शुक्रवार, 7 मार्च 2008

वाटिका- मार्च 2008

दस ग़ज़लें – लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

1



पूछा था रात मैंने ये पागल चकोर से
पैगाम कोई आया है चन्दा की ओर से

बरसों हुए मिला था अचानक कभी कहीं
अब तक बंधा हुआ है जो यादों की डोर से

मुझको तो सिर्फ उसकी ख़ामोशी का था पता
हैरां हूँ पास आ के समंदर के शोर से

मैं चौंकता हूँ जब भी नज़र आए है कोई
इस दौर में भी हंसते हुए ज़ोर ज़ोर से

ये क्या हुआ है उम्र के अंतिम पड़ाव पर
माज़ी को देखता हूँ मैं बचपन के छोर से

2


टूटते लोगों को उम्मीदें नयी देते हुए
लोग हैं कुछ, ज़िंदगी को, ज़िंदगी देते हुए

नूर की बारिश में, जैसे, भीगता जाता है मन
एक पल को भी, किसी को, इक ख़ुशी देते हुए

याद बरबस आ गई माँ, मैंने देखा जब कभी
मोमबत्ती को पिघल कर, रोशनी देते हुए

आज के इस दौर में मिलते है ऐसे भी चिराग़
रोशनी देने के बदले, तीरगी देते हुए

इक अमावस पर ये मैंने रात के मुँह से सुना
चाँद बूढ़ा हो चला है, चाँदनी देते हुए

3


जब भी वीरान सा, ख्वाबों का नगर लगता है
कितना दुश्वार, ये जीवन का सफर लगता है

इक ज़माने में, बुरा होगा फ़रेबी होना
आज के दौर में, ये एक हुनर लगता है

कैसा चेहरा ये दिया, आदमी को शहरों ने
कोई हमदर्दी भी जतलाए, तो डर लगता है

जिसकी हर ईंट, जुटायी थी लहू से अपने
कितना बेगाना, उसे अपना वो घर लगता है

भोलापन तुझमें, वही ढूँढ़ रही हैं नज़रें
अब मगर तुझपे ज़माने का असर लगता है

हम तो हर आंसू को शब्दों में बदल देते हैं
बस यही लोगों को, ग़ज़लों का हुनर लगता है

यूं कड़ी धूप में लिपटाया छांव से मुझको
माँ के आँचल सा ये अनजान शजर लगता है

4


न जाने चाँद पूनम का, ये क्या जादू चलाता है
कि पागल हो रहीं लहरें, समुन्दर कसमसाता है

हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है
ये सबको कैसे समझाएं कि तुमसे कैसा नाता है

ज़रा सी परवरिश भी चाहिए हर एक रिश्ते को
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है

ये मेरे और ग़म के बीच में किस्सा है बरसों से
मैं उसको आज़माता हूँ वो मुझको आज़माता है

जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था
वही बेटा बड़ा होकर सबक़ मुझको पढ़ाता है

नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है
मरूस्थल छोड़कर जाने कहाँ पानी गिराता है

पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है

खुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूं बनाता है

वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने का
पता माँ बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है


5

पिंजरे में वो परिन्द, यही सोचता रहा
छूना था आसमान, मगर क्या से क्या हुआ

वीरान जज़ीरे पे खड़ा, देख रहा हूँ
हर ओर अंतहीन समुंदर का सिलसिला

हम अपनी सफ़ाई में कभी कुछ न कहेंगे
इक रोज़ वक्त खुद ही सुना देगा फ़ैसला

लोगों की शक्ल में ये महज़ जिस्म बचे हैं
रूहें तो जाने कब की हो चुकी हैं गुमशुदा

ये बेतहाशा तेज़ भागते हुए से लोग
मंजि़ल कहाँ हैं इनकी इन्हें भी नहीं पता

जो ज़िंदगी को जीते रहे अपनी तरह से
ये सिर्फ वो ही जानते हैं उनको क्या मिला

अच्छा कहा किसी ने, किसी ने बुरा कहा
मैं तो वही था, जैसा था अच्छा था या बुरा

रिश्तों को मत बना या मिटा खेल समझकर
रिश्ते बना तो आख़िरी दम तक उन्हें निभा


6
इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो

ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला
डरता हूं कहीं चाल ये उसकी नई न हो

बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो

ऐसी शमा जलाने का क्या फायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो

हर पल, ये सोच सोच के नेकी किए रहो
जो सांस ले रहे हो, कहीं आख़िरी न हो

क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क किए हो जुनून में
रक्खो जुनून उतना कि वो ख़ुदकुशी न हो

ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो

एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूं न हो
दो पांव के सब जानवर हों, आदमी न हो

इस बार जब भी धरती पे आना ए कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बाँसुरी न हो


7
खिड़कियाँ, सिर्फ, न कमरों के दरमियां रखना
अपने ज़ेहनों में भी, थोड़ी सी खिड़कियां रखना

पुराने वक्तों की मीठी कहानियों के लिए
कुछ, बुजु़र्गों की भी, घर पे निशानियां रखना

ज़ियादा ख़ुशियाँ भी मगरूर बना सकती हैं
साथ खुशियों के ज़रा सी उदासियां रखना

बहुत मिठाई में कीड़ों का डर भी रहता है
फ़ासला थोड़ा सा रिश्तों के दरमियां रखना

अजीब शौक़ है जो क़त्ल से भी बदतर है
तुम किताबों में दबाकर न तितलियां रखना

बादलो, पानी ही प्यासों के लिए रखना तुम
तुम न लोगों को डराने को बिजलियां रखना

बोलो मीठा ही मगर, वक्त ज़रूरत के लिए
अपने इस लहजे में थोड़ी सी तल्ख़ियां रखना

मशविरा है, ये, शहीदों का नौजवानों को
देश के वास्ते अपनी जवानियां रखना

ये सियासत की ज़रूऱत है कुर्सियों के लिए
हरेक शहर में कुछ गंदी बस्तियां रखना

8


फूल काग़ज़ के हो गए जब से,
ख़ुशबुएँ दर-ब-दर हुईं तब से

कुछ किसी से भी मांगना न पड़े,
हम ने मांगा है बस यही रब से

जब से पानी नदी में आया है
हम भी प्यासे खड़े हैं बस तब से

बेटियाँ फि़क्रमंद रहती हैं
बेटे रखते हैं, काम मतलब से

ज़िन्दगी को मयार कैसे मिले
हमने सीखा है ग़म के मक़तब से

लाख धोखा है उसकी बाज़ीगरी
लोग तो ख़ुश हैं उसके करतब से


9


बदनीयतों की चाल, परिन्दे को क्या पता
फैला कहाँ है जाल, परिन्दे को क्या पता

लोगों के, कुछ लज़ीज़, निवालों के वास्ते
उसकी खिंचेगी खाल, परिन्दे को क्या पता

इक रोज़ फिर उड़ेगा कि मर जाएगा घुटकर
इतना कठिन सवाल, परिन्दे को क्या पता

पिंजरा तो तोड़ डाला था, पर था नसीब में
उससे भी बुरा हाल, परिन्दे को क्या पता

देखा है जब से एक कटा पेड़ कहीं पर
है क्यूं उसे मलाल, परिन्दे को क्या पता

उड़ कर हजारों मील इसी झील किनारे
क्यूं आता है हर साल, परिन्दे को क्या पता

एक-एक कर के सूखते ही जा रहे हैं क्यों
सब झील नदी ताल, परिन्दे को क्या पता


10


दर्द से दामन ख़ूब भरा है
जीने का भरपूर मज़ा है

दु:ख क्या छू पाएगा उसको
साथ में जिसके माँ की दुआ है

आँसू आहें ग़म बेचैनी
प्यार की बस इतनी-सी सज़ा है

जान गया हूँ उसकी शरारत,
ख़त मुझको गुमनाम लिखा है

रात में चीखा एक मछेरा
चाँद नदी में डूब रहा है

खुल जा सिमसिम बोल के हारे
वो दरवाज़ा बन्द पड़ा है

ज़ुल्म का परचम ऊँचा क्यूं है
गर दुनिया का कोई ख़ुदा है

बेबस होकर जीने वाला
सच पूछो तो रोज़ मरा है



शिक्षा : एम.एस.सी(भौतिक विज्ञान)
संप्रति : भारतीय प्रसारण सेवा में अधिकारी
प्रकाशित संग्रह : बेजुबान दर्द, ख़ुशबू तो बचा ली जाए(ग़ज़ल संग्रह)
मच्छर मामा समझ गया हूँ (बाल कविताएं), खंडित प्रतिमाएं (प्रकाशनाधीन)
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