गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

वाटिका – अप्रैल 2012


“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत ‘हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता किरण और उमा अर्पिता की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।

इसबार ‘वाटिका’ के ताज़ा अंक (अप्रैल 2012) में समकालीन हिंदी कविता में तेज़ी से अपनी एक अलग पहचान बनाती युवा कवयित्री विपिन चौधरी की दस चुनिंदा कविताएँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जिनमें जीवन के सतरंगी रंगों को फीका करने वाली स्थितियों/परिस्थितियों से तीखी टकराहट, विलुप्त होते जाते प्रेम और उसकी पावन ऊष्मा को बनाये रखने उत्कट इच्छा शक्ति और मृतप्राय:सी हो गई मनुष्य के भीतर की संवेदना को जिन्दा रखने की पुरजोर कोशिश दिखलाई देती है। आशा है, आप इन्हें पसन्द करेंगे और अपनी बहुमूल्य निष्पक्ष प्रतिक्रिया से हमें और ‘वाटिका’ के पाठकों को अवगत कराएँगे…-सुभाष नीरव

विपिन चौधरी की दस कविताएँ
1
मैं सच बोलूंगी और जिन्दा रहूंगी
मैं सूरज के चमकदार सफ़ेद कॉलर पर लगे
अंधेरे के छीटो को धो दूँगी

बछड़ों के मुँह पर लगा पट्टा खोल
उसे अपनी माँ के करीब धकेल दूँगी

पिलपिले सुख को कहूँगी
‘कृपया मुझे अकेला छोड दो’

बूचड़खाने में बिखरे लहू को
पानी की तेज धार से धो दूँगी

रात से अपने सारे राज़ छुपा लूँगी
दिन के उलझे-बिखरे केश संवार दूँगी

मै खूब-सा कह कर
एकदम चुपी साध लूँगी

लंबी कतारों की सटीक गिनती के बीच से
चुपचाप खिसक आऊँगी

परेशान शोधकर्ताओं के सूत्रों के हल
ढूंढ-ढूँढ कर लाऊँगी

बुलडोज़र से रोंदी गई बस्ती
को चार मजबूत पाँवों पर फिर खड़ा करूँगी

मुठी में बंद पीर बाबाओं की दुआ को
हवाओं के नाम कर दूँगी

जमाने की तिरछी नज़रों पर हर
बार की तरह खाक डालूँगी

शो विंडो की गूंगी बहरी गुडिया को
सारे गुम इशारे समझा दूँगी

33 करोड देवी-देवताओं के बीच बैठ
उनकी अक्रूत प्रसिद्धि की कहानी सुनूँगी
चंडाल चौकड़ियों से धमाधम से
खार खाऊँगी

प्रेम को सहज ही
उसका मखमली आसन दूँगी

मैं सच बोलूँगी और
जिन्दा रहूँगी ।

2

उस वक्त मैं प्रेम में थी

अब मैं कृष्ण की कलाओं में उतर चुकी हूँ

द्रोप्ती का लम्बा वस्त्र बनकर एक चमत्कार में ढल चुकी हूँ

मैंने साध लिया है सीता का अखंड सौभग्य

आजातशत्रु के खेमे में जाकर खड़ी देखती हूँ


मरियम-सी उदासी मेरे तलुओं पर चिपक गई है

मेरी स्मित में मोनोलिसा के होंठों का भेद शामिल हो चुका है

हवाओं के अणुओं में बंद सरसराती लिपि

व्याकरण समेत पढ़ ली है मैंने

कहने की ज़रूरत नहीं

मैं इस वक़्त प्रेम में हूँ।


3
अपनी- अपनी जगह

देर तक शुक्र मनाती रही मैं
अपने आँगन में बेख़ौफ़ उतरे
अष्ठावक्र प्रेम को निहारते-संवारते
कई कोणो से सुशोभित प्रेम
अपने सीधे रूप में मेरे क्योंकर आता
मुझे हर उस सीधेपन से एतराज़ रहा था
जो कहीं से भी मुड़ने से परहेज़ी था

प्रेम के इस सोलहवें सावन पर
सात फेरे लेने को मन हुआ
पर ये सात फेरों वाला मामला तो
सीधेपन की ऊँची हद तक सीधा था

सो, मैं रही अपनी कमान में महफ़ूज
और मेरे अष्ठावक्र प्रेम
अपने आठ कोणों में विभाजित।

4
इम्तिहान से बाहर मेरा तप

प्रेम के शिलान्यास के लिए
खतरे की घंटी से दो पल पहले
झनकती घंटी मांग लूँगी

सपनों का रंग उतरते देखूँगी
खुशियों को सस्ते में बेच डालूँगी

पांडुरंग के फर्जी द्रेशप्रेम का लंबा नाटक
बिना ऊबे हज़म कर जाऊँगी

एकतारे में लगे दूसरे विकल्पी तार को देख
दु:ख के चार सुर नहीं छेड़ूँगी
अमू्र्त को मूर्त में तब्दील हो जाने तक
सधा हुआ इंतज़ार करूँगी
सीता के वेश में उर्मिला का इंतज़ार सहूँगी
एक पांव खड़ी हो
सावित्री-तप पूरा करूँगी
परीक्षित के नज़दीक जाकर
तक्षक का ज़हरीला दंश पचा लूँगी

पर जिस घड़ी प्रेम अपनी केंचुली उतार फेंकेगा
उस घड़ी मैं बिखर जाऊँगी।


5
प्रतिशोध का प्रेम
चुप्पी के सबसे घने दौर में
अपने नाखूनों का बढ़ना कोई देख सके तो देखे
और जब देख ले तो मान भी ले
देह की प्रकर्ति के साथ-साथ
भीतर का प्रतिशोध है यह जो बाहर टपक आया है
एक आसान बहाने से अपने नैन-नकश
उकेरता हुआ

ज्वालामुखी, धरती का विरोध दर्ज करते हुए उबल पड़ रहे हैं
सपने, एक पहर में जमी हुई नींद का
काई, समुंद्र का
और दूरियाँ, मंजिलों का प्रतिशोध हैं

कितनों का प्रतिशोध उनके भीतर ही दम तोड़ गया
क्योंकि उनके पास प्रेम का अवकाश नहीं था

थरथराहट की पपड़ियाँ और
समय-असमय का बेतलब बुखार
मेरे आगे-पीछे डोलने लगा
जब मेरे शरीर की धरती से प्रेम ने
अपनी नाजुक जड़ें
दुनिया के मटमैले आस्मां की ओर
बाहर निकालनी शुरू कर दी

मेरा प्रतिशोध किससे था ?

6
अपने अधिकार के आजू-बाजू दम तोडती मैं

अपने अधिकार में जन्म लेने की बेचैन घड़ी के दरमियान
आँख खोलते ही मैंने देखा
अपनी बाजुओं में किसी और के नाम की रंगबिरंगी चूडियाँ
पांव में किसी और के नाम के बिछुए
गले में मंगलसूत्र
टीका,लिपस्टिक
बदन पर किसी और के पसंद की साडी
जुबान पर किसी और के नाम का मन्त्र जाप
उसी के सौभाग्य के लिए अखंड पूजा-परिक्रमा
मन-मस्तिक्ष में विचार किसी और के

बिछुबटी की तरह किसी और के कच्चे आँगन में रोप दी गयी मैं
और रबी की फसल की तरह भरे पाले में काट दे गयी हूँ
मेरी नहर में पानी कम होने पर भी मुझे सींच दिया जाता है
जबरन एक अनचाही खड़ी-कंटीली फसल रोपने के लिए
अपने अधिकार के भीतर ही मैं दम तोड़ चुकी हूँ

कब्र के सिरहाने भी मेरा नाम आधा-अधूरा लिखा था
और कब्र के हत्थे पर उग आये दो फूलों को
तोडने के लिए भी कोई और ही तैयार दिखा

7
तुम जिंदगी

जिंदगी मै तुझसे कभी ना छुटने वाला प्रेम करूँगी
तेरे मटमैले कोने को छू एक खूबसूरत कसम उठा रखूंगी
शरारत के पलों में तेरा कान उमेठ कर भाग जाउंगी

दुखी हूँगी तो तुझे चम्बल के किसी मटियाली गुफा में धकेल
दुनाली से छलनी करने की सोचूँगी
तब कई प्रतिरोधी किस्से मेरे आँखों के सामने होंगे
मै तेरा दाना-पानी बंद करने की ठानूँगी

गुस्से से सबसे अंतिम चरण में
जब मौत को खुली हुई आँख से अपने सामने देखूँगी और
चाहूँगी तेरी लम्बाई का अंत संथारा-सा शांत पवित्र हो

जब खुश होऊँगी तो तुझसे भर-भर गले मिलूँगी
तेरे आँगन में चंपा, चमेली और रजनी गंधा रो़प दूँगी

मैं अपने एकांत के बहाने तुझसे चिकोंटी काट मिलूँगी
अपने लिए तुझे दुत्कारऊँगी
और जब कई दोष मुझे पकड़ लेंगे तो
अपनी उंगली तेरी ओर कर दूँगी ।

8
अपने भरोसे से

दुःख टकसाल में कुछ और पकने गया था
सुख से कल रात ही तेज़ झगडा हुआ
प्यास को अपना ही होश नहीं रहा
हवा की कौन कहे
उसका मिजाज़ ही कई दिशाओं में गुम है

अब मेरे आस-पास
कोई नहीं
अपने भरोसे को पीठ पर लाद कर चल रही हूँ
कभी तेज़ कभी धीरे ।

9
कहाँ गए सब के सब

सब कुछ गडबड-झाला हो गया
तराशा हुआ सुख
उलझा हुआ दुःख
गले तक आई प्यास
धो-पोंछ रखी उम्मीद
मांझ कर रखा इंतज़ार
सब से सब एक सफ़र में खो गए
मैं खाली हाथ, सूनी आँख
वहाँ देखती हूँ
जहाँ से ये सभी दुलारे संगी-साथी आये थे ।

10
इतिहास के गर्त में मेरी पहचान

कहीं तो दर्ज होंगे मेरे सपने
मेरे प्रतिरोध के सरकंडे
विरोध के तीर-कमान

भटकेगा कोई मेरे इतिहास को जानने पहचानने की तडप में
तब
निकाल लाएगा कोई पाडा
मेरे नाम का एक तामपत्र
लाल सुतली से बांध रखे हजारों तामपत्रों में ढूंढ कर

मेरा गोत्र, मेरा कुल खंगालेगा
मेरी पहचान
मेरी तलाश के दिन-रात एक कर देगा
लाख कच्चे-पक्के पापड बेलेगा

यही नामुराद पहचान
इस घड़ी मुझे इस कदर परेशान कर रही है
कि इसे मै गली के मोड पर बैठे
काने कुत्ते को दान करने को भी तैयार हूँ।
00

विपिन चौधरी जन्म -२ अप्रैल १९७६ जिला भिवानी ( हरियाणा) के गाँव खरकड़ी मखवान में॥शिक्षा - बी.एस. सी, ऍम ए प्रकाशित कृतियाँ- दो काव्य संग्रह ‘अँधेरे के मध्य से’ और ‘एक बार फिर’ प्रकाशित । एक कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। सम्प्रति- मानव अधिकार संघ नामक स्वयं सेवी संस्था का संचालन ।सम्पर्क - १००८, हाउसिंग बोर्ड कालोनी, सेक्टर १५ ए, हिसार, हरियाणा, पिन 125001
ई मेल -
vipin_c_2002@yahoo.com
फ़ोन- 98998 65514