बुधवार, 6 जून 2012

वाटिका – जून 2012




वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोजहिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता किरण, उमा अर्पिता और विपिन चौधरी की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।
 इसबार वाटिका के ताज़ा अंक (जून 2012) में समकालीन हिंदी कविता में नये उभरते कवि-ग़ज़लकार रवीन्द्र शर्मा रवि की दस चुनिन्दा ग़ज़लें पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही हैं।   रवि जी को दिल्ली की साहित्यिक सभा-गोष्टियों में सुनने का सुअवसर मिलता रहा है। अपनी ग़ज़लों में वह एक नये तेवर और अंदाज की तलाश में दिखाई देते हैं। जब मुझें रवि जी की ग़ज़लें वाटिका के लिए प्राप्त हुईं तो दस ग़ज़लों का चयन करते समय मेरे सामने एक संकट की स्थिति पैदा हो गई कि कौन सी ग़ज़ल को रखूँ और कौन-सी ग़ज़ल को छोड़ूं। मुझे पूरा विश्वास है कि आपको रवि जी की ये दस ग़ज़लें अवश्य भीतर तक छू लेंगी। आप अपनी बहुमूल्य निष्पक्ष प्रतिक्रिया से हमें और वाटिका के पाठकों को अवगत कराएँगे, मैं ऐसी भी आशा करता हूँ।
-सुभाष नीरव

दस ग़ज़लें : रवीन्द्र शर्मा  रवि

1
सोचता हूँ ज़िन्दगी में क्या अलग मैं कर गया 
एक दिन पैदा हुआ था मौत आई मर गया

आज फिर सोते समय बच्चे बहुत मायूस थे
आज फिर वो साथ अपने ले के दफ्तर घर गया


आईने घर के बदल देने से क्या हो जाएगा
अपनी ही सूरत थी जिसको देख कर मैं डर गया

फिर वो दीवाना हंसा होगा ठहाका मार कर
फिर किसी की ओर से फेंका कोई पत्थर गया

फूल गुलमोहर पे आये तो मुझे ऐसा लगा
ज्यों हवा की मांग में सिन्दूर कोई भर गया

ढूँढने आएगा मुझको शोर मेरे शहर का
उसको कह देना रवितन्हाइयों के घर गया 


2
गरीबी में भी बच्चे यूँ उड़ानें पाल लेते हैं
ज़रा-सी डाल झुक जाए तो झूला डाल लेते हैं

जहाँ में लोग जो ईमान की फसलों पे जिंदा हैं
बड़ी मुश्किल से दो वक्तों की रोटी-दाल लेते हैं

शहर ने आज तक भी गाँव से जीना नहीं सीखा
हमेशा गाँव ही खुद को शहर में ढाल लेते हैं

परिंदों को मोहब्बत के कफस में कैद कर लीजे
न जाने लोग उनके वास्ते क्यों जाल लेते हैं

अभी नज़रों में वो बरसों पुराना ख्वाब रक्खा है
कोई भी कीमती-सी चीज़ हो संभाल लेते हैं

ये मुमकिन है खुदा को याद करना भूल जाते हों
तुम्हारा नाम लेकिन हर घडी हर हाल लेते हैं

हमें दे दो हमारी ज़िन्दगी के वो पुराने दिन
रविहम तो अभी तक भी पुराना माल लेते हैं 

3
खुशी के वास्ते क्या-क्या तरीके आज़माये हैं 
कि हम रातों को रोए हैं, सुबह को मुस्कुराए हैं 

तुम्हारी रात होने पर हमारा दिन निकलता है 
कि हमने तीरगी से रोशनी के गीत पाए हैं 


सुना है आज भी वैसी है रौनक गांव के घर की 
हमारे बाद चिडियों ने वहाँ पर घर बसाए हैं 

यकीं करते नहीं बच्चे हंसी में टाल देते हैं 
पुराने दौर के जब भी कभी किस्से सुनाए हैं 

हमें तो पेड़ पीरों की तरह ही पाक लगते हैं 
इन्हें पत्थर पडे तो भी इन्होंने फल गिराए हैं 

लगी है होड़ चौराहों पे अपने बुत लगाने की 
ये ज़िन्दा लोग मुर्दा हसरतें दिल में दबाए हैं 


4
रेंग रेंग कर चलते रस्ते कितने खुश हैं
भूखे नंगे टूटे खस्ते कितने खुश हैं

हमने इनका बचपन छीन लिया है इनसे
बच्चों के कन्धों पर बस्ते कितने खुश हैं

शाम हुई तो घर लौटेंगे इनमें कितने
सुबह-सुबह कर रहे नमस्ते कितने खुश हैं

अपने चेहरे की कालिख का किसे पता है
इक दूजे पर फब्ती कसते कितने खुश हैं

आदर्शों को हड़प गयी बाज़ार सभ्यता
मूल्य हुए हैं कितने सस्ते कितने खुश हैं

इस दुनिया में कदर हो गयी है अब उनकी
कागज़ के झूठे गुलदस्ते कितने खुश हैं

शहर सो गया है अब खुलकर साँसें ले लें
बाहें फैलाये चौरस्ते कितने खुश हैं 


5
कभी खामोश लम्हों में मुझे अहसास होता है
कि जैसे ज़िन्दगी भी रूह का बनवास होता है

जिसे वो रौनकें होने पे अक्सर भूल जाता है
वही तन्हाइओं में आदमी के पास होता है


सुना था दर्द होता है ग़मों का एक-सा लेकिन
हमारा आम होता है तुम्हारा खास होता है

किसी के वास्ते बरसात है बदला हुआ मौसम
किसी के वास्ते ये साल भर की आस होता है

जमा होते हैं शब भर सब सितारे चाँद के घर में
न जाने कौन से मुद्दे पे ये इजलास होता है

रविमुमकिन है सहरा में कहीं मिल जाये कुछ पानी
समंदर तो हकीकत में मुकम्मल प्यास होता है 


6
गए होंगे सफ़र में और जाकर खो गए होंगे
उन्हीं के मीत राहों के सफेदे हो गए होंगे

तुम्हारे शहर के ये रास्ते घर क्यों नहीं जाते
हमारे गाँव के रस्ते तो कब के सो गए होंगे

शजर की मौत का इस शहर में मतलब नहीं कोई
बहुत होगा तो आकर कुछ परिंदे रो गए होंगे

हवा चुपचाप अपना काम करके जा चुकी होगी
सभी इलज़ाम चिंगारी के जिम्मे हो गए होंगे

कई मौसम गुज़र जायेंगे उनकी परवरिश में ही
तेरे वादे मेरी आँखों में सपने बो गए होंगे

चलो लिक्खें इबारत उंगलियों से फिर मोहब्बत की
समंदर रेत पर लिक्खा हुआ सब धो गए होंगे  

7
उड़ानों के लिए खुद को बहुत तैयार करता है
ज़मी पर है मगर वो आसमां से प्यार करता है 

ये कैसा दौर है इस दौर की तहजीब कैसी है
जिसे भी देखिये वो पीठ पर ही वार करता है 


गुज़र जाते हैं बाकी दिन हमारे बदहवासी में
ज़रा-सी गुफ्तगू कुछ देर बस इतवार करता है

तुम्हारे आंसुओं को देखना मोती कहेगा वो
सियासतदान है वो दर्द का व्यापार करता है 

हवस के दौर में बेकार हैं अब प्यार के किस्से
घडा लेकर भला अब कौन दरिया पार करता है 

8
कोई है राह में तो कोई अपने घर में है
हर आदमी मगर किसी अंधे सफर में है

धरती का जिस्म सरहदों में काटने के बाद
अब आसमां का चाँद भी उनकी नज़र में है

पंछी वहीं पे लौट के आते हैं बार-बार
ऐसी भी बात कौन-सी बूढे शजर में है

शायद वहाँ पे हो रविमिट्टी बची हुई
बाकी हमारा गाँव तो सारा शहर में है

9
घने कोहरे में फुटपाथों के बिस्तर याद आते हैं 
मैं अपने घर में होता हूँ  तो बेघर याद आते हैं 

जिन्हें सर को उठाकर आसमा बाहों में भरना था 
दबे घुटनो में  लाचारी भरे  सर याद आते हैं

किसी को शाम होते मैकदे की याद आती है 
हमें घर में पड़े खाली कनस्तर याद आते हैं 

बडी मुश्किल से मिलते हैं मोहल्ले अब मोहब्बत के 
शहर के लोग मिलते हैं तो नश्तर याद आते हैं 

हमारे शहर का जो आसमां है अजनबी-सा है 
न जाने क्यों हमें कतरे हुए पर याद आते हैं 

जहाँ शीशे के घर अँधे नहीं बहरे भी हो जाएँ 
वहीं मजबूर हाथो को भी पत्थर याद आते हैं 

बुलाती थी छतें बाहें पसारे जब परिन्दों को 
हमें उस दौर के उजले कबूतर याद आते हैं  

10
अब उनके वास्ते भी सोचना होगा ज़माने को 
हजारों पेड़ कटते हैं कई चूल्हे जलाने को 

मकां मेरा वही इसके दरो-दीवार भी वैसे 
मगर आते नहीं हैं अब परिंदे घर बनाने को 

वहाँ से शाम को गाते हुए आता नहीं कोई 
ये रस्ते जा रहे हैं जो यहाँ से कारखाने को 

ख्याल आते ही दिल बुझ-सा गया मिट्टी के दीपक का 
उसे रक्खा गया है सिर्फ पूजा में जलाने को 

भुला दो वक्त आने पे कोई लुट जाएगा तुम पर 
यहाँ हर आदमी आया हुआ है बस कमाने को 

मैं अपनी शायरी में हाल जब अपना सुनाता हूँ 
तो कहते हैं मुझे सब लोग कुछ अच्छा सुनाने को 

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रवीन्द्र शर्मा रवि
पंजाब के गुरदासपुर जिले के पस्नावाल गाँव में जन्मे, राजधानी दिल्ली में पले-बढे रवीन्द्र शर्मा रविप्रकृति को अपना पहला प्रेम मानते हैं. शहरी जीवन को बहुत नज़दीक से देखा और भोगा. किन्तु यहाँ के बनावटीपन के प्रति घृणा कभी गयी नहीं. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स से बी. कॉम(आनर्स) करने के उपरांत एक राष्ट्रीय कृत बैंक में उप-प्रबंधक के पद पर कार्यरत.

विद्यार्थी जीवन में प्राथमिक विद्यालय में ही भाषण कला में निपुण होने के कारण नेहरु नाम से संबोधित किया जाने लगा. सन् १९६९ में महात्मा गाँधी कि जन्मशती के दौरान अंतर विद्यालय भाषण प्रतियोगिता में दिल्ली में प्रथम पुरस्कार एवं अनेकों अन्य पुरस्कार जीते. सन् १९७९ में नागरिक परिषद् दिल्ली द्बारा विज्ञान भवन में आयोजित आशु लेख प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाया. उसी वर्ष महाविद्यालय द्वारा वर्ष के सर्वश्रेष्ट साहित्यकार के रूप में सन्मानित. काव्य संग्रह अंधेरों के खिलाफ, हस्ताक्षर समय के वक्ष पर’, ‘क्षितिज की  दहलीज पर’, ‘सफर जारी है और परिचय राग में कवितायें प्रकाशित. समाचार पत्र पंजाब केसरी में लगभग १२ कहानियों का प्रकाशन. नवभारत टाइम्स के साथ-साथ अनेक समाचार पत्रों में रचनाएं प्रकाशित. राजधानी के लगभग सभी प्रतिष्टित मुशायरों, कवि सम्मेलनों, काव्य गोष्ठियों में निरंतर काव्यपाठ. आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण. दिल्ली की साहित्यिक संस्थाओं परिचय साहित्य परिषद्, डेल्ही सोसाइटी ऑफ़ औथोर्स’,  हल्का-ए-तशनागाना-अ-अदब’,  पोएट्स ऑफ़ डेल्ही, आनंदम, कवितायन’, उदभव इत्यादि से सम्बद्ध.
सम्पर्क : २०२, ध्रुव अपार्टमेंट्स, आई पी एक्सटेंशन,दिल्ली ११००९२   
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