गुरुवार, 31 जुलाई 2008

दस कविताएं– भगवत रावत

1
चिड़ियों को पता नहीं

चिड़ियों को पता नहीं कि वे
कितनी तेज़ी से प्रवेश कर रही हैं
कविताओं में।

इन अपने दिनों में खासकर
उन्हें चहचहाना था
उड़ानें भरनी थीं
और घंटों गरदन में चोंच डाले
गुमसुम बैठकर
अपने अंडे सेने थे।

मैं देखता हूँ कि वे
अक्सर आती हैं
बेदर डरी हुईं
पंख फड़फड़ाती
आहत
या अक्सर मरी हुईं।

उन्हें नहीं पता था कि
कविताओं तक आते-आते
वे चिड़ियाँ नहीं रह जातीं
वे नहीं जानतीं कि उनके भरोसे
कितना कुछ हो पा रहा है
और उनके रहते हुए
कितना कुछ ठहरा हुआ है।

अभी जब वे अचानक उड़ेंगी
तो आसमान उतना नहीं रह जाएगा
और जब वे उतरेंगी
तो पेड़ हवा हो जाएंगे।

मैं सारी चिड़ियों को इकट्ठा करके
उनकी ही बोली में कहना चाहता हूँ
कि यह बहुत अच्छा है
कि तुम्हें कुछ नहीं पता।

तुम हमेशा की तरह
कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो
चहचहाओ
और बेखटके
आलमारी में रखी किताबों के ऊपर
घोंसले बनाकर
अपने अंडे सेओ।

न सही कविता में
पर हर रोज़
पेड़ से उतरकर
घर में
दो-चार बार
ज़रूर आओ-जाओ।
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2
थक चुकी है वह

इतनी थक चुकी है वह
प्यार उसके बस का नहीं रहा
पैंतीस बरस के
उसके शरीर की तरह
जो पैंतीस बरस-सा नहीं रहा

घर के अंदर
रोज़ सुबह से वह
लड़ती-झगड़ती है बाज़ार से
और बाज़ार में रोज़ शाम
घर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते खो जाती है।

रोटी बेलते वक्त अक्सर वह
बटन टाँक रही होती है
और कपड़े फींचते वक्त
सुखा रही होती है धूप में
अधपके बाल।

फिरकी-सी फिरती रहती है
पगलायी वह
बच्चों को डाँटती-फटकारती
और बिना बच्चों के सूने घर में
बेहद घबरा जाती है।

कितना थक चुकी है वह ।

मैं उसे एक दिन
घुमाने ले जाना चाहता हूँ
बाहर
दूर...
घर से बाज़ार से
खाने से कपड़ों से
उसकी असमय उम्र से।
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3
चट्टानें

चारों ओर फैली हुईं
स्थिर और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।

चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने आपको
उठता है और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूँधता है।

आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।

अंत में आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी तरह बेख़बर
चट्टानें पहली बार अपने बीच से
कुछ गुजरता हुआ
महसूस करती हैं।
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4
करुणा

सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं
न चन्द्रमा की ठंडक में
लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है
कि दुनिया में
करुणा की कमी पड़ गई है।

इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ़ पिघल नहीं रही
नदियाँ बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे
चिड़ियाँ गा नहीं रहीं, गायें रँभा नहीं रहीं।

कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं
कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके
और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके।

दरअसल पानी से होकर देखो
तभी दुनिया पानीदार रहती है
उसमें पानी के गुण समा जाते हैं
वरना कोरी आँखों से कौन कितना देख पाता है।

पता नहीं
आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए
कैसी हवा कैसा पानी चाहिए
पर इतना तो तय है
कि इस समय दुनिया को
ढेर सारी करुणा चाहिए।
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5
किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएं
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलाँघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराये।

जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्किल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान !
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6
लौटना

दिन भर की थकान के बाद
घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग
भले लगते हैं।

दिन भर की उड़ान के बाद
घोंसलों की तरफ लौटतीं चिडियाँ
सुहानी लगती हैं।

लेकिन जब
धर्म की तरफ़ लौटते हैं लोग
इतिहास की तरफ़ लौटते हैं लोग
तो वे ही
धर्म और इतिहास के
हत्यारे बन जाते हैं।

ऐसे समय में
सबसे ज्यादा दुखी और परेशान
होते हैं सिर्फ़
घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग
घोंसलों की तरफ़ लौटती हुई
चिडि़याँ।
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7
पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों

पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों
यह अचरज की बात नहीं तो और क्या
कि आपकी बेटी के ब्याह में आपके बचपन का
कोई दोस्त अचानक आपकी बगल में
आकर खड़ा हो जाए।

न कोई रिश्तेदारी, न कोई मतलब
न कुछ लेना-देना, न चिट्ठी-पत्री
न कोई ख़बर
न कोई सेठ, न साहूकार
एक साधारण-सा आदमी
पाटता तीस-पैंतीस से भी ज्यादा बरसों की दूरी
खोजता-खोजता, पूछता-पूछता घर-मोहल्ला
वह भी अकेला नहीं, पत्नी को साथ लिए
सिर्फ़ दोस्त की बेटी के ब्याह में शामिल होने चला आया।

मैंने तो यूँ ही डाल दिया था निमंत्रण-पत्र
याद रहे आए पते पर जैसे एक
रख आते हैं हम गणेश जी के भी पास
कहते हैं बस इतना-सा करने से
सब काम निर्विघ्न निबट जाते हैं।

खड़े रहे हम दोनों थोड़ी देर तक
एक दूसरे का मुँह देखते
देखते एक दूसरे के चेहरे पर उग आई झुर्रियाँ
रोकते-रोकते अपने-अपने अन्दर की रुलाई
हम हँस पड़े
इस तरह गले मिले
मैं लिए-लिए फिरता रहा उसे
मिलवाता एक-एक से, बताता जैसे सबको
देखो ऐसा होता है
बचपन का दोस्त।

तभी किसी सयाने ने ले जाकर अलग एक कोने में
कान में कहा मेरे
बस, बहुत हो गया, ये क्या बचपना करते हो
रिश्तेदारों पर भी ध्यान दो
लड़की वाले हो, बारात लेकर नहीं जा रहे कहीं।

फिर ज़रा फुसफुसाती आवाज़ में बोले
मंडप के नीचे लड़की का कोई मामा आया नहीं
जाओ, मनाओ उन्हें
और वे तुम्हारे बहनोई तिवारी जी
जाने किस बात पर मुँह फुलाए बैठे हैं।


तब टूटा मेरा ध्यान और यकायक लगा
कैसी होती है बासठ की उम्र और कैसा होता है
इस उम्र में तीसरी बेटी को ब्याहना।

खा-पीकर चले गए रिश्तेदार
मान-मनौवले के बाद बड़े-बूढ़े मानदान
ऊँचे घरों वाले चले गए अपनी-अपनी घोड़ा गाडि़यों
और तलवारों-भालों की शान के साथ।

बेटी को विदा कर रह गया अकेला मैं
चाहता था थोड़ी देर और रहना बिलकुल अकेला
तभी दोस्त ने हाथ रखा कंधे पर
और चुपचाप अपना बीड़ी का बंडल
बढ़ा दिया मेरी तरफ़
और मेरे मुँह से निकलते-निकलते रह गया
अरे, तू कब आया ?
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8
जब कहीं चोट लगती है

जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह
दूर छूट गए पुराने दोस्त याद आते हैं।

पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं
सिर्फ़ हम उन्हें छोड़कर निकल आते हैं उनसे बाहर।

जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे
तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना
कनेर का पेड़ याद आता है।

देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक
तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आंगन याद आता है
मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है
बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है।

हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से लगा लेते हैं
हम उनके कन्धे पर सिर रखकर रोना चाहते हैं
वे हमें रोने नहीं देते।

और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है
उसे हम कभी देख नहीं पाते।
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9
हमने उनके घर देखे

हमने उनके घर देखे
घर के भीतर घर देखे
घर के भी तलघर देखे
हमने उनके
डर देखे।
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10
वह कुछ हो जाना चाहता है

तमाम उम्र से आसपास खड़े हुए
लोगों के बीच
वह एक बड़ी कुर्सी हो जाना चाहता है
अन्दर ही अन्दर
पल-पल
घंटी की तरह बजना चाहता है
फोन की तरह घनघनाना चाहता है
सामने खड़े आदमी को
उसके नंबर की मार्फ़त
पहचानना चाहता है
वह हर झुकी आँख में
दस्तख़्त हो जाना चाहता है
हर लिखे काग़ज़ पर
पेपरवेट की तरह बैठ जाना चाहता है
वह कुछ हो जाना चाहता है।
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जन्म : 13 सितम्बर 1939, जिला–टीकमगढ़, मध्यप्रदेश।
शिक्षा : एम.ए. बी.एड।
1983 से 1994 तक हिन्दी के रीडर पद पर कार्य के बाद दो वर्ष तक ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के संचालक। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानिविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष। साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश परिषद् के निदेशक रहे एवं मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – समुद्र के बारे में(1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह(1988), सुनो हिरामन(1992), सच पूछो तो(1996), बिथ-कथा(1997), हमने उनके घर देखे(2001), ऐसी कैसी नींद(2004), निर्वाचित कविताएं(2004)। आलोचना– कविता का दूसरा पाठ(1993)। मराठी, बंगला, उडि़या, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में कविताएं अनूदित।
सम्मान : दुष्यंत कुमार पुरस्कार(1979), वागीश्वरी पुरस्कार(1989), शिखर सम्मान(1997–98)
सम्पर्क : 129, आराधना नगर, भोपाल–462 003
फोन : 0755–2773945