मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

वाटिका – दिसम्बर 2011



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, विनीता जोशी और ममता किरण की कविताएं, तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं। ‘वाटिका’ के पिछले अंक (अक्तूबर 2011) में समकालीन हिंदी कविता की प्रमुख कवयित्री ममता किरण की दस कविताएँ आपने पढ़ीं। इसबार समकालीन हिंदी ग़ज़ल के बहुत महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हरेराम ‘समीप’ की हम दस चुनिन्दा ग़ज़लें प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव




दस ग़ज़लें : हरेराम समीप


जाने कहाँ गईं मुस्कानें देकर बौनी ख़ामोशी
ख़ुशियों के धागे में हमको पड़ी पिरोनी ख़ामोशी

अब के शब्द दराँती, भाले, लाठी लेकर आए हैं
जीवन के हर चेहरे पर है तनी घिनौनी ख़ामोशी

पत्ते थर-थर काँप रहे हैं, सहमी-सहमी शाखें हैं
बगिया के पेड़ों पर ठहरी इक अनहोनी ख़ामोशी

हमने अपने प्यारे रिश्ते भाव-ताव कर बेच दिए
बदले में घर ले आए हैं आधी-पौनी ख़ामोशी

सभी शिकायत करते हैं कि मौसम ये बर्फ़ीला है
लेकिन कोई नहीं चाहता, यहाँ बिलोनी ख़ामोशी

कुछ तो बोलो, आपस में तुम बातचीत मत बंद करो
पड़ जाएगी सम्बंधों को वर्ना ढोनी ख़ामोशी



वेदना को शब्द के परिधान पहनाने तो दो
ज़िंदगी को गीत में ढलकर ज़रा आने तो दो

वक़्त की ठण्डक से शायद जम गई मन की नदी
देखना बदलेंगे मंज़र, धूप गर्माने तो दो

खोज ही लेंगे नया आकाश ये नन्हें परिंद
इन परिंदों को ज़रा तुम पंख फैलाने तो दो

ऐ अँधेरो ! देख लेंगे हम तुम्हें भी कल सुबह
सूर्य को अपने सफ़र से लौटकर आने तो दो

मुद्दतों से सोच अपनी बंद कमरे में है क़ैद
खिड़कियाँ खोलो, यहाँ ताज़ा हवा आने तो दो

ना-समझ है वक़्त, लेकिन ये बुरा बिल्कुल नहीं
मान जाएगा, उसे इक बार समझाने तो दो

कब तलक डरते रहें हम, ये न हो, फिर वो न हो
जो भी होना है, उसे इस बार हो जाने तो दो



प्यार के सौदाइयों को आप क्या जानें हुजूर
वक़्त की सच्चाइयों को आप क्या जानें हुजूर

इस नगर की गगनचुम्बी सभ्यता ने ढँक लिया
गाँव की अमराइयों को आप क्या जानें हुजूर

ख़्वाहिशों की रौशनी है आपके चारों तरफ
दर्द की परछाइयों को आप क्या जानें हुजूर

आप तो महलों से बाहर आज तक आए नहीं
फिर मेरी कठिनाइयों को आप क्या जानें हुजूर

व्यक्ति-पूजा, दुर्व्यवस्था, खौफ, नफ़रत औ’ ज़नून
देश की इन खाइयों को आप क्या जानें हुजूर

फिर यहाँ दुख-दर्द चीख़ें मौत बिखरा दें न ये
मौत के अनुयायियों को आप क्या जानें हुजूर



झुलसती धूप, थकते पाँव, मीलों तक नहीं पानी
बताओ तो कहाँ धोऊँ, सफ़र की ये परेशानी

इधर भागूँ, उधर भागूँ, जहाँ जाऊँ, वहीं पाऊँ
परेशानी, परेशानी, परेशानी, परेशानी

बड़ा सुंदर-सा मेला है, मगर उलझन मेरी ये है
नज़र में है किसी खोए हुए बच्चे की हैरानी

यहाँ मेरी लड़ाई सिर्फ़ इतनी रह गई यारो
गले के बस ज़रा नीचे, रुका है बाढ़ का पानी

तबीयत आजकल मेरी यहाँ अच्छी नहीं रहती
विषैला हो गया शायद, यहाँ का भी हवा-पानी

समय के ज़ंग खाए पेंच दाँतों से नहीं खुलते
समझ भी लो मेरे यारो बग़ावत के नए मानी



देखना फरमान ये जल्दी निकाला जाएगा
जुर्म होते जिसने देखा मार डाला जाएगा

मसखरों के स्वागतम् में गीत गाए जाएँगे
शायरों को देश के बाहर निकाला जाएगा

दिल की बेरंगी ने बदला है नज़र का ज़ाविया
हमसे ऐसे में न कोई चित्र ढाला जाएगा

पोथियाँ मत सौंपिए झूठे किसी इतिहास की
व्यर्थ का यह बोझ न हमसे सँभाला जाएगा

खो गई यह कौन-सी तारीकियों में ज़िंदगी
खोजने उसको न जाने, कब उजाला जाएगा

आग मत भड़काइए देकर तआस्सुब की हवा
वक़्त के चूल्हे पे वर्ना ख़ूँ उबाला जाएगा



क्या हुआ क्यों बाग़ के सारे शजर लड़ने लगे
आँधियाँ कैसी हैं, जो ये घर से घर लड़ने लगे

एक ही मंज़िल है उनकी, एक ही है रास्ता
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे

एक तो मौसम की साज़िश मेरे घर बढ़ती गई
फिर हवा यूँ तेज़ आई, बामो-दर लड़ने लगे

मेरा साया तेरे साए से बड़ा होगा इधर
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे

एक ही ईश्वर अगर है तो वो है सबके ‘समीप’
बंदगी कैसी हो, बस इस बात पर लड़ने लगे



यहाँ तो प्यास-भर पानी भी अब सस्ता नहीं आता
मगर अख़बार में इस बात का चर्चा नहीं आता

तमाचा मार लो, बटुआ छुड़ा लो, कुछ भी कर डालो
ये दुनियादार शहरी हैं, इन्हें गुस्सा नहीं आता

सुलगते शब्द हाथों में उठाए फिर रहा हूँ मैं
मुझे मालूम है, इस राह में दरिया नहीं आता

हमारी बात ज़ालिम की समझ में आए, तो कैसे
कहीं ये तो नहीं है कि हमें कहना नहीं आता

मनोबल गिर गया जिसका, बग़ावत क्या करेगा वह
लड़ेगा वो भला कैसे, जिसे मरना नहीं आता

बड़े से भी बड़े पर्वत का सीना चीरता है खुद
किसी के पाँव से चलकर कोई दरिया नहीं आता



आए जो धीरज बँधाने कल मुझे
दे गए अपना भी कोलाहल मुझे

राह में छिलना ही था ये तन-बदन
जब बबूलों-के मिले जंगल मुझे

प्यास से दम तोड़ने वाला था मैं
तब मिला दो बूँद गंगाजल मुझे

मैं अना के घर में कब से बंद हूँ
तू यहाँ से अब कहीं ले चल मुझे

बंदिशें - दर - बंदिशें- दर- बंदिशें
जैसे घेरे कोई दावानल मुझे

छाँव की उम्मीद जिससे थी ‘समीप’
दूर जाता वह मिला बादल मुझे



ये शहर लगता है मुझको एक मेले की तरह
घूमता हूँ मैं यहाँ नादान बच्चे की तरह

अपनी यादों को समेटे फिर रहा हूँ मैं यहाँ
बे-पता, बे-सिम्त, तन्हा ज़र्द पत्ते की तरह

जब तलक है साँस, लड़ना ही पड़ेगा वक़्त से
बैटरी से चलनेवाले इक खिलौने की तरह

नौकरी की खोज में निकला है, तो ये सोच ले
अब उछालेगा ज़माना तुझको सिक्के की तरह

तैरने के गुर सिखाता है वो सबको आजकल
धार में बहता रहा जो एक तिनके की तरह

काम से थक-हार कर जब लौटता हूँ रोज़ मैं
घर तरो-ताज़ा बना देता फरिश्ते की तरह

तुम ज़माने से अलग ही बात करते थे ‘समीप’
तुम भी बातें कर रहे हो अब ज़माने की तरह

१०


तुमको और बताएँ क्या-क्या भूल गए
घर में रखकर कहीं ख़जाना भूल गए

कर्तव्यों के बोझ लादकर शहर गए
फिर आपा-धापी में जीना भूल गए

आकर्षक दिखने की जिद में खूब सजे
सजते-सजते अपना चेहरा भूल गए

रस्ते में जब धूप लगी तो याद आया
जाने कहाँ हम अपना छाता भूल गए

सागर से पानी लेकर बादल निकले
खेत में आते-आते रस्ता भूल गए

मोबाइल ईमेल चले तो बच्चे अब
माँ-बापू को चिट्ठी लिखना भूल गए
000
जन्म- 13 अगस्त ,1951 (ग्राम: मेख, जिला: नरसिंहपुर, म.प्र.)
समकालीन हिंदी ग़ज़ल में हरेराम समीप एक खास पहचान रखते हैं। ग़ज़ल कहने का सलीका उन्हें आता है और वह जिस देश-समाज में रहते हैं, उसके सरोकारों को बखूबी जानते हैं और अपनी ग़ज़लों में अपने समकालीन सामाजिक यथार्थ से दो-चार होते दीखते हैं। तहों में छिपे झूठ से वह निरंतर जूझते हुए उसे नंगा करते हैं और अपनी शायरी में सच को स्थापित करने में संलग्न दीखते हैं। ‘समीप’ किस सकारात्मक सोच के कवि हैं, उनकी ग़ज़लें इसकी बानगी प्रस्तुत करती हैं। साहित्य की अनेक विधाओं में लिखने वाले हरेराम समीप की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

प्रकाशन : ग़ज़ल-संग्रह-हवा में भीगते हुए(1990), आँधियों के दौर में(1992) , कुछ तो बोलो (1995),किसे नहीं मालूम (2004), इस समय में (2011)
कहानी –संग्रह : समय से पहले (1992),
दोहा-संग्रह: जैसे (2000), साथ चलेगा कौन (2005)
सम्पादन: कथाभाषा (अनियतकालीन) पत्रिका 1987 से ‘निष्पक्ष भारती’ के ग़ज़ल विशेषांक का एवं मसि कागद त्रैमासिकी के दोहा विशेषांक का सम्पादन। अनेक विश्व प्रसिद्ध रचनाओं का अनुवाद।
विशेष :दूरदर्शन सीरियल ‘नक्षत्र स्वामी’ की पटकथा व गीत-लेखन।
हरियाणा साहित्य अकादमी समेत अनेक पुरस्कार एवं सम्मान।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा समीप के ग़ज़ल एवं दोहों पर एम-फ़िल हेतु शोध-कार्य सम्पन्न।
सम्प्रति- लेखाधिकारी ,जवाहरलाल नेहरू स्मारक निधि ,तीन मूर्ति भवन, नई दिल्ली-1 संपर्क : 395 ,सेक्टर -8 , फ़रीदाबाद -121006
ई-मेल-
sameep395@gmail.com

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

वाटिका – अक्तूबर 2011




“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद और जेन्नी शबनम, नोमान शौक की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।
‘वाटिका’ के पिछले अंक (जून 2011) में उदयीमान कवयित्री विनीता जोशी की दस कविताएँ प्रस्तुत की थीं जिनको पाठकों ने भरपूर सराहा। इसबार कुछ विलम्ब से आ रहे ‘वाटिका’ के ताज़ा अंक (अक्तूबर, 2011) में हम समकालीन हिंदी कविता की एक प्रमुख कवयित्री ममता किरण की दस कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव





ममता किरण की दस कविताएँ

1
स्त्री और नदी

स्त्री झाँकती है नदी में
निहारती है अपना चेहरा
सँवारती है माथे की टिकुली,
माँग का सिन्दूर
होठों की लाली,
हाथों की चूड़ियाँ
भर जाती है रौब से
माँगती है आशीष नदी से
सदा बनी रहे सुहागिन
अपने अन्तिम समय
अपने सागर के हाथों ही
विलीन हो
उसका समूचा अस्तित्व
इस नदी में

स्त्री माँगती है नदी से
अनवरत चलने का गुण
पार करना चाहती है
तमाम बाधाओं को
पहुँचना चाहती है
अपने गन्तव्य तक

स्त्री माँगती है नदी से
सभ्यता के गुण
वो सभ्यता
जो उसके किनारे
जन्मी, पली, बढ़ी और जीवित रही

स्त्री बसा लेना चाहती है
समूचा का समूचा संसार नदी का
अपने गहरे भीतर
जलाती है दीप आस्था के
नदी में प्रवाहित कर
करती है मंगल कामना सबके लिए
और...
अपने लिए माँगती है…
सिर्फ नदी होना
सिर्फ़ नदी होना।

2
जन्म लूँ

जन्म लूँ यदि मैं पक्षी बन
चिड़ियाँ बन चहकूँ
तुम्हारी शाख पर
आँगन-आँगन जाऊँ, कूदूँ, फुदकूँ
वो जो एक वृद्ध जोड़ा
कमरे से निहारे मुझे
तो उनको रिझाऊँ, पास बुलाऊँ
वो मुझे दाना चुगायें
मैं उनकी दोस्त बन जाऊँ

जन्म लूँ यदि मैं फूल बन
खुशबू बन महकूँ
प्रार्थना बन करबद्ध हो जाऊँ
अर्चना बन अर्पित हो जाऊँ
शान्ति बन निवेदित हो जाऊँ
बदल दूँ गोलियों का रास्ता
सीमा पर खिल-खिल जाऊँ

जन्म लूँ यदि मैं अन्न बन
फसल बन लहलहाऊँ खेतों में
खुशी से भर भर जाए किसान
भूख से न मरे कोई
सब का भर दूँ पेट

जन्म लूँ यदि मैं मेघ बन
सूखी धरती पर बरस जाऊँ
अपने अस्तित्व से भर दूँ
नदियों, पोखरों, झीलों को
न भटकना पड़े रेगिस्तान में
औरतों और पशुओं को
तृप्त कर जाऊँ उनकी प्यास को
बरसूँ तो खूब बरसूँ
दु:ख से व्याकुल अखियों से बरस जाऊँ
हर्षित कर उदास मनों को

जन्म लूँ यदि मैं अग्नि बन
तो हे ईश्वर सिर्फ़ इतना करना
न भटकाना मेरा रास्ता
हवन की वेदी पर प्रज्जवलित हो जाऊँ
भटके लोगों की राह बन जाऊँ
अँधेरे को भेद रोशनी बन फैलूँ
नफ़रत को छोड़ प्यार का पैगाम बनूँ
बुझे चूल्हों की आँच बन जाऊँ।

3
वृक्ष था हरा भरा

वृक्ष था हरा-भरा
फैली थी उसकी बाँहें
उन बाहों में उगे थे
रेशमी मुलायम नरम नाज़ुक़ नन्हें से फूल
उसके कोटर में रहते थे
रूई जैसे प्यारे प्यारे फाहे
उसकी गोद में खेलते थे
छोटे छोटे बच्चे
उसकी छांव में सुस्ताते थे पंथी
उसकी चौखट पर विसर्जित करते थे लोग
अपने अपने देवी देवता
पति की मंगल कामना करती
सुहागिनों को आशीषता था
कितना कुछ करता था सबके लिए
वृक्ष था हरा भरा

पर कभी-कभी
कहता था वृक्ष धीरे से
फाहे पर लगते उड़ जाते हैं
बच्चे बड़े होकर नापते हैं
अपनी अपनी सड़कें

पंथी सुस्ता कर चले जाते हैं
बहुएँ आशीष लेकर
मगन हो जाती हैं
अपनी अपनी गृहस्थी में
मेरी सुध कोई नहीं लेता
मैं बूढ़ा हो गया हूँ
कमज़ोर हो गया हूँ
पता नहीं
कब भरभरा कर टूट जाएँ
ये बूढ़ी हड्डियाँ…

तुम सबसे करता हूँ एक निवेदन
एक बार उसी तरह
इकट्ठा हो जाओ
मेरे आँगन में
जी भरकर देख तो लूँ।

4
चांद

तारों भरे आसमान के साथ
चांद का साथ-साथ चलना
सफ़र में
अच्छा लगता है

कितना अच्छा होता
इस सफ़र में
चांद की जगह
तुम साथ होते।

5
यादें

कभी-कभी
मन की पटरी पर
गुजर जाती हैं यादें
इतनी तेज़ी से
कि जैसे
धड़धड़ाते हुए इक रेलगाड़ी
गुज़र जाती है
धरती के सीने पे

ये यादें हो जाती हैं
सर्द मौसम के गर्म कपड़ों की तरह
जिन्हें हम रख देते हैं सम्भाल कर
गोलियाँ कुनैन की डालकर
कि कहीं लग न जाए
उनमें कोई कीड़ा

ये यादें हो जाती हैं
उन पंछियों की तरह
जो मीलों दूर चलकर आते हैं
दिल के विशाल वृक्ष की टहनियों पर
जमा लेते हैं डेरा
और फिर लगाते फिरते हैं गुहार
उन्हें दाना चुगाने की

ये यादें हो जाती हैं
अपनी वो जमा पूंजी
जिन्हें हम रख देते हैं
तब के लिए संभालकर
कि जब कभी आएगा
कोई मुश्किल वक़्त

ये यादें हो जाती हैं
उस पतंग की तरह
कि जिसे कोई मासूम बच्चा
उड़ा रहा हो पूरे जोश से
सजाता ही हो बस सपना
कि पूरा आसमान उसका है
पर अचानक कट जाए उसकी पतंग
और अटक जाए किसी पेड़ पर

ये यादें हो जाती हैं
बेमौसम की उस बरसात की तरह
कि जैसे अचानक ही कोई बादल
बरस जाता है
तब
आँगन या छत की अलगनी पर
पसरे सारे कपड़े
भीग जाते हैं
कितनी साफ़ हो जाती हैं
सड़कें और मकान
धुल जाते हैं सारे पेड़ पौधे

धुल धुल जाता है वैसे ही मन
बरसती हैं ये यादें जब आँखों से
सभी कुछ हो जाता है फिर पावन
इस तरह कि जैसे ग्रहण लगने पर
घर में खाने पीने की चीज़ों में
रखती थी माँ तुलसी का पत्ता

विरासत में लिए हूँ
माँ से ये तुलसी का पत्ता
मेरी यादों के बीच
हरदम ही ये रहता है
संजोये यादों को
बस आगे बढ़ती जाती हूँ
और इनमें जुड़ता जाता है
इक काफ़िला
और और यादों का…
और और यादों का…।

6
ख़ामियाज़ा

बहुत दिनों से
नहीं लिखी कोई कविता
नहीं गाया कोई गीत
नहीं सुखाये छत पर बाल
नहीं टांका बालों में फूल
नहीं पहनी कलफ़ लगी साड़ी
नहीं देखी कोई फिल्म
नहीं देखी बागों की बहार
नहीं देखा नदी का किनारा
नहीं सुना पक्षियों का कलरव

क्या महानगर में रहने का
भुगतना पड़ता है
ख़ामियाज़ा ?

7
जल

जल है तो जलचर है
जल है तो पशु पक्षी हैं
जल है तो प्राणी हैं
जल है तो पेड़ पौधे हैं
जल है तो जीवन है

जल मैं पूछती हूँ तुमसे
ऐसा क्या है तुममें
कि तुम समाये हो सबमें
होता है तुमसे रश्क

काश ! मैं भी जल हो पाती
पार कर पाती
ऊँचे-नीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्ते
शान्ति और सौम्यता से
गुज़र पाती
उन तमाम कंकड़ों से
जो मेरी राह में आते
अर्चना कर हर लेती
लोगों का दुख-दर्द
सिर्फ़ एक घूंट बन देती
लोगों को जीवनदान

दु:खों से भरे उन तमाम हृदयों को
भेद पाती
अश्रु बन उनकी संगी कहलाती
तर्पण बन करती उद्धार
काश ! मैं जल हो पाती।

8
हसरत


गाँव
के मकान की
भंडरिया में
एक अरसे से रखीं
परातें, भगौने, कड़ाही, कलछुल, चमचे
सबको भनक लग गयी है
छोटे भैया की बिटिया का ब्याह होने को है

अब तो हम भी पीछे नहीं रहेंगे
कढ़ाही ने कलछुल से
कलछुल ने परात से,
परात ने चमचे से
चमचे ने भगौने से कहा
खूब रौनक होगी घर में
सारे रिश्तेदार जो आयेंगे
हम भी खूब खटर-पटर नाचेंगे
कभी नानी
कभी बुआ, कभी चाची
तो कभी मौसी के हाथों

व्यंजनों की कल्पना करने लगे हैं
सभी बर्तन
कर रहे हैं आपस में
खुशी-ख़ुशी चटर-पटर
याद कर रहे हैं

बड़े भैया की बिटिया का ब्याह
हफ़्तों पहले से जमा हुए रिश्तेदार
धूम-धाम, चहल-पहल
बिटिया की बिदाई
और साथ ही अपनी भी बिदाई
तब से हम बंद हैं इस भंडरिया में
कड़ाही ने उदास हो कर कहा…

खबर लाई है कलछुल
छोटे भैया की बिटिया का ब्याह हो भी गया
शहर के एक बड़े से फार्म हाउस से
रिश्तेदार मेहमानों की तरह आये
और वहीं से लौट भी गए

यूँ तो इस बात से खुश हैं
परातें, भगौने, कड़ाही, कलछुल, चमचे
कि हो गया छोटे भैया की बिटिया का ब्याह
पर अफ़सोस इस बात का है
कि न तो घर में हुई रौनक…
न जमा हुए रिश्तेदार…
न ही उन्हें मिला मौक़ा
ब्याह में शामिल होने का।





9
कविता

रात भर सपनों में
तैरती रही कविता
सुबह उठ ईश्वर से की प्रार्थना
कि दिन भर लिखूं कविता

और प्रार्थना के बाद
इस तरह शुरू हुआ क्रम
मेरे लिखने का ...

मैने बेली कविता
पकाई विश्वास और नेह की आंच में
तुमने किया उसका रसास्वादन
की तारीफ, तो उमड़ने लगीं
और और कवितायेँ ...

बुहारे फालतू शब्द लम्बी कविता से
आंसुओं की धार से भिगो किया साफ़
तपाया पूरे घर से मिले
सम्बन्धों की आंच में
तो खिल उठी कविता
तुमने उसे पहना, ओढा, बिछाया
मेरी मासूम संवेदनाओं के साथ
तो सार्थक हुई मेरी कविता

तुम्हारे दफ्तर जाने पर
मैंने लिखी कविता दुआ की
कि बीते तुम्हारा दिन अच्छा
घर लौटने पर न हो ख़राब तुम्हारा मूड
न उतरे इधर-उधर की कड़वाहट घर पर

तुम आओ तो मुस्कारते हुए
भर दो मेरी कविता में इन्द्रधनुषी रंग
और हम मिलकर लिखे
एक कविता ऐसी
जो हो मील का पत्थर ।

10
शिकायत

किताबों के होठों पे
शिकायत है
इन दिनों…

अब उनमें
महकता ख़त रख कर
नहीं किया जाता
उनका
आदान-प्रदान।
00

ममता किरण

हिंदी की लगभग सभी प्रतिष्ठित राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं – हंस, पूर्वग्रह, इंडिया टुडे (स्त्री), जनसत्ता साहित्य विशेषांक, कादम्बिनी, साहित्य अमृत, गगनांचल, समाज कल्याण, लोकायत, इंडिया न्यूज़, अमर उजाला, नई दुनिया, अक्षरम संगोष्ठी, अविराम आदि में कविताएं प्रकाशित। सैकड़ों लेख, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षाएं आदि समाचार पत्रों में प्रकाशित। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नेशनल ओपन स्कूल आदि के लिए आलेख लेखन। आकाशवाणी –दूरदर्शन के लिए डाक्यूमेंट्री लेखन।
"ग़ज़ल दुष्यंत के बाद" "परिचय राग" "१०१ चर्चित कवयित्रियाँ" ‘सफ़र जारी है’, छन्द अन्न’ आदि अनेक संग्रहों में ग़ज़लें और कविताएँ संग्रहीत।
देश-विदेश की हिंदी वेब पत्रिकाओं यथा- ‘कविता कोश’, ‘अनुभूति’, ‘साहित्य-कुंज’, ‘साहित्य-सृजन’, ‘रेडियो सबरंग’ ‘आखर कलश’, ‘हिन्दी हाइकू’ आदि में रचनाएं प्रकाशित।
सार्क लेखक सम्मेलन भारत-फ्रांस कविता महोत्सव(दिल्ली), भारतीय साहित्य अकादमी, ग़ालिब अकादमी, राजस्थान साहित्य अकादमी, इंडियन सोसायटी ऑफ ऑथर्स जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा रचना-पाठ के लिए आमंत्रित।
आकाशवाणी, दूरदर्शन एवं निजी चैनलों से कविताओं का प्रसारण।
देश भर में अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में शिरकत।
दूरदर्शन एवं अनेक निजी टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में विशेषज्ञ के रूप में भागीदारी।
दिल्ली विश्वविद्यालय के अनेक कालेजों में निर्णायक के तौर पर भागीदारी।
कई डाक्यूमेंट्री एवं टीवी विज्ञापनों के लिए वॉयस ओवर।
राष्ट्रीय समाचार पत्रों जैसे ‘राष्ट्रीय सहारा’, ‘पंजाब केसरी’, तथा निजी टीवी चैनल आदि से सम्बद्ध रहने के बाद फिलहाल स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन, आकाशवाणी में समाचार वाचिका, उदघोषिका एवं कम्पीयर(अनुबंध के आधार पर)।
सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं की संस्था द्वारा “कवितायन सम्मान”, परिचय साहित्य परिषद् द्वारा "साहित्य सम्मान", दूरदर्शन के लिए लिखी एक डॉक्यूमेंट्री को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान।

संपर्क - ३०४ लक्ष्मी बाई नगर, नयी दिल्ली ११००२३
मोबाइल- 9891384919, 011-24676963(घर)
ई मेल : mamtakiran9@gmail.com

शुक्रवार, 10 जून 2011

वाटिका – जून 2011




“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनमऔर नोमान शौक की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।
‘वाटिका’ के पिछले अंक (मई 2011) में उर्दू-हिंदी के जाने माने कवि नोमान शौक की दस कविताएँ प्रस्तुत की थीं जिनको पाठकों ने भरपूर सराहा। इसबार‘वाटिका’ के जून अंक 2011 में हम उत्तराखंड की एक युवा कवयित्री विनीता जोशी की दस कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये कविताएँ अभी हाल में ही प्रकाशित उनके प्रथम कविता संग्रह “चिड़िया चुग लो आसमान” से ली गई हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव

विनीता जोशी की दस कविताएँ

माँ जब तक रहेगी

माँ
जब तक रहेगी

छोटी-छोटी
क्यारियों में महकेगा
धनिया/पुदीना

खेतों की मेड़ों पर
खिलेंगे
गेंदे के पीले फूल

आँगन में
दाना चुगने आएगी
नन्हीं गोरैया

देहरी पर
सजी रहेगी रंगोली

कोठरी में
खेलेंगे
भूरी बिल्ली के बच्चे
रम्भाएगी बूढ़ी गाय

छत में सूखेंगी
कबूतरों-सी सफ़ेद धोतियाँ

माँ
जब तक रहेगी
बेटियों को मिलता रहेगा
प्रेम का नेग

तेरे बाद जैसे
दुनिया ही खत्म हो जाएगी
माँ मेरे लिए।
0

रोटियाँ

एक औरत
ज़िन्दगी भर
अपने चूल्हे में
सेंकती है
न जाने कितनी रोटियाँ

धरती से बड़ी
आकाश-सी चौड़ी
धूप-सी गरम
सूरज-सी चमकती रोटियाँ

ममता से सनी
प्रार्थनाओं से भरी
प्रेम से चुपड़ी रोटियाँ

तृप्ति देकर यथार्थ को...
खुशी देकर स्वप्न को
घर की नींव
बन जाती रोटियाँ।
0

मौसम बदलते ही

कितनी बार
रख आई है माँ
उसके सिर से
नींबू मिर्च उतारकर
चौराहों में

मगर उदासी है कि
बार-बार आकर
छुप जाती है
आँखों में
कभी
पत्रियाँ नहीं मिलती
कभी बात
अटक जाती है सौदे में

शो केस में रखे
कपड़ों-सी
वह लड़की
फीकी पड़ जाती है

मौसम बदलते ही
खो गया है
एक चीज़ में
कहीं उसका राजकुमार
भूल गई है वो
क्या है दिल
और क्या है प्यार...।
0

औरतें

बकरियों-सी
पाली जाती हैं औरतें

औरतें
भूख मिटाने
रिश्तों के झुंड में
चुपचाप चलने
प्रेत भगाने
देवता रिझाने के लिए
घर की मन्नतें
पूरी करने को हमेशा
औरत ही खोती है
अपना वज़ूद
हर बार।
0

पहाड़

औरत और पहाड़
एक दूसरे के पर्याय हैं...

दोनों ही
दरकते हैं...
धधकते हैं...
कसकते हैं...
भीतर ही भीतर
आदमी और कुदरत
दोनों के अत्याचार
सहते हैं चुपचाप
फिर भी अडिग खड़े
रहते हैं...

अपनी कोख
हरी देखकर
दोनों ही
खुश होते हैं...

नदियाँ बहती रहें...
जंगल झूमते रहें...
पक्षी चहचहाते रहें...

दोनों के मन में
एक ही चाह है

औरत और पहाड़
एक दूसरे का पर्याय हैं।
0

प्रेम में

प्रेम में
ये क्या हो जाता है
दिन बीत जाता है पलों में
रात को चाँद
आँखों में समा जाता है
आँसू और मुस्कान की
होती है जुगलबंदी
साँसों में संगीत लहराता है

कोई चुपचाप
पर्दा उठाकर
उदासियों के भीतर
झाँक जाता है
अच्छी लगने लगती है
परिन्दों की उड़ान

मन आकाश
तन धरती
बन जाता है

प्रेम में
ये क्या हो जाता है।
0

नटखट धूप

पहाड़ों की चोटियों पर
इधर से उधर
दौड़ती नटखट धूप

पेड़ों की शाखों पर
झूलती
आँगन में छिप्पा-छिप्पी खेलती

साँझ पड़े मुँह फुलाए
जा रही है सूरज की
उंगली पकड़े

कभी पीछे मुड़कर देखती
बादल को हाथ हिलाती
जा रही है चुपचाप

जैसे कहना चाहती हो
बाबा कुछ देर
और खेलने दो।
0

खिड़कियाँ

दो खुली खिड़कियाँ हैं
तुम्हारी आँखें
जिनसे मैं देखती हूँ
आकाश-सूरज
उड़ते पंछी
कुलाँचे भरते
खरगोश-हिरण

तुम्हारी आँखों से
देखती हूँ
आँगन में खेलती बेटी को
दूध पीते बछड़े को
छत पर जाती बेल को

तुम्हारी इन्हीं आँखों से
देखती हूँ
तुलसी को जल चढ़ाते माँ को
नदी में तैरती किरणों को
आती-जाती
हवाओं के बीच
दिखाई देता है
मुझे अपना वजूद
महसूस होता है
खुलेपन का अनोखा अहसास।
0

चलो एक दिन

तुमने
किरणों को
कभी अपने पास
बुलाया ही नहीं
और
रूठ गई धूप

तुमने कभी
ऊपर की ओर
देखा ही नहीं
और खो गया आकाश

माटी की छुअन से
तुम हमेशा रहे दूर
गुम हो गई
हरियाली

चलो, एक दिन
चिड़िया से जाकर
पूछें आकाश
का रास्ता

हवाओं से
धूप को भेजें संदेश
माटी छूकर
आवाज़ दें
हरियाली को।
0





तुमने भी

कभी
महसूसी है
तुमने
बसंत की पत्तियों की
खुशबू

कभी छुआ है
तुमने
घास में चमकती ओस को

कभी झाँका है
तुमने
किसी मेमने की
मासूम आँखों में

कभी उतरा है
तुम्हारे मन में
नीला आकाश

कभी खोए हो
तुम
यूँ ही कहीं
कभी सुने हैं
तुमने
खामोशी के गीत

यदि हाँ,
तो लगता है
तुमने भी
कभी
पिया होगा
प्रेम का प्याला...
कभी...।
00

विनीता जोशी
शिक्षा : एम.ए., बी.एड(हिंदी साहित्य, अर्थशास्त्र)
प्रकाशन : कादम्बिनी, वागर्थ, पाखी, गुंजन, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा समय, शब्द सरोकार में कविताएँ, लघुकथाएँ और बाल कविताएँ प्रकाशित। अभी हाल में एक कविता संग्रह ''चिड़िया चुग लो आसमान'' पार्वती प्रकाशन, इन्दौर से प्रकाशित हुआ है जिसका पिछले दिनों भोपाल में नामवर जी ने विमोचन किया।
सम्मान : बाल साहित्य के लिए खतीमा में सम्मानित।
सम्प्रति : अध्यापन।
सम्पर्क : तिवारी खोला, पूर्वी पोखर खाली
अल्मोड़ा-263601(उत्तराखंड)
दूरभाष : 09411096830

मंगलवार, 24 मई 2011

वाटिका – मई 2011







“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद और जेन्नी शबनम की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं। ‘वाटिका’ के मई 2011 के अंक में इस बार उर्दू-हिंदी के जाने माने कवि नोमान शौक की दस कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँगे…
-सुभाष नीरव



नोमान शौक़ की कविताएँ

हमेशा के लिए

निकल जाते हैं सपने
किसी अनन्त यात्रा पर
बार-बार की यातना से तंग आकर

गीली आँखें
बार-बार पोंछी जाएं
सख्त हथेलियों से
तो चेहरे पर ख़राशें पड़ जाती हैं
हमेशा के लिए !
0

यातना

बुझती हुई सिगरेट
देर तक दबी रहे उंगलियों में
तो जला डालती है
स्पर्श की संवेदना

मृत शरीर
कितने ही प्रिय व्यक्ति का क्यों न हो
बदबू देने लगता है
थोड़े समय बाद

किसी टूटे हुए रिश्ते को
अन्तिम सांस तक संभाल कर
जीने की चाह से
बड़ी नहीं होती
कोई यातना ।



उन्हें ऐतराज़ है

वे कहते हैं
वसंत रुक क्यों नहीं जाता
उनके गमले में उगे पौधों पर
ठहर क्यों नहीं जाता
हमेशा के लिए पानी
गांव के तालाब में
धरती पर गिर कर
क्यों खाद में तब्दील हो जाते हैं
पलाश के फूल
क्यों छोड़ जाती हैं
अमावस के पदचिन्ह
चांदनी रातें उनकी खिड़कियों पर
सुरा और सुन्दरी के बीच रहकर भी
क्यों बूढे हो जाते हैं वे
उन्हें ऐतराज़ है !

उन्हें ऐतराज़ है
आख़िर घूमती क्यों है पृथ्वी !
0

उसे मालूम है

उसे मालूम है
किस रात की
क्या उम्र होती है

उसे मालूम है
कितना अंधेरा हो
तो दीपक राग गाते हैं

उसे मालूम है
कितनी उदासी हो
तो कितना मुस्कुराते हैं

उसे मालूम है
किस गीत का मुखड़ा
मैं उसकी शक्ल को देखे बिना
सोच भी सकता नहीं

मगर जब भी
वो मेरी सिम्त आना चाहता है
जाने क्यों हर मरतबा
इक काली बिल्ली
उसका रस्ता काट जाती है !
0

इंतज़ार

बारिश की गवाही में खिले
चाहत के फूल मुरझाने लगे
लहकते, महकते बाग़ीचों में
ज़र्द पत्तों की झांझनें बजने लगीं
नदी किनारे उगी सरकंडों की बाड़ से
पलायन कर गए मुर्गाबियों के झुंड

कितने ही स्वप्निल मौसमों की
रंगीन चादरें जलकर राख हो गईं

उम्र की रस्सी से
यह आख़िरी गांठ भी खोल दी मैंने
मगर तुम नहीं आए…



ख़ज़ाने पर

मैं ही हूँ
सबसे ज्यादा कंजूस
अपने दोस्तों में

बैठा रहता हूं आठों पहर
अपने दुखों के ख़ज़ाने पर
कुंडली मारे

नाग की तरह।
0

ग्राउन्ड ज़ीरो

वहाँ भी होता है
एक रेगिस्तान
जहाँ किसी को दिखाई नहीं देती
उड़ती हुई रेत

वहाँ भी होता है
एक दर्द
जहाँ तलाश नहीं किये जा सकते
चोट के निशान

वहाँ भी होती है
एक रात
जहाँ जुर्म होता है
चांद की तरफ़ देखना भी

वहाँ भी होती है
एक रौशनी
जहाँ पाबंदी होती है
पतंगों के आत्मदाह पर

वहाँ भी होती है
एक दहशत
जहाँ अदब के साथ
क़ातिलों से इजाज़त मांगनी होती है
चीख़ने से पहले

वहाँ भी होता है
एक शोक
जहाँ मोमबत्तियां तक नहीं होतीं
मरने वालों की याद में जलने
या जलाने के लिए

वहाँ भी होता है
एक शून्य
जहाँ नहीं पहुंच पाते
टी. वी. के कैमरे।
0

तनी हुई रस्सी पर

बार-बार रुक जाता हूं मैं
सन्तुलन बनाए रखने की चिन्ता में।

बहुत मुश्किल होता है
किसी बेनाम रिश्ते की तनी हुई रस्सी पर
चलते रहना सारी उम्र।



अजनबी



क्यों बोई गई है
हमारे ख़मीर में इतनी वहशत
कि हम इंतज़ार भी नहीं कर सकते
फ़लसफ़ों के पकने का

यहाँ क्यों उगती है
सिर्फ शक की नागफनी ही
दिलों के दरमियाँ

कौन बो देता है
हमारी ज़रख़ेज़ मिट्टी में
रोज़ एक नया ज़हर!

यक़ीन के अलबेले मौसम
तू मेरे शहर में क्यों नहीं आता!
0

उम्र की तख्ती पर

एक बच्चे की गेंद की तरह
हाथ से फिसल कर
उछलती हुई
दूर-बहुत दूर चली गई दुनिया
और मैं!
उम्र की तख्ती पर लिखता रहा
सिर्फ़ दिन, महीने और साल!
000

नोमान शौक़
जन्म : आरा, बिहार में जन्म 02 जुलाई 1965
शिक्षा : स्नातकोत्तार अंग्रेज़ी और उर्दू
1981 से हिंदी एवं उर्दू में समान रुप से लेखन
'रात और विषकन्या' कविता संग्रह (ज्ञानपीठ द्वारा दूसरा संस्करण प्रकाशित) 'अजनबी साअतों के दरम्यान' (ग़ज़ल संग्रह)
'जलता शिकारा ढूंढने' में (ग़ज़ल संग्रह)
'फ़्रीज़र में रखी शाम'(कविता संग्रह)
कविताएं, ग़ज़लें, आलोचनात्मक लेख, समीक्षाएं और हिन्दी, उर्दू , फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी से परस्पर अनुवाद विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
कई रचनाओं का अंग्रेज़ी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद
संप्रति: आकाशवाणी, दिल्ली।
सम्पर्क: ए-501, प्रसार कुंज, सेक्टर पाई वन, ग्रेटर नोएडा-201306
कार्यालय: एफ़.एम.रेनबो,आकाशवाणी, संसदमार्ग,नई दिल्ली-110001
मोबाइल: 09810571659
ई मेल : nomaanshauque@gmail.com

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

वाटिका – अप्रैल 2011



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद और जेन्नी शबनम की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़ज़लें पढ़ चुके हैं। ‘वाटिका’ के अप्रैल 2011 के अंक में एक बार पुन: समकालीन हिंदी कविता की प्रमुख कवयित्री रंजना श्रीवास्तव को प्रस्तुत करे रहे है- उनके चार गीत और छह ग़ज़लों के साथ…
आपकी बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा रहेगी…
-सुभाष नीरव




चार गीत, छह ग़ज़लें : रंजना श्रीवास्तव

चार गीत
(1)
एक चेहरा मुझे आप जैसा लगा


एक चेहरा मुझे आप जैसा लगा
चांदनी रात में चांद जैसा लगा

हमने सरहद बनायी अलग हो गये
आइने में दिखीं सूरतें इक जगह
फूल की बस्तियां चुप सी रहने लगीं
तितलियों का सफ़र आग जैसा लगा

एक चेहरा मुझे आप जैसा लगा
चांदनी रात में चांद जैसा लगा

नाव थी काग़ज़ी और मौसम घिरा
बारिशों में संवरती रही ज़िन्दगी
याद तुमको लिए आ गई इस तरह
ज़ख़्म भीतर का फिर दाग जैसा लगा

एक चेहरा मुझे आप जैसा लगा
चांदनी रात में चांद जैसा लगा

दिल की बेचैनियों से लड़ूं किस तरह
आग की बारिशों से बचूं किस तरह
तुम ही तुम बस रहे हर तरफ ज़िन्दगी
हिज्र का सिलसिला साथ जैसा लगा

एक चेहरा मुझे आप जैसा लगा
चांदनी रात में चांद जैसा लगा

रोशनी की कहानी बनी इस तरह
धूप बिस्तर पे करवट बदलती रही
शाम आयी तो मखमल हुई रोशनी
मुस्कराता समां सांझ जैसा लगा

एक चेहरा मुझे आप जैसा लगा
चांदनी रात में चांद जैसा लगा॥


(2)
चाँद झांको न यूं खिड़कियों से

चाँद झांको न यूं खिड़कियों से
यूँ न चेहरा हटा बदलियों से

ये कोई दर्द है मीठा -मीठा
खुशबुओं सा पिघलता रहा है
हो के बेचैन दिल की गली में
गुफ्तगूं कर रही हिचकियों से

चाँद झांको न यूं खिड़कियों से
यूँ न चेहरा हटा बदलियों से

सुर्ख फूलों से दामन भरा है
और मीठी कशिश रूह में है
मेरी नज़रों का पैमाना छलका
क्यूँ गिला हो भला साकियों से

चाँद झांको न यूं खिड़कियों से
यूँ न चेहरा हटा बदलियों से

एक तसव्वुर शमां बन गयी है
आग कोई धुआँ बन गई है
अश्क चुपचाप बहने लगे हैं
पोंछ दो तुम इन्हें उंगलियों से

चाँद झांको न यूं खिड़कियों से
यूँ न चेहरा हटा बदलियों से

मन में जलती रही आग धीमी
जिस्म में कोई सुलगा किया है
धूप पीती रही है समंदर
जल गया आसमां बिजलियों से

चाँद झांको न यूं खिड़कियों से
यूँ न चेहरा हटा बदलियों से ॥


(3)
वो मुझे याद आने लगा है

वो मुझे याद आने लगा है
कोई फिर गुनगुनाने लगा है

बात छिड़ ही गयीं खुशबुओं की
फूल की महफिलें सज गयी हैं
भीगा - भीगा नशा हो गया है
मेघ फिर आज छाने लगा है

वो मुझे याद आने लगा है
कोई फिर गुनगुनाने लगा है

ख्वाब कोई हक़ीकत बना है
रेशमी झालरों सा टंगा है
उसके दीदार की ख्वाहिशें यूँ
कोई चिलमन हटाने लगा है

वो मुझे याद आने लगा है
कोई फिर गुनगुनाने लगा है

रोशनी जल रही आग जैसी
इक कशिश पल रही आग जैसी
बिजलियां थरथराने लगी हैं
आसमा डगमगाने लगा है

वो मुझे याद आने लगा है
कोई फिर गुनगुनाने लगा है

हिज्र है या मिलन की घड़ी है
हाथ में सुर्ख मेंहदी रची है
कंगनों की सदा बावली है
हुस्न नखरे दिखाने लगा है

वो मुझे याद आने लगा है
कोई फिर गुनगुनाने लगा है

खिल पड़े चंदनों के बग़ीचे
चांदनी रात पागल बनी है
इक नदी बह चली इस तरह से
और समंदर मनाने लगा है

वो मुझे याद आने लगा है
कोई फिर गुनगुनाने लगा है॥


(4)
ज़िन्दगी फूल जैसी रही है

ज़िन्दगी फूल जैसी रही है
खुशबुओं की कहानी बनी है

वो ख्यालों की महफिल में आया
और बजने लगी मेरी पायल
बादलों को नशा हो गया है
बिजलियां बेईमानी बनी हैं

ज़िन्दगी फूल जैसी रही है
खुशबुओं की कहानी बनी है

किसने बिखरा दिए अपने गेसू
चंदनों की महक घुल गयी है
उसके आने का जलवा रहा है
चाहतें आसमानी बनीं हैं

ज़िन्दगी फूल जैसी रही है
खुशबुओं की कहानी बनी है

आइना देखता एक चेहरा
खिड़कियां गुनगुनाने लगी हैं
धूप को आ गया है पसीना
करवटें हदबयानी बनी है

ज़िन्दगी फूल जैसी रही है
खुशबुओं की कहानी बनी है

पानियों को कहां होश है अब
पत्थरों पे खिले फूल सारे
आग ऐसी पिघलती रही है
आंधियाँ खानदानी बनी है

ज़िन्दगी फूल जैसी रही है
खुशबुओं की कहानी बनी है॥
००


छह ग़ज़लें

(1)
मीठे - मीठे बहानों की बिजली गिरी
टूट कर आसमानों से बिजली गिरी।

या खुदाया कहां से मिली रोशनी
मेरे तन्हा मकानों पे बिजली गिरी।

बस गया इक यहां रोशनी का शहर
दिल के वाज़िब ठिकानों पे बिजली गिरी।

बारिशों के सफ़र की ख़बर यूं रही
इश्क की हर दुकानों पे बिजली गिरी।

कुछ हंसी याद की कश्तियाँ चल पड़ीं
इस तरह आशियानों पे बिजली गिरी।

जश्न दिल का मनाया मुहब्बत ने यूं
रात भर शामियानों पे बिजली गिरी।

‘रंजू’ दीवानगी कुछ बढ़ी इस कदर
हुस्न के हर मुहानों पे बिजली गिरी।


(2)
मछलियां पल रहीं शीशे में
ज़िन्दगी चल रही है शीशे में।

धूल से हादसा हो गया
बारिशें जल रही शीशे में।

कुछ मकानों के नक्शे गलत
धूप भी पल रही शीशे में।

क़ैद शीशे में जज्बात हैं
प्यास भी ढल रही शीशे में।

अब युं शीशे में भगवान भी
रोशनी गल रही ष्शीशे में ।

‘रंजू’ बाज़ार है कांच का
भीड़ भी चल रही शीशे में।


(3)
याद कैसे हंसाती यहाँ
आग कैसे जलाती यहाँ।

तुम कहीं भी रहोगे सनम
इक नदी छलछलाती यहाँ।

फलसफे इश्क के क्या कहूँ
बारिशें भींग जाती यहाँ।

रूह कपड़े हटा जिस्म के
चांदनी में नहाती यहाँ।

धड़कनें रोक लेती हवा
सांस खुशबू बिछाती यहाँ।

बिजलियां पागलों सी गिरीं
पायलें छन-छनाती यहाँ।

संगमरमर - सा गोरा बदन
इक कयामत है आती यहाँ।

‘रंजु’ ये तो कत्ले -आम है
इश्क नखरे उठाती यहाँ।


(4)
भीगी -भीगी घटाओं का जादू चला
उसकी भोली अदाओं का जादू चला।

रंगे - बारिश में भरने लगी थी नदी
उनकी कमसिन निगाहों का जादू चला।

झांझरों की झनक, बिजलियों की सदा
यारां चंचल हवाओं का जादू चला।

दिल के काग़ज़ पे बसने लगा इक शहर
इश्क की उन दुआओं का जादू चला।

हसरतें आग सी यूं सुलगने लगीं
मेरे ऊपर खुदाओं का जादू चला।

महफिलें सज गयीं चान्दनी रात में
खूबसूरत समाओं का जादू चला।

उनके बीमार को ज़िन्दगी मिल गयी
‘रंजू’ बहकी फिजाओं का जादू चला ।



(5)
इश्क बाज़ार ठेका नहीं
ज़िन्दगी कोई सौदा नहीं।

उन चरागों का मैं क्या करूँ
जिनमें जलने का जज्बा नहीं।

पानियों सा मुकद्दर रहा
आदमी कोई दरिया नहीं।

रोते - रोते कहानी बनी
हिज्र का कोई किस्सा नहीं।

तेरा आना कयामत रहा
अब कोई मेरे जैसा नहीं।

कुछ खुदाओं की रहमत रही
बारिशों का तकाज़ा नहीं।

पास बैठो घड़ी दो घड़ी
फिर न कहना भरोसा नहीं।



(6)
क्यों हवाओं पे पहरा रहा
क्यों समंदर में दरिया रहा।

कोई चलता रहा रात भर
कोई हर वक्त ठहरा रहा।

हम कहें क्या वज़ह बात की
पानियों में वो सहरा रहा।

लोग हंसते हैं जज्बात पे
वो हमेशा युं बिखरा रहा।

रोशनी रात भर थी जली
पर मिरा ज़ख़्म गहरा रहा।

लड़कियाँ खुल के हंस न सकीं
कुछ रिवाजों का पहरा रहा।

‘‘रंजू’ खुशबू रही बेख़बर
फूल का दर्द तनहा रहा।
००



रंजना श्रीवास्तव
जन्म : 9 सितम्बर, 1959, गाज़ीपुर (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए., बी.एड.
कुछ वर्षों तक अध्यापन से संबद्ध रहने के बाद संप्रति स्वतंत्र
लेखन एवं 'सृजन पथ' का संपादन।

प्रकाशित पुस्तकें:
चाहत धूप के एक टुकड़े की, (कविता संग्रह), आईना-ए-रूह
(ग़ज़ल संग्रह), सक्षम थीं लालटेनें (कविता संग्रह)

शीघ्र प्रकाष्य पुस्तकें:
जीवन, जीवन के बाद (कविता संग्रह, प्रकाशक- नयी किताब-दिल्ली), कुछ भी मुश्किल नहीं (कविता संग्रह, बोधिप्रकाशन- जयपुर), इन दिनों रोशनी भीतर में बजती है (कविता संग्रह, प्रकाशक-इन्द्रप्रस्थ, नई दिल्ली )
पूर्वांचल की अनेक साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।

हिंदी की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ
एवं स्त्री विमर्ष विषयक आलेख प्रकाशित।

संपर्क: श्रीपल्ली, लेन नं.2,
पो.ऑ. सिलीगुड़ी बाज़ार
सिलीगुड़ी (पं बंगाल)
-734005
मोबाइल: 9933946886

रविवार, 2 जनवरी 2011

वाटिका - जनवरी 2011



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव और नरेश शांडिल्य ग़जलें पढ़ चुके हैं। जनवरी 2011 से ‘वाटिका’ में हल्का-सा परिवर्तन किया जा रहा है। इस अंक से हम ‘दस कविताओं या दस ग़ज़लों’ की अनिवार्यता को खत्म कर रहे हैं। मकसद कवि की अच्छी कविताओं को कविता प्रेमियों के सम्मुख रखना है, भले ही वे गिनती में पाँच हों, छ्ह हों अथव सात। यानि अधिक से अधिक सात कविताएं अथवा ग़ज़लें। वर्ष 2011 के जनवरी अंक में हम कवयित्री जेन्नी शबनम की सात कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं…

आप सभी को नव वर्ष 2011 की अनेक शुभकामनाएं !
सुभाष नीरव


जेन्नी शबनम की सात कविताएँ


दंभ हर बार टूटा...

रिश्ते बँध नहीं सकते
जैसे वक़्त नहीं बंधता,
पर रिश्ते रुक सकते हैं
वक़्त नहीं रुकता !
फिर भी कुछ तो
है समानता,
न दिखे पर दोनों
साथ है चलता !
नहीं मालूम
दूरी बढ़ी
या कि
फासला न मिटा,
पर कुछ तो है कि
साथ होने का दंभ
हर बार टूटा !
-0-

मन भी झुलस जाता है...

मेरे इंतज़ार की
इन्तहाँ देखते हो,
या कि अपनी बेरुखी से
ख़ुद खौफ़ खाते हो !
नहीं मालुम क्यों हुआ
पर कुछ तो हुआ है,
बिना चले हीं कदम
थम कैसे गए?
क्यों न दी आवाज़ तुमने?
हर बार लौटने की
क्या मेरी ही बारी है?

बार-बार वापसी
नहीं है मुमकिन,
जब टूट जाता है बंधन
फिर रूठ जाता है मन !
पर इतना अब मान लो
इंतज़ार हो कि वापसी
जलते सिर्फ पाँव हीं नहीं
मन भी झुलस जाता है !
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मेरी दुनिया...

यथार्थ से परे
स्वप्न से दूर,
क्या कोई दुनिया होती?
शायद मेरी दुनिया ऐसी हीं होती !
एक भ्रम...अपनों का...
एक भ्रम... जीने का...
कुछ खोने और पाने का...
विफलताओं में आस बनाये रखने का...
नितांत अकेली मगर भीड़ में खोने का...!!!
पर ये लाज़िमी है मेरे लिए,
ऐसी दुनिया न बनाऊं तो जियूं कैसे?
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रचती हूँ अपनी कविता...

दर्द का आलम
यूँ हीं
नहीं होता
लिखना,
ज़ख़्म को
नासूर बना

होता है
दर्द जीना,
कैसे कहूँ
कि कब
किसके दर्द को
जिया,
या अपने हीं
ज़ख़्म को
छील
नासूर बनाया,
ज़िन्दगी हो
या कि
मन की
परम अवस्था,
स्वयं में
पूर्ण समा
फिर रचती हूँ
अपनी कविता ।
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ज़िन्दगी मौका नहीं देती...

खौफ़ के साये में
ज़िन्दगी को तलाशती हूँ,
ढेरों सवाल हैं
पर जवाब नहीं
हर पल हर लम्हा
एक इम्तहान से गुजरती हूँ,
ख्वाहिशें इतनी कि पूरी नहीं होती
कमबख्त,ये जिंदगी मौका नहीं देती ।
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इक दर्द पिघलता

मेरी नसों में लहू बनकर
इक दर्द पिघलता है,
मेरी साँसों में ख़ुमार बनकर
इक ज़ख्म उतरता है,
इक ठंढी आग है
समाती है सीने में मेरे धीरे -धीरे,
और उसकी लपटें
जलाती है ज़िन्दगी मेरी धीमे- धीमे
न राख है ,न चिंगारी
पर ज़िन्दगी है कि
सुलगती ही रहती है ।
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कुछ टुकड़े हैं, अतीत के

कुछ टुकड़े हैं, अतीत के,
रेहन रख आई हूँ,
ख़ुद को, बचा लाई हूँ ।

साबुत माँगते हो, मुझसे मुझको,
लो, सँभाल लो अब,
ख़ुद को, जितना बचा पाई हूँ ।
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डॉ. जेन्नी शबनम
जन्म : 16 नवंबर 1966, भागलपुर (बिहार)
शिक्षा : एम.ए., एल.एलबी.,पी.एच.डी.
संप्रति : अधिवक्ता, नई दिल्ली
ब्लॉग : http://lamhon-ka-safar.blogspot.com
ई मेल : jenny.shabnam@gmail.com