शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

उसने ख़ुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अंबर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

घर में झीने-रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा

सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा

बाबूजी गुजरे घर में सारी चीज़ें तक़्सीम हुईं,तो-
मैं सबसे ख़ुशकिस्मत निकला, मेरे हिस्से आई अम्मा।

दो

घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी
सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबूजी

तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे, क़द्दावर थे बाबूजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूज़ी

भीतर से ख़ालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा, इक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी।

तीन

धड़कते, साँस लेते, रुकते, चलते, मैंने देखा है
कोई तो है जिसे अपने में पलते, मैंने देखा है

तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं
तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते, मैंने देखा है

न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है
ख़ुद अपने आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है

मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें
तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है

बदल जाएगा सब कुछ, बादलों से धूप चटखेगी,
बुझी आँखों में कोई ख़्वाब जलते, मैंने देखा है

मुझे मालूम है उनकी दुआएँ साथ चलती हैं
सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है।

चार

झिलमिलाते हुए दिन रात हमारे लेकर
कौन आया है हथेली पे’ सितारे लेकर

हम उसे आँखों की देहरी नहीं चढ़ने देते
नींद आती न अगर ख़्वाब तुम्हारे लेकर

रात लाई है सितारों से सजी कंदीलें
सरनिगूँ¹ दिन है धनक वाले नज़ारे लेकर

एक उम्मीद बड़ी दूर तलक जाती है
तेरी आवाज़ के ख़ामोश इशारे लेकर

रात, शबनम से भिगो देती है चहरा-चहरा
दिन चला आता है आँखों में शरारे लेकर

एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा
उम्र भर चलना पड़ा मुझको सहारे लेकर।
( 1- नतमस्तक )


पाँच

तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक
मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक

टूटे हुए ख़्वाबों की इक लम्बी कहानी है
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक

दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को
बेकार ही लाये हम चाहत को जुबानों तक

लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है
मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक

इक ऐसी अदालत है, जो रूह परखती है
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक

हर वक़्त फ़िजाओं में, महसूस करोगे तुम
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूँगा ज़मानों तक।


छह

अब तो ख़ुशी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा
आसूदगी¹ के नाम पे कुछ भी नही रहा

सब लोग जी रहे हैं मशीनों के दौर में
अब आदमी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

आई थी बाढ़ गाँव में, क्या-क्या न ले गई
अब तो किसी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

घर के बुजुर्ग लोगों की आँखें ही बुझ गईं
अब रौशनी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा

आए थे मीर ख़्वाब में कल डाँटकर गए-
‘क्या शायरी के नाम पे कुछ भी नहीं रहा?’
(1-प्राप्तियाँ )

सात

बूढ़ा-टपरा, टूटा छप्पर और उस पर बरसातें, सच
उसने कैसे काटी होंगी, लम्बी-लम्बी रातें, सच

लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या ?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच

कच्चे-रिश्ते, बासी-चाहत और अधूरा-अपनापन
मेरे हिस्से में आईं हैं ऐसी ही सौगातें, सच

जानें क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई हैं सपनों की बारातें, सच

धोका ख़ूब दिया है ख़ुद को झूठे-मूठे क़िस्सों से
याद मगर अब करने बैठे, याद आई हैं बातें सच।


आठ

मुद्दतों ख़ुद की कुछ ख़बर न लगे
कोई अच्छा भी इस क़दर न लगे

वो मेरा दोस्त भी है दुश्मन भी
बद्दुआ दूँ उसे मगर न लगे

मैं उसे पूजता तो हूँ लेकिन
चाहता हूँ उसे ख़बर न लगे

रास्ते में बहुत है सन्नाटा
मेरे महबूब तुझको डर न लगे

बस तुझे इस नज़र से देखा है
जिस नज़र से तुझे नज़र न लगे।


नौ

ज़रा पाने की चाहत में, बहुत कुछ छूट जाता है
नदी का साथ देता हूँ, समंदर रूठ जाता है

अजब शै हैं ये रिश्ते भी बहुत मज़बूत लगते हैं
ज़रा सी भूल से लेकिन, भरोसा टूट जाता है

तराजू के ये दो पलड़े कभी यकसाँ¹ नहीं होते
जो हिम्मत साथ देती है, मुकद्दर रूठ जाता है

गनीमत है नगर वालो, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है

गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे,
कभी मैं रूठ जाता हूँ, कभी वो रूठ जाता है

ब-मुश्किल हम मुहब्बत के दफ़ीने² खोज पाते हैं
मगर हर बार ये दौलत, सिकंदर लूट जाता है।
(1-बराबर, 2- गड़ा हुआ धन,ख़जाना)

दस

ले गया दिल में दबा कर राज़ कोई
पानियों पर लिख गया आवाज़ कोई

बाँध कर मेरे परों में मुश्किलें
हौसलों को दे गया परवाज़ कोई

नाम से जिसके मेरी पहचान है
मुझमें उस जैसा भी हो अंदाज़ कोई

जिसका तारा था वो आँखें सो गईं
अब नहीं करता मुझपे नाज़ कोई

रोज़ उसको ख़ुद के अंदर खोजना
रोज़ आना दिल से इक आवाज़ कोई।
00

आलोक श्रीवास्तव
30 दिसंबर 1971 को शाजापुर, मध्य प्रदेश में जन्म।
स्नातकोत्तर हिंदी तक शिक्षा।
शायरी, कथा-लेखन और समीक्षात्मक लेखन।
साहित्य की सभी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
कई संकलनों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विशेषांकों में रचनाएं प्रकाशित।

उर्दू के प्रतिष्ठित शायरों की काव्य-पुस्तकों का सम्पादन।
‘अक्षरपर्व’ मासिक के विशेषांक 2000 और 2002 का अतिथि-सम्पादन।

फिल्म और टी वी के लिए गीत और कथा लेखन।
मशहूर गायकों द्वारा गीत और ग़ज़ल गायन।
देश व विदेश के प्रतिष्ठित कवि-सम्मेलनों और मुशायरों में शिरकत।

ग़ज़ल के लिए वर्ष 2002 का ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’।

दिल्ली में टी वी पत्रकारिता, न्यूज़ चैनल ‘आज तक’ में प्रोड्यूसर।
स्थायी निवास : 73, रामद्वारा, विदिशा (मध्य प्रदेश)
वर्तमान पता : वी-90, सेक्टर-12, नोएडा-201301(उत्तर प्रदेश)

फोन : 098990 33337
ई मेल : aalokansh@yahoo.com
Aalok.shrivastav@aajtak.com

शुभकामनाएं !


"वाटिका" के सभी पाठकों को

क्रिसमस और नव वर्ष 2009 की

हार्दिक शुभकामनाएं !

शनिवार, 16 अगस्त 2008

दस कविताएं - रंजना श्रीवास्तव

इस पोस्ट के सभी चित्र : अवधेश मिश्र

1
ईश्वर की शर्त

वहाँ
एक आग थी
उसकी आँखों में
जहाँ धधकते थे दृश्य
और स्मृतियाँ
पछाड़ खाने के बावजूद
सूरज की लालटेन थामे
खड़ी थीं
रजस्वला हुई स्त्री की
शर्म से बेख़बर

अब वह ईश्वर के
बिल्कुल करीब थी
ईश्वर उदास था
क्योंकि वहाँ अब स्त्री नहीं थी

स्त्री होने के लिए
पानी हो जाना
ईश्वर की पहली शर्त थी।

2
ईश्वर नाराज है

वह पानी होने की
तमाम शर्तों के खिलाफ़ है
ईश्वर नाराज है
वह अपनी रफ़्तार से
दौड़ते हुए
हवा बन जाना चाहती है

धूप से चाहती है
अपने हिस्से की रोशनी
और ईश्वर से न्याय

नैतिकता की कोख से
जन्म लेकर
अनैतिक हुए ईश्वर के लिए
उसकी संवेदनाएं
नहीं छटपटातीं

वह आग के चरित्र से पूछती है
स्त्री होने के सवाल
धुआँ छटपटाता है
अपनी पीड़ाओं के
अंतिम छोर तक

आग के पास
मौन के सिवा
कुछ भी नहीं
वह जानती है…

3
मायूसियों के फूल

दु:ख जितने हरे होंगे
खिलेंगे मायूसियों के फूल

उदासी के रंगों की महक
देर तक बसी रहती है
मन-प्राणों में
बिछोह की आत्मीयता से
गले मिलते हुए सुना है कभी
साँसों की गहरी
अनुभूतियों का विलाप

समय के आइने में झांक कर देखो
सुखों की अनगिन आकृतियों के बीच
छिपी है जो
एक गहरी मुस्कान वाली परछाईं
वह तुम्हारे प्राणों पर
छाया रहने वाला सबसे कमनीय
दु:ख ही तो है।

4
मिठास के लिए ज़रूरी नहीं होता

हवा की हथेली पर
तैरते हैं सपने
वह नींद में गुनगुनाती है कोई गीत
उसकी झरने-सी हँसी
नींद के झरोखों से
खिलखिलाती है

गलती से
खुला रह गया है पिंजरा
आसमान उसकी मुटठी में है
वह रोटियों की चर्चा करते हुए
नमक के स्वाद के आख्यान में
उलझ जाती है
मिठास के लिए
ज़रूरी नहीं होता
हमेशा तैरने का सुख
अँधेरी कोठरी में भी
सूरज उगता है कभी-कभी
वह डूबने के सुख को
पीती है बूँद-बूँद

उसके चारों ओर प्रेम की
नदी बह रही है
उसे लग रहा है
वह धरती की
सबसे सुखी स्त्री है।

5
गृहस्थी

सुखों के अनगिन दृश्यों से
सजी हुई है गृहस्थी
एक खूबसूरत
पेटिंग की तरह

निर्जीव होते हुए
सजीवता से बेहद करीब
हँसी के निर्मल झरने
बहते रहते हैं रात-दिन
कितनी रंगीन शामों का
इतिहास जज्ब है
काल की दबी हुई परतों के बीच
बेहद उदास सी
टहल रही हैं
सन्नाटे की स्याह
घाटियों में
जिन्हें कोई नहीं देख पा रहा है

कितनी चीखें
अपनी कराह दबाये
सिसकियों के गहरे कुंड में
डूब जाना चाहती हैं

सबके चेहरे चमक रहे हैं
सब एक-दूसरे का रख रहे हैं ख्याल
कोई नहीं कह सकता
यहाँ दु:ख के लिए
कोई जगह बची है

पानी की तरह
बह रहा है जीवन
खुशी तैर रही है
जिस पर
कोमल और नर्म
पत्ते की तरह

रिक्त कोष्ठों के
भारी किवाड़ के पीछे
हवा सहमी-सी खड़ी है
बारिश अभी थमी हुई है
कुछ देर के लिए।

6
तुम्हारी दिव्यताओं में

मेरे हिस्से में
जैसे ठहरे हो तुम
तुम्हारे हिस्से
नहीं हूँ मैं

अबूझ है बूझे गए
मन का रहस्य
एक नाम, एक दृष्टि, एक देह
बस इतना-सा परिचय
एक चमक
जो छूकर निकल जाती है
तुम्हारी वासना की ओर

एक दृश्य
जो धुंधलाते बिम्बों का संग्रह
तुम्हारे अतीत के वैभव में
मेरी आत्मा का
निर्वसन होते जाना
तुम्हारे प्राणों से
फिसल जाना
मेरी अनुदार साँसों का

मैं एक धूप टुकड़ों में
बँटी हुई
एक काग़ज़
गलती हुई तुम्हारे पानी में
तुम्हारी दिव्यताओं में
मेरी लघुताओं का
प्रहसन हो जैसे

मैं कहीं नहीं
तुम्हारे शब्दों
तुम्हारी आत्मा के पार
विकर्षण के
पिघलते पहाड़ों से निर्मित
एक चट्टानी नदी
एक लहर
जिस पर खेलती है आग।

7
जीवन दुर्गम समीकरणों में

हम जीते हैं
अलग-अलग चेहरों के साथ
भीतर और बाहर में

एक चेहरा जब
हँस रहा होता है
उसके भीतरी सतह को
छू रही होती है कोई आग

किसी चेहरे की मद्धिम हँसी में
उसके भीतर के घाव पिघलकर
आँसू बन जाना चाहते हैं

जब कोई कह रहा होता है
कि उस पर भरोसा करें
उसके भीतर के घटित से
सर्वथा अनभिज्ञ और अनजान
होते हैं आप

संभव है
किसी चेहरे के ऊपर
छायी कठोरता में
नर्म गरमाहट वाली खुशबू
आपको अपनी अंतरंगता से
सराबोर कर दे

ऐसे ही किसी स्याह रातों में
कोई हमदर्दी भरा चेहरा
चुरा सकता है
आपकी स्वायत्तता का
सबसे प्रागैतिहासिक क्षण

और जिसे आप
अपने तजुर्बों की पंक्ति में
अपनी बिरादरी से
बहिष्कृत कर देते हैं
वही हो सकता है आपका
सबसे सगा और आत्मीय

जीवन के
दुर्गम समीकरणों में
सबसे जटिल है मनुष्य
वह अपने आप को
बेहतर ढंग से
छिपा सकता है
और छीन सकता है
औरों के चेहरे की धूप

सभ्यता की नई रोशनी में
चेहरों की हैसियत पर
उंगलियाँ उठाने में
बदनाम हैं जो लोग
उन्हें बख़्श दिया जाए
पूरी क्षमाशीलता के साथ
क्योंकि युग की आहट को
वे नहीं पहचानते

फूल के जंगल हो जाने पर
तितलियाँ कहाँ जाएंगी
निरर्थक प्रश्न है
धूप की चिन्गारियाँ
बर्फ़ में तब्दील हो रही हैं
बारिश की सूनी आँखों में
उग रही है प्यास।

8
दीवारें कितना भी बोलें

कई-कई नैतिकताओं की
दीवारें फांदकर
जन्म लेता है प्रेम
और तुम उसे
संस्कारों के घने कोहरे में
गुम होने से
बचाए रखना चाहते हो
दीवारें कितना भी बोलें
तुम अपने होने को
परिभाषित करते हुए
प्रेम के घने वृक्ष के नीचे
प्रकृति-प्रांगण में
छोड़ देते हो
देह और मन को निर्बन्ध

तभी चेतना की महीन परत को
चीर पैदा होता है
एक थरथराता हुआ सुख
जिसमें दुनिया की
तमाम सभ्यताओं की कंदीलें
एक साथ भक्क से जल उठती हैं

रोशनी और सुगन्ध के
धुएं से सराबोर
इस लम्हें में
तुम्हारे अस्तित्व का आदिम-सुख
तुम्हारी प्राणवायु के आलिंगन से
जान लेता है
अस्मिताओं के वर्चस्व की
रहस्यमयी गाथावलियाँ

इतिहास की पगडंडी पर
भविष्य के सपने के बीच
वर्तमान के इस अंतरंग पुल से
गुजरते हुए
मनुष्यता के किले में
तुम्हारे प्रवेश पर
चकित है
तुम्हारे ही भीतर का
वह अनचीन्हा आदमी
जिससे पहलीबार
मिल रहे होते हो तुम।

9
जहाँ जीवन सुगबुगाता है

छूट जाने का अहसास जब भी होता है
पकड़ती हूँ – छायाओं, दृश्यों व बिम्बों को
जहाँ जीवन सुगबुगाता है
अनास्था के काग़ज़ पर
आस्था के गीत लिख
तुम्हें गुनगुनाते हुए
रोपती हूँ तुममें ईश्वर
वहीं, जहाँ से शून्य की नदी बहती है
और सिफ़र की उदास वारदातें
अपनी हथेलियों पर
सरसों की तरह
डगराती हैं मुझे

तुम्हारा अपने आप में
मुझे छींट लेना
बो देना
गीली मिट्टी की सोंधी
महक में
और उगा लेना फिर से

अद्भुत है मेरा
पुनर्जन्म में प्रवेश
कामना के कैलाश शिखरों पर
मेरे प्राणों को
अपनी अंजुरी में रोंपते हुए
बूंद-बूंद सोखना
निर्बाध, नि:संकोच

मेरे आरम्भ !
तुममें ही विलय हैं
मेरी समस्त
गंगा-यमुनाएं !

10
पिता परंपरा थे

पिता परंपरा थे
उस परंपरा की लीक पर चलना
माँ की नैतिक जिम्मेदारी थी
ठीक वैसे ही
जैसे आग की कथा में
आग की नीतियों की बजाय
उसके जलने के स्वभाव पर
टिका होता है आग का भविष्य

पिता तय करते थे
माँ के हिस्से की रोशनी
और धुएं का वजूद
और माँ घने अंधेरे में
गुम हो जाती थीं

घर के लिए
जब भी कोई मानदंड
पिता द्वारा तय किया जाता था
माँ हमेशा पिता के पक्ष में होती थीं
पिता के पक्ष में
होते हुए भी उनके प्रतिपक्ष में
पैदा कर लेती थीं आवाज़ें

आवाज़ें बोलती थीं
माँ के मौन के गहरे समंदर में
अलग-अलग आवाज़ों के
अलग-अलग वजूद से
लिपटा था माँ का समय

माँ की अंतरंग दुनिया में
आवाज़ों से प्रतिध्वनित
शब्दों और रंगों का
एक बड़ा-सा तहखाना था
माँ का सूरज वहीं उगता था
पिता को माँ के हिस्से का
अंधेरा पसंद था
इसलिए माँ छिपा लेती थी
उनसे
अपने हिस्से की रोशनी।
00


रंजना श्रीवास्तव
शिक्षा : एम ए, बी एड ।
जन्म : गाज़ीपुर(उत्तर प्रदेश)
प्रकाशित पुस्तकें : ‘चाहत धूप के टुकड़े की’, ‘सक्षम थीं लालटेनें’(कविता संग्रह), ‘आईना-ए-रूह’(ग़ज़ल संग्रह)

संपादन : ‘सृजन-पथ’(साहित्यिक पत्रिका)

पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध। हिन्दी की प्रतिष्ठित लघु पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियाँ, समीक्षाएं एवं स्त्री विषयक लेख प्रकाशित।
सम्मान : ‘चाहत धूप के टुकड़े की’ कविता संग्रह पर सिलीगुड़ी गौरव सम्मान, उत्तर बंग नाट्य जगत से विशिष्ट कविता लेखन के लिए सम्मानित। हल्का-ए-तामीर-ए-अदब(मऊ आइमा), इलाहाबाद से महती सेवाओं हेतु प्रशस्ति पत्र।
संपर्क : श्रीपल्ली, लेन नंबर 2, पी ओ – सिलीगुड़ी बाज़ार, जिला- सिलीगुड़ी(पश्चिम बंगाल)-734 005

फोन : 09933946886
ई-मेल : ranjananishant@yahoo.co.in

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

दस कविताएं– भगवत रावत

1
चिड़ियों को पता नहीं

चिड़ियों को पता नहीं कि वे
कितनी तेज़ी से प्रवेश कर रही हैं
कविताओं में।

इन अपने दिनों में खासकर
उन्हें चहचहाना था
उड़ानें भरनी थीं
और घंटों गरदन में चोंच डाले
गुमसुम बैठकर
अपने अंडे सेने थे।

मैं देखता हूँ कि वे
अक्सर आती हैं
बेदर डरी हुईं
पंख फड़फड़ाती
आहत
या अक्सर मरी हुईं।

उन्हें नहीं पता था कि
कविताओं तक आते-आते
वे चिड़ियाँ नहीं रह जातीं
वे नहीं जानतीं कि उनके भरोसे
कितना कुछ हो पा रहा है
और उनके रहते हुए
कितना कुछ ठहरा हुआ है।

अभी जब वे अचानक उड़ेंगी
तो आसमान उतना नहीं रह जाएगा
और जब वे उतरेंगी
तो पेड़ हवा हो जाएंगे।

मैं सारी चिड़ियों को इकट्ठा करके
उनकी ही बोली में कहना चाहता हूँ
कि यह बहुत अच्छा है
कि तुम्हें कुछ नहीं पता।

तुम हमेशा की तरह
कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो
चहचहाओ
और बेखटके
आलमारी में रखी किताबों के ऊपर
घोंसले बनाकर
अपने अंडे सेओ।

न सही कविता में
पर हर रोज़
पेड़ से उतरकर
घर में
दो-चार बार
ज़रूर आओ-जाओ।
0

2
थक चुकी है वह

इतनी थक चुकी है वह
प्यार उसके बस का नहीं रहा
पैंतीस बरस के
उसके शरीर की तरह
जो पैंतीस बरस-सा नहीं रहा

घर के अंदर
रोज़ सुबह से वह
लड़ती-झगड़ती है बाज़ार से
और बाज़ार में रोज़ शाम
घर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते खो जाती है।

रोटी बेलते वक्त अक्सर वह
बटन टाँक रही होती है
और कपड़े फींचते वक्त
सुखा रही होती है धूप में
अधपके बाल।

फिरकी-सी फिरती रहती है
पगलायी वह
बच्चों को डाँटती-फटकारती
और बिना बच्चों के सूने घर में
बेहद घबरा जाती है।

कितना थक चुकी है वह ।

मैं उसे एक दिन
घुमाने ले जाना चाहता हूँ
बाहर
दूर...
घर से बाज़ार से
खाने से कपड़ों से
उसकी असमय उम्र से।
0

3
चट्टानें

चारों ओर फैली हुईं
स्थिर और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।

चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने आपको
उठता है और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूँधता है।

आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।

अंत में आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी तरह बेख़बर
चट्टानें पहली बार अपने बीच से
कुछ गुजरता हुआ
महसूस करती हैं।
0

4
करुणा

सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं
न चन्द्रमा की ठंडक में
लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है
कि दुनिया में
करुणा की कमी पड़ गई है।

इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ़ पिघल नहीं रही
नदियाँ बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे
चिड़ियाँ गा नहीं रहीं, गायें रँभा नहीं रहीं।

कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं
कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके
और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके।

दरअसल पानी से होकर देखो
तभी दुनिया पानीदार रहती है
उसमें पानी के गुण समा जाते हैं
वरना कोरी आँखों से कौन कितना देख पाता है।

पता नहीं
आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए
कैसी हवा कैसा पानी चाहिए
पर इतना तो तय है
कि इस समय दुनिया को
ढेर सारी करुणा चाहिए।
0

5
किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएं
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलाँघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराये।

जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्किल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान !
0

6
लौटना

दिन भर की थकान के बाद
घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग
भले लगते हैं।

दिन भर की उड़ान के बाद
घोंसलों की तरफ लौटतीं चिडियाँ
सुहानी लगती हैं।

लेकिन जब
धर्म की तरफ़ लौटते हैं लोग
इतिहास की तरफ़ लौटते हैं लोग
तो वे ही
धर्म और इतिहास के
हत्यारे बन जाते हैं।

ऐसे समय में
सबसे ज्यादा दुखी और परेशान
होते हैं सिर्फ़
घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग
घोंसलों की तरफ़ लौटती हुई
चिडि़याँ।
0

7
पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों

पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों
यह अचरज की बात नहीं तो और क्या
कि आपकी बेटी के ब्याह में आपके बचपन का
कोई दोस्त अचानक आपकी बगल में
आकर खड़ा हो जाए।

न कोई रिश्तेदारी, न कोई मतलब
न कुछ लेना-देना, न चिट्ठी-पत्री
न कोई ख़बर
न कोई सेठ, न साहूकार
एक साधारण-सा आदमी
पाटता तीस-पैंतीस से भी ज्यादा बरसों की दूरी
खोजता-खोजता, पूछता-पूछता घर-मोहल्ला
वह भी अकेला नहीं, पत्नी को साथ लिए
सिर्फ़ दोस्त की बेटी के ब्याह में शामिल होने चला आया।

मैंने तो यूँ ही डाल दिया था निमंत्रण-पत्र
याद रहे आए पते पर जैसे एक
रख आते हैं हम गणेश जी के भी पास
कहते हैं बस इतना-सा करने से
सब काम निर्विघ्न निबट जाते हैं।

खड़े रहे हम दोनों थोड़ी देर तक
एक दूसरे का मुँह देखते
देखते एक दूसरे के चेहरे पर उग आई झुर्रियाँ
रोकते-रोकते अपने-अपने अन्दर की रुलाई
हम हँस पड़े
इस तरह गले मिले
मैं लिए-लिए फिरता रहा उसे
मिलवाता एक-एक से, बताता जैसे सबको
देखो ऐसा होता है
बचपन का दोस्त।

तभी किसी सयाने ने ले जाकर अलग एक कोने में
कान में कहा मेरे
बस, बहुत हो गया, ये क्या बचपना करते हो
रिश्तेदारों पर भी ध्यान दो
लड़की वाले हो, बारात लेकर नहीं जा रहे कहीं।

फिर ज़रा फुसफुसाती आवाज़ में बोले
मंडप के नीचे लड़की का कोई मामा आया नहीं
जाओ, मनाओ उन्हें
और वे तुम्हारे बहनोई तिवारी जी
जाने किस बात पर मुँह फुलाए बैठे हैं।


तब टूटा मेरा ध्यान और यकायक लगा
कैसी होती है बासठ की उम्र और कैसा होता है
इस उम्र में तीसरी बेटी को ब्याहना।

खा-पीकर चले गए रिश्तेदार
मान-मनौवले के बाद बड़े-बूढ़े मानदान
ऊँचे घरों वाले चले गए अपनी-अपनी घोड़ा गाडि़यों
और तलवारों-भालों की शान के साथ।

बेटी को विदा कर रह गया अकेला मैं
चाहता था थोड़ी देर और रहना बिलकुल अकेला
तभी दोस्त ने हाथ रखा कंधे पर
और चुपचाप अपना बीड़ी का बंडल
बढ़ा दिया मेरी तरफ़
और मेरे मुँह से निकलते-निकलते रह गया
अरे, तू कब आया ?
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8
जब कहीं चोट लगती है

जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह
दूर छूट गए पुराने दोस्त याद आते हैं।

पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं
सिर्फ़ हम उन्हें छोड़कर निकल आते हैं उनसे बाहर।

जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे
तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना
कनेर का पेड़ याद आता है।

देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक
तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आंगन याद आता है
मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है
बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है।

हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से लगा लेते हैं
हम उनके कन्धे पर सिर रखकर रोना चाहते हैं
वे हमें रोने नहीं देते।

और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है
उसे हम कभी देख नहीं पाते।
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9
हमने उनके घर देखे

हमने उनके घर देखे
घर के भीतर घर देखे
घर के भी तलघर देखे
हमने उनके
डर देखे।
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10
वह कुछ हो जाना चाहता है

तमाम उम्र से आसपास खड़े हुए
लोगों के बीच
वह एक बड़ी कुर्सी हो जाना चाहता है
अन्दर ही अन्दर
पल-पल
घंटी की तरह बजना चाहता है
फोन की तरह घनघनाना चाहता है
सामने खड़े आदमी को
उसके नंबर की मार्फ़त
पहचानना चाहता है
वह हर झुकी आँख में
दस्तख़्त हो जाना चाहता है
हर लिखे काग़ज़ पर
पेपरवेट की तरह बैठ जाना चाहता है
वह कुछ हो जाना चाहता है।
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जन्म : 13 सितम्बर 1939, जिला–टीकमगढ़, मध्यप्रदेश।
शिक्षा : एम.ए. बी.एड।
1983 से 1994 तक हिन्दी के रीडर पद पर कार्य के बाद दो वर्ष तक ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के संचालक। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानिविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष। साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश परिषद् के निदेशक रहे एवं मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – समुद्र के बारे में(1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह(1988), सुनो हिरामन(1992), सच पूछो तो(1996), बिथ-कथा(1997), हमने उनके घर देखे(2001), ऐसी कैसी नींद(2004), निर्वाचित कविताएं(2004)। आलोचना– कविता का दूसरा पाठ(1993)। मराठी, बंगला, उडि़या, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में कविताएं अनूदित।
सम्मान : दुष्यंत कुमार पुरस्कार(1979), वागीश्वरी पुरस्कार(1989), शिखर सम्मान(1997–98)
सम्पर्क : 129, आराधना नगर, भोपाल–462 003
फोन : 0755–2773945

शनिवार, 28 जून 2008

दस कविताएं - हरकीरत कलसी ‘हक़ीर’



(1) अब धूप पिंजरे में बंद रहती है

वह धूप थी
सुबह की कोमल
कच्ची प्यारी-सी धूप
गुलाबी, गुदगुदी
दिल को छू लेनेवाली धूप
शर्म से लिपटी
छुई-मुई-सी धूप
गुलाबी सलवार-कुरते में लिपटी
अल्हड़ प्यारी-सी धूप
सरोवर में खिले
गुलाबी कमल-सी धूप
वह धूप हर जवां दिल की चाहत थी।

इक दिन धूप ने सुर्ख़ चुनरी ओढ़ी
और सदा के लिए
इक घर के आंगन में खिल गई
अब धूप पराई थी
इक गहरी पीड़ा और टीस लिए सूरज
अपने घर लौट आया
इक दिन शाम के वक्त
सूरज ने इक टूटता तारा
क्षितिज में विलीन होते देखा
‘तारे का टूटना शुभ नहीं होता’
उसने गंभीर नज़रों से
धूप की आँखों में देखा
‘उसकी आँखों में यातना नाच रही थी’
अब धूप पिंजरे में बंद थी।

फाटक पर लगे बड़े-बड़े ताले अक्सर
उसकी बेबसी और बेकसी का उपहास करते
और एक कर्कश स्वर
उसकी बची-खुची चेतना को भी शून्य कर देता
वह घबरा उठती
भागना चाहती
छिपना चाहती
रोना चाहती
पर न कोई कांधा था
न उसके पास – पर।

बदन पर सजा सुर्ख़ जोड़ा
उसके पैरों की बेड़ियाँ बन अट्टहास कर उठता
हा... हा... हा...
और वह अपने दोनों हाथ
कानों पर रख सिसक उठती।

धीरे-धीरे
इक पर कटे परिंदे की तरह
जीना सीख लिया था उसने।

आज उस घर की विशाल दीवारों से
स्नेह है उसे
अकेले में वह उन्हें सहलाती है, दुलराती है
आलिंगन में लेकर घंटों बातें करती है।

जंगले पर लगे
बड़े-बड़े तालों को चूमकर उसने
अपने होठों पे अंकित कर लिया है
अब धूप की आहें
होठों के तालों के अंदर बंद रहती हैं

अब धूप पिंजरे में बंद रहती है।


(2) ये कैसा कुफ़्र तोल दिया ?

मैं पत्थरों की सेज पे बैठी
ग़मों की सुइयाँ समेटती रही
रात बेबसी की चादर ओढ़े
मेरे सपनों से खेलती रही

इक धुआं तैरता रहा हवा में
और इक मेरे ज़हन में
इक आग छातियों में मेरी
चूल्हे-सी जलती रही

ये कैसी चुप्पी है या रब्ब !
ये कैसी खामोशी है ?
हर्फ़ घुलते रहे पन्नों में
कलम दर्द उगलती रही

ये कैसा अब्र¹ फट पड़ा अय खुदा !
ये कैसा कुफ्र तोल दिया
खूं टपकता रहा आसमां से
और धरती बूँद भर आब² को तरसती रही।
––––––––––––––
1- बादल 2-पानी


(3) खुले जख़्म

आज नज्मों ने टाँका छेड़ा
और तोहमत लगा दी
भूल जाने की

मैंने जख़्मों की पट्टी
खोल दी और कहा–
देख दर्दे-आश्ना
मेरा हर रिसता जख़्म
तेरी रहमतों का मेहरबां है

नज्मों ने मुस्करा के
मेरे हाथों से पट्टी छीन ली–
तो फिर इन्हें खुला रख
तेरी हर टीस पे
मेरे हर्फ़ बोलते हैं...

अब मैं अपने जख़्मों को
खुला रखती हूँ
और मेरी हर टीस
नज्म बन पन्नों पर
सिसक उठती है।

(4) कौन है यह ?

कौन है यह
तन्हा–
किसी कैक्टस पर
उग आए गुल की तरह
अफ़्सुर्द¹ यूँ
जैसे मरघट पे छाया हो मातम।

है कोई दर्द का सैलाब ?
या ईजा-ए-नज्म² की कोई किताब ?
या इसे लाइलाज अलालत³ है कोई ?
या किसी रहनुमा से
जलाए जाने का है इंतजार ?

कौन है यह ?
शायद खुदा की इस्तेहजा† है कोई ?
या नामुराद ने पायी है
पिछले जन्म की सजा कोई ?
या पुरदर्द चीख है ?
या आसमां को बेंधता
बुलंद क़हक़हा को ?
या मील पर पड़ा वह पत्थर है
जिस पर लोग अक्सर
अपना जोर आजमाना चाहते हैं ?

कौन है यह ?
मजबूरियों, लाचारियों, जिल्लतों का कोई नाम ?
या दासता, गुलामी, क़हरों से दबी कोई बदबख्त’* ?
या है वह हाथ जिस पर कभी रंग
जमा पायी न हिना ?
या तूफां को झेलती एक अकेली है शमा ?
या कोरे कागज़ पर लिखा कोई पैगाम है ?
जिसे पढ़ पाना मेरे लिए है दुश्वार
कौन है यह ?
कौन है यह ?
––––––––––––––
1–उदास 2–दर्द से भरी 3–रोग †मजाक * बदकिस्मत


(5) अचानक

कितने हादसे
कितने वाक़िअ
ज़िन्दगी से गुजर जाते हैं
अचानक।

रिश्ते
मुकम्मल भी
नहीं हो पाते
और टूट जाते हैं
अचानक।

मुहब्बत
परवान भी नहीं चढ़ती
और जुदाई की
घड़ी आ जाती है
अचानक।


खुशी के बदले
ता-उम्र का गम
दर्द का दामन भी
छोटा पड़ जाता है
अचानक।


न जीने की आरजू
न मौत की चाह
खूबसूरत सी ज़िन्दगी
वीरान हो जाती है
अचानक।

(6) ज़रूरत

कल मैंने
सिसकियों की आवाज़ सुनी
बरसों से मौन पड़े
इक पत्थर की
रात के अंधेरे में मैं
उस पत्थर को
आगोश में लेकर
देर तक रोती रही
लगा–
वह मोम-सा पिघल गया है
और मुझमें कुछ
पाषाणता आ गई है
शायद–
हम दोनों को ही
इक-दूसरे की
ज़रूरत थी।


(7) आज फिर साथ रहे तन्हाई में

कुछ आहें
दर्द
और ग़म

कुछ लफ़्ज
अक्स
औ’ रंज

इक हूक
बेकरारी
औ’ खामोशी

इक वीरानी
उदासी
औ’ बेकसी

कुछ अश्क
प्याले
औ’ मय

आज फिर
साथ रहे
तन्हाई में।



(8) ये शब्द

चारों तरफ
नज़र उठाकर देखती हूँ
तो दूर तक
रेत ही रेत नज़र आती है

मैं जीने के लिए
अपने ही तरीकों से
हल ढूँढ़ती रही
और वक्त ने
मेरे तक़दीर के अंधेरों को
और गहरा कर दिया

वही सवाल
और वही जवाब
देते-देते
मेरे ही कहे शब्दों का
हर दिन
इक नया अर्थ
निकलता रहा

और मैं रफ़्ता-रफ़्ता
अपने ही कहे
शब्दों के जाल में
उलझती रही

आह !
कभी-कभी ये शब्द भी
जीवन को कितना
बेबस और बेजां
बना देते हैं।

(9) प्रत्युत्तर

तुम्हारी छटपटाहट
और अंगार बरसती आँखों से
कहीं लोहित का जल
रक्तरंजित न हो जाए
ऐ कवि
इससे पहले कि
तुम्हारी कलम
शब्दों की जगह
बारूद उगलने लगे
मैं–
तुम्हारे समय का
प्रत्युत्तर बन
तुम्हें–
तेज धूप से
छांव की ओर ले जाना चाहती हूँ।

जानते हो ?
मैं समुद्र तट पर बैठकर
कई बार चीखी हूँ
चिल्लाई हूँ–
‘सिन्धु की एक बूँद !
ठहर !
मेरी बात सुन जा’
पर वह
नहीं ठहरती
नहीं सुनती

समय
परिवर्तनशील है
इसे तुम भी
मानते हो
फिर क्यों बहते हो
भावनाओं में ?
देखना इक दिन
इसी बारूद की गंध से
उपजा नवअंकुर
इ​त्तिहाद¹ का
सन्देश लेकर आएगा।
–––––––––––––
1–एकता।


(10) संबंधों के काँपते पत्ते

जब भी मैंने
तन्हाई में आवाज़ लगाई
मेरी आवाज़
पत्थरों से टकराकर
आसमान में गुम हो गई।

जानती हूँ
आसमान बहुत बड़ा है
जहाँ–
मेरी भावनाओं
मेरे जज्बातों की कोई जगह नहीं
और फिर तुम तो
अवसरवादी थे
जज्बातों और भावनाओं से परे
समय के साथ चलने वाले।

समय और तुम
कभी मेरे साथ नहीं चल पाए
न ही मैं
समय और तुम्हारे साथ चल पाई
जब कभी
हमारे विचार टकराते
संबंधों के पत्ते काँपने लगते
और फिर–
इक मंथन चलता
घमासान मानसिक मंथन
नहीं जानती
निष्कर्ष क्या निकलेगा
विष या अमृत ?

शायद, किसी दिन आँधी आए
और ये काँपते पत्ते कहीं दूर जा गिरें
पर इतना तो तय है
गिरने के बाद
इन सूखे पत्तों में
इक असीम सुकून होगा
ये पलटकर तुम्हें
आवाज़ न देंगे
और न ही
मौसम बदलने का इंतज़ार करेंगे।

शायद, हवा का कोई झोंका
इन्हें उड़ा कर
किसी के आँगन में ला गिराए
और कोई इन्हें
प्यार से सहेज कर
अपनी किताबों में रख ले
उन किताबों में
जिनमें–
‘शीरी’ और ‘फरिहाद’ की कहानी हो ?
‘लैला’ और ‘मजनूं की कहानी हो ?
और उनके प्रेम के स्पर्श से
इन पत्तों में
फिर से नूर आ जाए ?

सुनो !
पानी अगर बहता नहीं
तो सड़ जाता है
मैं सड़ना नहीं चाहती
ठहरना भी नहीं चाहती
बहना चाहती हूँ
सरल,साफ, निश्छल
अपने निर्मल जल से
किसी को सींचना चाहती हूँ
मुझे बहना है
अपने आप को
सड़ने से बचाने के लिए
मुझे बहना है
अपने आप को
मरने से बचाने के लिए।

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जन्म : 31 अगस्त (असम)
शिक्षा : एम.ए. , डी.सी.एच
देशभर की विभिन्न छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर कविताओं का प्रसारण। हिंदी और पंजाबी में लेख, कहानियाँ, कविताओं का स्वतंत्र लेखन। असमिया और पंजाबी से हिंदी में अनुवाद कार्य भी। पहला कविता संग्रह “इक दर्द” वर्ष 2007 में प्रकाशित।

संपर्क : 18 ईस्ट लेन, सुन्दरपुर,
हाउस नं0 5, गुवाहाटी–5, असम।

दूरभाष : 09864171300
ई मेल :
mail4u2harbi@yahoo.com

मंगलवार, 20 मई 2008

दस ग़ज़लें – रामकुमार कृषक

इस पोस्ट के सभी चित्र : अवधेश मिश्र

एक


चेहरे तो मायूस मुखौटों पर मुस्कानें दुनिया की
शो-केसों में सजी हुईं खाली दुकानें दुनिया की

यों तो जीवन के कालिज में हमने भी कम नहीं पढ़ा
फिर भी सीख न पाए हम कुछ खास जुबानें दुनिया की

हमने आँखें आसमान में रख दीं खुल कर देखेंगे
कंधों से कंधों पर लेकिन हुईं उड़ानें दुनिया की

इन्क़लाब के कारण हमने जमकर ज़िन्दाबाद किया
पड़ीं भांजनी तलवारों के भ्रम में म्यानें दुनिया की

हमने जो भी किया समझवालों को समझ नहीं आया
खुद पर तेल छिड़ककर निकले आग बुझाने दुनिया की

बड़े-बड़े दिग्गज राहों पर सूँड घुमाते घूम रहे
अपनी ही हस्ती पहचानें या पहचानें दुनिया की

फूट पसीना रोआँ-रोआँ हम पर हँसता कहता है
क्या खुद को ही दफनाने को खोदीं खानें दुनिया की
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दो


घेर कर आकाश उनको पर दिए होंगे
राहतों पर दस्तख़त यों कर दिए होंगे

तोंद के गोदाम कर लबरेज़ पहले
वायदों से पेट खाली भर दिए होंगे

सिल्क खादी और आज़ादी पहनकर
कुछ बुतों को चीथड़े सी कर दिए होंगे

हों न बदसूरत कहीं बँगले-बगीचे
बेघरों को जंगलों में घर दिए होंगे

प्रश्नचिह्नों पर उलट सारी दवातें
जो गए-बीते वो संवत्सर दिए होंगे

गोलियाँ खाने की सच्ची सीख देकर
फिर तरक्क़ी के नए अवसर दिए होंगे

तीन


आज तो मन अनमना गाता नहीं
खुद बहल औरों को बहलाता नहीं

आदमी मिलना बहुत मुश्किल हुआ
और मिलता है तो रह पाता नहीं

गलतियों पर गलतियाँ करते सभी
गलतियों पर कोई पछताता नहीं

दूसरों के नंगपन पर आँख है
दूसरों की आँख सह पाता नहीं

मालियों की भीड़ तो हर ओर है
किंतु कोई फूल गंधाता नहीं

सामने है रास्ता सबके मगर
रास्ता तो खुद कहीं जाता नहीं

धमनियों में खून के बदले धुआँ
हड्डियाँ क्यों कोई दहकाता नहीं

चार

हमने खुद को नकार कर देखा
आप अपने से हार कर देखा

जब भी आकाश हो गया बहरा
खुद में खुद को पुकार कर देखा

उनका निर्माण-शिल्प भी हमने
अपना खंडहर बुहार कर देखा

लोग पानी से गुज़रते हमने
सिर से पानी गुजार कर देखा

हमने इस तौर मुखौटे देखे
अपना चेहरा उतार कर देखा

पांच


आइए गांव की कुछ ख़बर ले चलें
आँख भर अपना घर खंडहर ले चलें

धूल सिंदूर-सी थी कभी माँग में
आज विधवा-सरीखी डगर ले चलें

लाज लिपटी हुई भंगिमाएँ कहाँ
पुतलियों में बसा एक डर ले चलें

एक सुबहा सुबकती-सिमटती हुई
साँझ होती हुई दोपहर ले चलें

देह पर रोज़ आँकी गई सुर्खियाँ
चीथड़े खून से तर-ब-तर ले चलें

राम को तो सिया मिल ही मिल जाएगी
मिल सकें तो जटायु के पर ले चलें

खेत-सीवान हों या कि हों सरहदें
चाक होते हुए सब्ज़ सिर ले चलें

राजहंसों को पाएँ न पाएँ तो क्या
संग उजड़ा हुआ मानसर ले चलें

देश दिल्ली की अँगुली पकड़ चल चुका
गाँव से पूछ लें अब किधर ले चलें

छह


आगाज़ अगर हो तो अंजाम तलक पहुँचें
कुछ इल्म मयस्सर हो,इहलाम तलक पहुँचें

सरनाम बस्तियों में दरिया नहीं है कोई
दरिया-ए-दिल मिलेंगे बेनाम तलक पहुँचें

रिंदों में सूफि़याना कुछ ढोंग भले कर लें
महफि़ल हो सूफि़यों की हम जाम तलक पहुँचें

तालाश नए घर की भटके हुए नहीं हैं
यह बात दूसरी है हम शाम तलक पहुँचें

केवल कहानियाँ ही कुर्बानियाँ नहीं हैं
पैग़ाम जिएँ मिटकर पैग़ाम तलक पहुँचें

सात


ऊँची कुर्सी काला चोगा यही कचहरी है
कोलाहल दीवारों जैसा चुप्पी गहरी है

चश्मा, टाई, कोट बगल में कुछ अंधीं आँखें
जिरह करेंगी देहातों से भाषा शहरी है

कहीं-कहीं पागें-टोपी सिर नंगे कहीं-कहीं
कहीं किसी सूरज के सिर पर छाया ठहरी है

नज़र एक-सी जिनकी उनको दुनिया खुदा कहे
यहाँ खुदा ऐसे हैं जिनकी नज़र इकहरी है

मकड़ी का जाला तो मकड़ी का घर-द्वारा है
मच्छर के डर से मानुष के लिए मसहरी है

ये कैसी अनबन चंदनवन ये आखिर कैसा
किसने विष ऐसा बांटा हर फीता ज़हरी है

आठ


ये खता तो हो गई है, की नहीं है जानकर
माफ भी कर दीजिए अब आप अपना मानकर

हम तो नदियों के किनारों पर पले, पीते रहे
आप ही दरअस्ल पीना जानते हैं छानकर

आपके हाथों की मेंहदी तो नुमाइश के लिए
हमने चूमे हाथ वो आए जो गोबर सानकर

जीतकर भी आपकी ही हार से बेचैन हम
आप हैं बैठे हुए हैं दुश्मनी-सी ठानकर

इस शहर में ठीक थे महफूज़ थे हम कल तलक
अब बहुत खतरे में लेकिन आपको पहचानकर

नौ

बतलाए देते हैं यूँ तो बतलाने की बात नहीं
खलिहानों पर बरस गए वो खेतों पर बरसात नहीं

नदियाँ रोकीं बांध बनाकर अपना घर-आंगन सींचा
औरों के घर डूबे फिर भी उनका कोई हाथ नहीं

धरती नापें तीन पगों में किले-कोठियों वाले लोग
जिनका राज-सुराज ख्वाब में भी उनके फुटपाथ नहीं

हुए धरम-पशु अपने-अपने धरम-गुरू तो चीज़ बड़ी
जिनके मंदिर-मस्जिद उनकी कोई जात-कुजात नहीं

कई बार देखा-परखा है हाथ मिला हमने उनको
वे तो उदघाटनकर्ता हैं, नींव रखें औकात नहीं

दस


बाखबर हम हैं मगर अखबार नहीं हैं
बाकलम खुद हैं मगर मुख्तार नहीं हैं

क्या कहा हमने भला इक शेर कह डाला अगर
कट गए वो और हम तलवार नहीं हैं

आप ही तो साथ थे अब आपको हम क्या कहें
जानते हैं रास्ते बटमार नहीं हैं

डूबिएगा शौक से हम तो डुबाने से रहे
हम नदी की धार हैं, मझधार नहीं हैं

आप चीज़ें चाहते हैं आपकी औकात है
हम कहीं तक शामिले-बाज़ार नहीं हैं

आज तक सूरज हमारी देहरी उतरा नहीं
चाहतों में हैं मगर स्वीकार नहीं हैं
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वरिष्ठ कवि और ग़ज़लकार रामकुमार कृषक का जन्म 1 अक्टूबर 1943 को मुरादाबाद के गुलड़िया (पो. अमरोहा) उत्तर प्रदेश में हुआ था. आप हिन्दी में एम.ए. और साहित्यत्न हैं. कृषक जी की अब तक प्रकाशित कृतियां हैं: बापू(1969), ज्योति (1972), सुर्खियों के स्याह चेहरे (1977), नीम की पत्तियां(1984), फिर वही आकाश (1991), आदमी के नाम पर मज़हब नहीं(1991), मैं हूं हिंदुस्तान (1998) और, लौट आएंगी आंखें (2002) कविता पुस्तकें . एक कहानी संग्रह – नमक की डलियाँ (1980) और बच्चों तथा नवसाक्षरों के लिए सात अन्य पुस्तकें 'कर्मवाची शील" नामक संपादित कृति. 'अपजस अपने नाम' (शीघ्र प्रकाश्य गज़ल संग्रह). इसके अतिरिक्त विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी. जन संस्कृति मंच की दिल्ली इकाई के संस्थापक सदस्य. अनेक महत्वपूर्ण काव्य संग्रहों और पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित. हिन्दी अकादमी, दिल्ली सहित कुछ अन्य संस्थाओं से पुरस्कृत - सम्मानित. 'अलाव' और 'नई पौध’ पत्रिकाओं का सम्पादन और प्रकाशन.

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