शनिवार, 20 जून 2009

वाटिका - जून 2009

वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कविताएँ और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव और सुरेन्द्र शजर की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- एक और महत्वपूर्ण युवा शायर अनिल मीत की दस चुनिंदा ग़ज़लें।

दस ग़ज़लें – अनिल मीत
ग़ज़लों के साथ सभी चित्र : अवधेश मिश्र

1

जिसकी जितनी उड़ान बाकी है
उतना ही आसमान बाकी है

राज़ आँखों से खुल गया है मगर
दिल में अब भी गुमान बाकी है

मेरे हक में ही फैसला होगा
ये अभी इम्तिहान बाकी है

वार तीरों के सब गए ख़ाली
हाथ में बस कमान बाकी है

सारी दुनिया तो देख ली हमने
इक मुकम्मल जहान बाकी है

अब तो आजा कि मेरी आँखों में
और थोड़ी-सी जान बाकी है

बात करता रहेगा हक की 'मीत'
जब तलक तन में जान बाकी है।

2

फ़ासला कम अगर नहीं होता
फ़ैसला उम्र भर नहीं होता

कौन सुनता मेरी कहानी को
ज़िक्र तेरा अगर नहीं होता

बात तर्के-वफ़ा के बाद करूँ
हौसला अब मगर नहीं होता

कैसे समझाऊँ मैं तुझे ऐ दिल
सामरी¹ हर शजर नहीं होता

तेरी रहमत का जिसपे साया हो
खुद से वो बेख़बर नहीं होता

कौन कहता है ज़िन्दगानी का
रास्ता पुरख़तर नहीं होता

'मीत' मिलते हैं राहबर तो बहुत
पर कोई हमसफ़र नहीं होता।
1- फल देनेवाला


रुकना इसकी रीत नहीं है
वक्त क़िसी का मीत नहीं है

जबसे तन्हा छोड़ गए वो
जीवन में संगीत नहीं है

माना छल से जीत गए तुम
जीत मगर ये जीत नहीं है

जिसको सुनकर झूम उठे दिल
ऐसा कोई गीत नहीं है

जाने किसका श्राप फला है
सपनों में भी 'मीत' नहीं है।


सिर्फ़ हैरत से ज़माना देखता रह जाएगा
बाद मरने के कहाँ किसका पता रह जाएगा

अपने अपने हौसले की बात सब करते रहे
ये मगर किसको पता था सब धरा रह जाएगा

तुम सियासत को हसीं सपना बना लोगे अगर
फिर तुम्हें जो भी दिखेगा क्या नया रह जाएगा

मंज़िलों की जुस्तजू में बढ़ रहा है हर कोई
मंज़िलें गर मिल गईं तो बाकी क्या रह जाएगा

'मीत' जब पहचान लोगे दर्द दिल के घाव का
फिर कहाँ दोनों में कोई फ़ासला रह जाएगा।


दिल मेरा तेरी रहगुज़र में नहीं
फ़ासला अब मेरी नज़र में नहीं

मेरा साया मेरी नज़र में नहीं
कोई साथी भी अब सफ़र में नहीं

ये मुकद्दर मिले, मिले न मिले
चाह मंज़िल की किस बशर में नहीं

दिन ढला है कि रात बाकी है
ताब इतनी भी अब नज़र में नहीं

जाने किस सम्त बढ़ रहे हैं कदम
होश इतना भी अब सफ़र में नहीं

खेलता हूँ हर एक मुश्किल से
हौसला क्या मेरे जिगर में नहीं

ढ़ूँढ़ता फिर रहा हूँ मुद्दत से
'मीत' मिलता किसी नगर में नहीं।


मुहब्बत में अब रंग आने लगा है
कि वो मुझसे नज़रें चुराने लगा है

यक़ीकन यक़ीं डगमगाने लगा है
मुझे फिर से वो आज़माने लगा है

जो वादा किया है निभा न सकोगे
ये चेहरा तुम्हारा बताने लगा है

जिसे लाके साहिल पे छोड़ा था हमने
वो तूफां सर को उठाने लगा है

खुदा जाने क्या देखा दिल ने अचानक
वे क्यों छोड़कर मुझको जाने लगा है

जिसे नाज़ कल तक रहा दोस्ती पर
वही दुश्मनी अब निभाने लगा है

मेरे 'मीत' मुझ पर भरोसा नहीं क्या
जो तू राज़ अपना छुपाने लगा है।


फिर उसने आज मुझको हैरान कर दिया है
मेरे ही घर में मुझको मेहमान कर दिया है

पहले नज़र मिलेगी फिर वारदात होगी
क़ातिल ने आज खुलकर ऐलान कर दिया है

नज़रों से दूर मेरी जिसका असर न होगा
इतना हसीन मुझ पर एहसान कर दिया है

मरहम भी अब लगाऊँ तो फैज़ कुछ न होगा
ज़ख्मी हर एक दिल का अरमान कर दिया है

तेरी हयात बन कर दुनिया में कौन आया
दिल किसने 'मीत' तुझपर कुर्बान कर दिया है।


हादसा गर हुआ नहीं होता
आदमी वो बुरा नहीं होता

आदमी आदमी से डरता है
ख़ौफ़ दिल से जुदा नहीं होता

कब किधर से कहाँ को जाना है
आदमी को पता नहीं होता

कोई इमदाद ही नहीं करता
मेहरबाँ गर ख़ुदा नहीं होता

काश तेरी परेशां ज़ुल्फ़ों को
शाने तक ने छुआ नहीं होता

जो जुबाँ से तुम्हारी निकला था
काश, मैंने सुना नहीं होता

कौन जाने नज़र से उनकी 'मीत'
दूर क्यों आईना नहीं होता।


मेरी बानी ख़ुद बोलेगी आज नहीं तो कल
ख़ामोशी भी लब खोलेगी आज नहीं तो कल

अलसायी आँखें खोलेगी आज नहीं तो कल
मन की कोयलिया बोलेगी आज नहीं तो कल

हरदम डरकर रहना इसको कहाँ गवारा है
हिम्मत अपने पर तौलेगी आज नहीं तो कल

अपनेपन की तर्ज़ तुम्हारी मेरे जीवन में
रंग मुहब्बत का घोलेगी आज नहीं तो कल

'मीत' तुझे आवारा कहने वाली ये दुनिया
तेरे पीछे खुद हो लेगी आज नहीं तो कल।

१०

वो यक़ीनन ही हर एक दिल में खुशी भर जाएगा
जो अँधेरी बस्तियों में रौशनी कर जाएगा

दौर ज़ुल्मों का अगर रोका गया न दोस्तो
आदमी ख़ुद आदमी के नाम से डर जाएगा

शर्म यूँ नीलाम होने आ गई बाज़ार में
शर्म गर बाकी रही तो आदमी मर जाएगा

लूटता फिरता है सबको तीरगी के नाम पर
देखना वो रौशनी के नाम से डर जाएगा

दिल दुखाना, आह भरना और रोना दोस्तो
'मीत' सा आशिक जहाँ में जीते जी मर जाएगा।
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अनिल मीत
जन्म : 6 मार्च 1962
शिक्षा : बी काम(पास), दिल्ली विश्वविद्यालय
संपादन : ‘हस्ताक्षर समय के वक्ष पर’, ‘क्षितिज की दहलीज़ पर’।
संकलित : ‘अनुभूति से अभिव्यक्ति तक’, ‘ग़ज़ल दुष्यंत के बाद’, ‘परिचय के स्वर’ आदि।
अन्य : अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानियाँ और ग़ज़लें प्रकाशित। मंचों, गोष्ठियों में काव्यपाठ, आकाशवाणी के विभिन्न चैनलों से कविता पाठ एवं वार्ता आदि का प्रसारण, परिचय साहित्य परिषद् में महासचिव के रूप में कार्यरत रहकर मासिक गोष्ठियों का संचालन एवं संयोजन।
संप्रति : पंजाब नेशनल बैंक के प्रधान कार्यालय, नई दिल्ली में कार्यरत।
संपर्क : बी-43 ए, शिवाजी एन्क्लेव, शिवाजी कालेज के पीछे, राजौरी गार्डन, नई दिल्ली-110027
फोन : 98101-46454, 98185-55511