रविवार, 2 अगस्त 2009

वाटिका - अगस्त 2009


वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कविताएँ और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर और अनिल मीत की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- हिंदी के जाने-माने कवि-ग़ज़लकार डा. शेरजंग गर्ग की दस चुनिंदा ग़ज़लें।

दस ग़ज़लें – डा. शेरजंग गर्ग
ग़ज़लों के साथ सभी चित्र : अवधेश मिश्र

न देखो पीर उर की, पर अधर की प्यास तो देखो
निहारो मत दिये को, पर शलभ की लाश तो देखो

न कहना फिर तड़प का कुछ असर होता नहीं जग में,
धरा के ताप पर रोता हुआ आकाश तो देखो

सही है, रिक्त हूँ मैं ज़िन्दगी की मुस्कराहट से,
व्यथाओं ने दिया है जो मधुर उल्लास तो देखो

इधर उपवन हुआ वीरान है, यह मानता हूँ मैं
उधर अंगड़ाइयाँ लेता हुआ मधुमास तो देखो

नहीं मालूम तुमको खुद तुम्हारे ईश की सूरत
मनुज की भावना का यह सबल उपहास तो देखो

रुपहली रात में माना व्यथित आँखें बरसती हैं
घनी काली घटाओं में तड़ित का हास तो देखो

न मापो ज़िन्दगी में दर्द की गहराइयों को तुम
हृदय के अंक में पलता हुआ विश्वास तो देखो।


ये जो कुछ ज़ख्म खिले हैं यारो
दर्द के लालकिले हैं यारो

दुश्मनों में तो कोई दोस्त नहीं
किसलिए शिकवे-गिले हैं यारो

बात करने को जुबाँ है आज़ाद
होंठ से होंठ सिले हैं यारो

हम ज़मीनों पर टिके हैं अपनी
वो ज़मीरों से हिले हैं यारो

बस्तियाँ दिल की बसी हैं जिनमें
चन्द सपनों के ज़िले हैं यारो

वाह! क्या बात है, क्या सादगी-सच्चाई है
आज हम हमसे मिले हैं यारो।

ज़िन्दगी-सी यों ज़िन्दगी भी नहीं
किन्तु मंजूर ख़ुदकुशी भी नहीं

सिलसिलेवार मौत जीते हैं
ज़िन्दगी की घड़ी टली भी नहीं

दिल की दुनिया उजाड़ दी खुद ही
गो कि फ़ितरत में दिल्लगी भी नहीं

बेख़ुदी का मलाल कौन करे
काम आई यहाँ ख़ुदी भी नहीं

कट गई उम्र, उठ गई महफ़िल
बात ईमान की चली भी नहीं

प्रश्न उठता है मैं हूँ कहाँ
और उत्तर में मैं कहीं भी नहीं।


मंजिलों की नज़र में रहना है
बस निरंतर सफ़र में रहना है

काश, कुछ बाल बाल बच जाये
हादसों के शहर में रहना है

बेरुखी बेदिली का मौसम है
हाँ, हमें काँचघर में रहना है

लोग जीने न दें करीने से
यह हुनर तो हुनर में रहना है

कुछ हमारी ख़बर नहीं उनको
जिनको केवल ख़बर में रहना है

कब तलक देखिए ज़माने को
शायरी के असर में रहना है।

चन्द सिक्कों की खुराफ़ात से क्या होना है ?
आइये, सोच लें किस बात से क्या होना है ?

पर फ़कत बात से, जज्बात से क्या होना है,
कुछ फ़रिश्तों की इनायात से क्या होना है ?

रोज़ करते हैं दुआ लोग, सुबह भी होगी,
चाँद-तारों से भरी रात से क्या होना है ?

प्यार की एक-दो बूँदों की छलक काफ़ी है,
तोप -बारूद की बरसात से क्या होना है ?

आदमी बन चुका इंसानियत की पैरोडी,
दोस्तो, ऐसे तजुर्बात से क्या होना है ?

दर्द को पोसिये, फिर ठोस ज़मी पर रखिये,
सर्द-से ख़ाम ख़यालात से क्या होना है ?

अपने अहसान किसी और की जेबों में भरो,
हम फ़कीरों का इस ख़ैरात से क्या होना है ?


ख़ुश हुए मार कर ज़मीरों को
फिर चले लूटने फ़कीरों को

आज रांझे भी क़त्ल में शामिल
शर्म आने लगी है हीरों को

रास्ते साफ़ हैं, बढ़ो बेख़ौफ़
कैसे समझायें राहगीरों को ?

वे निहत्थों पे वार करते हैं
देखिए इस सदी के वीरों को

दिल में नफ़रत की धूल गर्द जमीं
हम सजाते रहे शरीरों को

कृष्ण के देश में दुशासन जन
कब तलक यों हरेंगे चीरों को

चलती चक्की को देखकर हँसते
हाय, क्या हो गया कबीरों को ?

लूट, नफ़रत, तनातनी, हिंसा
कब मिटाओगे इन लकीरों को ?


चोटियों में कहाँ गहराई है
सिर्फ़ ऊँचाई ही ऊँचाई है

जो भी जितनी बड़ी सच्चाई है
उतनी ज्यादा गई झुठलाई है

कब फ़कीरों ने तौर बदले हैं
कब वज़ीरों से मात खाई है

मंज़िलें खोजती हैं जंगल में
कितनी मासूम रहनुमाई है

अब यहाँ सिर्फ़ तमाशे होंगे
हर कोई मुफ्त तमाशाई है

आप जिसको वफ़ा समझते हैं
वो किसी ख्वाब की परछाई है

दोस्तो, दूरियों को दूर करो
चीख़कर कह रही तनहाई है।


काँच निर्मित घरों के क्या कहने
भुरभुरे पत्थरों के क्या कहने

झुक गए तानने के मौक़े पर
ऊँचे-ऊँचे सरों के क्या कहने

जिनके होंठों पे सिर्फ़ अफ़वाहें
ऐसे हमलावरों के क्या कहने

रहज़नी में कमाल हासिल है
रहनुमा रहबरों के क्या कहने

आदमी है गुलाम सिक्कों का
उठती-गिरती दरों के क्या कहने

बेच कर मुल्क मुस्कराते हैं
क़ौम के मसख़रों के क्या कहने।

आप कहने को बहुत ज्यादा बड़े हैं
असलियत यह है मचानों पर खड़े हैं

ख़ास कंधा, दास चंदा, रास धंधा,
एक अंधे दौर के सिर पर चढ़े हैं

कीजिए झट कीजिए इनकी नुमाइश,
आपके आदर्श फ्रेमों में जड़े हैं

कोई सच्चाई यहाँ टिकती नहीं है
क्रांति के वक्तव्य क्या चिकने घड़े हैं?

हर किसी में दम नहीं इनको निभाये,
आदमीयत के नियम ख़ासे कड़े हैं

वो लड़ेंगे क्या कि जो ख़ुद पर फ़िदा हैं,
हम लडेंगे, हम खुदाओं से लड़े हैं।

१०

नर्म रह कर न यहाँ बैठना-चलना होगा
वक्त को सख्त तरीकों से बदलना होगा

प्यार की बात अँधेरों में भटक सकती है
अब चिरागों को बहुत देर तक जलना होगा

पर सँभलना तो ज़रूरी है, सँभल जाएँगे
पहले खूँखार इरादों को सँभलना होगा

हम हदों में रहे बेहद, यह सही है लेकिन
अपनी सरहद पे मगर रोज़ टहलना होगा

जो हमारे लिए साज़िश में रचे दुनिया ने
उन खिलौनों से नहीं दिल का बहलना होगा

इक ज़रूरत है मेरी क़ौम का ज़िन्दा रहना
मौत के खूफ़िया पंजों से निकलना होगा

देश के प्रेम का हम जाम पियें, खूब पियें,
जलने वालों को फक़त हाथ ही मलना होगा।
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डा. शेरजंग गर्ग हिंदी के जाने-माने कवि, ग़ज़लकार व व्यंग्यकार हैं। ग़ज़ल की सदियों पुरानी परम्परा को हिंदी से जोड़ने में हिंदी के जिन शीर्ष कवियों का उल्लेखनीय योगदान रहा है, उनमें डा. शेरजंग गर्ग एक प्रमुख नाम माना जाता है। इनकी ग़ज़लें अपने समय और समाज की नब्ज़ पर हाथ रखती हैं इसलिए इनके अनेक शे'र ज़बान पर बहुत आसानी से चढ़ जाते हैं। डा. गर्ग अपने व्यंग्यों और बाल रचनाओं के लिए भी बखूबी जाने जाते हैं। 'चन्द ताज़ा गुलाब तेरे नाम' और 'क्या हो गया कबीरों को' इनके बहु चर्चित ग़ज़ल संग्रह हैं। 'बाज़ार से गुजरा हूँ' और 'दौरा अन्तर्यामी का'(व्यंग्य), तथा 'गुलाबों की बस्ती', 'शरारत का मौसम', 'सुमन बाल गीत', 'अक्षर गीत', 'भालू की हड़ताल'(बाल साहित्य) आदि पर इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। इसके अतिरिक्त गीत व ग़ज़ल विधा पर अनेक पुस्तकों का संपादन कार्य भी किया है।
सम्पर्क : एच-43(भूतल), साउथ एक्सटेंशन (पार्ट-2), नई दिल्ली-110049, दूरभाष : 9811993230