रविवार, 21 मार्च 2010

वाटिका - मार्च, 2010



“वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत कलसी ‘हकीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद की कविताएं और राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत और शेरजंग गर्ग की ग़जलें पढ़ चुके हैं। इसी श्रृंखला की अगली कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं- उर्दू-हिंदी शायरी की एक बेहद जानी-पहचानी शायरा लता हया की दस चुनिन्दा ग़ज़लें…

दस ग़ज़लें - लता हया

॥ एक ॥

वो हमसफ़र है मगर हमसफ़र नहीं लगता
मैं जिस मकान में रहती हूँ, घर नहीं लगता

हरा-भरा भी है, खुशबू भी है, समर भी है
बग़ैर साये के फिर भी शजर नहीं लगता

ये मेरी ज़िद है उसे और याद आऊँगी
मेरी जुदाई का जिस पर असर नहीं लगता

तू जब भी ज़हन में आँधी की तरह उठता है
मेरे वजूद के तिनकों को डर नहीं लगता

इसे मैं सादगी समझूं कि हौसला उनका
मुहाफ़िजों से कभी जिनको डर नहीं लगता

गुलाब बोया है जिस दिन से अपने आँगन में
ख़ुद अपने जिस्म के ख़ारों से डर नहीं लगता

'हया' की क़ैद में माना ज़बान है लेकिन
नज़र से तो वो मेरी बेख़बर नहीं लगता।
समर= फल, शजर =पेड़
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॥ दो ॥

मेरी तो ज़ात, पात, धर्म, दीन शायरी
है घर, मकां, जहाँ, फ़लक, ज़मीन शायरी

देखा जो तुमने प्यार से तो यूँ लगा मुझे
जैसे कि हो गई हूँ मैं हसीन शायरी

ख्वाहिश की तितलियाँ बड़ी कमसिन हैं, शोख हैं
इनके तफ़ैल हो गई रंगीन शायरी

सरज़द हुई हैं ऐसी भी दिल पर हक़ीक़तें
रिश्तों को लिख गई नया आईन शायरी

ग़ैरत की लाश हाथ में लेकर ग़ज़ल कहूँ
तेरी न कर सकूँगी तौहीन शायरी

लैला-ए-शायरी हूँ, मेरा कैस है सुख़न
ये जुर्म है तो दे सज़ा, न छीन शायरी

इक लम्स है ये शायरी मेरे लिए 'हया'
उनकी नज़र में लाम, मीम, सीन शायरी।
तफ़ैल=कारण, सरज़द = घटित, आईन=संविधान, कैस =मजनूं का नाम, लम्स=स्पर्श
लाम, मीम, सीन =उर्दू की वर्णमाला के अक्षर
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॥ तीन ॥

बात करने का सलीक़ा हो तो पत्थर बोले
वरना तू कौन है तुझसे कोई क्योंकर बोले

वो ख़ुदा है तो रहे दूर ही मुझसे, कह दो
पास आए तो ज़रा आदमी बन कर बोले

मैं भी हर तरह के ज़ख्मों की ज़बां सीख चुकी
अब समझ लेती हूँ वो बात जो ठोकर बोले

वो भी क़ासिर था मेरी बात समझने के लिए
मैं भी ख़ामोश रही पर मेरे तेवर बोले

मश्क़ जारी है हक़ीक़त को समझने की अभी
पर हक़ीक़त तो वही है जो मुक़दर बोले

हमने जो भी कहा वो मुँह पर कहा है सबके
और कुछ लोग थे जो भेस बदलकर बोले

जब भी शरमा के नज़र उससे चुराती है 'हया'
उसकी आँखों में अजब ख़ौफ, अजब डर बोले।
क़ासिर-=बेचैन, उतावला
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॥ चार ॥

वो लोग जिनके लब पे तबस्सुम हज़ार हैं
उनके दिलों में झाँकिए, ग़म बेशुमार हैं

काँटों के बीच हँस के कहा ये गुलाब ने
हँस लो कि ज़िंदगानी के दिन सिर्फ़ चार हैं

ग़ज़लों में उसका ज़िक्र, न होंठों पे उसका नाम
हालाँकि उसको सोचते हम बार-बार हैं

दिल पर अभी हमारे हुकूमत है ज़ह्न की
ठोकर तो खा रहे हैं मगर होशियार हैं

बुलडोज़रों से रौंदते हैं घर गरीब का
तामीरे- मुल्को क़ौम के जो ज़िम्मेदार हैं

ओढ़े हुए लिहाफ़, पढ़ी सुब्ह को ख़बर
कल रात ठंड से जो मरे बेशुमार हैं

ग़म दूसरों के इनमें झलकते हैं ए 'हया'
अशआर मेरे ग़ैरों के आईनादार हैं।
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॥ पाँच ॥

हमने वीराने को गुलज़ार बना रक्खा है
क्या बुरा है जो हक़ीक़त को छुपा रक्खा है

दौरे-हाज़िर में कोई काश ज़मीं से पूछे
आज इंसान कहाँ तूने छुपा रक्खा है

वो तो ख़ुदगर्ज़ी है, लालच है, हवस है जिसका
नाम इस दौर के इंसां ने वफ़ा रक्खा है

तू मेरे सह्न में बरसेगा कभी तो खुलकर
मैंने ख्वाहिश का शजर कब से लगा रक्खा है

मेरी बेटी तू सितारों सी फ़रोज़ा होगी
ये मेरी माँ ने वसीयत में लिखा रक्खा है

मैं तो मुश्ताक़ हूँ आँधी में भी उड़ने के लिए
मैंने ये शौक़ अजब दिल को लगा रक्खा है

मैं कि औरत हूँ मेरी शर्म है मेरा ज़ेवर
बस तख़ल्लुस इसी बाईस तो 'हया' रक्खा है।
दौरे-हाज़िर=आज का ज़माना. सह्न = आँगन, फ़रोज़ा =रौशन, मुश्ताक़ =बेचैन,
तख़ल्लुस =उपनाम, बाईस = कारण
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॥ छह ॥

आँखों में जब मेरी वो अपना अक्स पाएगा
अपनी अना का शीशमहल ख़ुद गिराएगा

पहले दिलों को जीतने की तर्ज़ सीख ले
ये इक हुनर ही तेरे बहुत काम आएगा

इक़रार न करूँ तो करूँ क्या बताईए
वो इस क़दर है मुझपे फ़िदा, मर ही जाएगा

दरअस्ल दाद पाएगी उस दिन मेरी ग़ज़ल
जब तू मुहब्बतों से उसे गुनगुनाएगा

तारीफ़ मेरी इतनी जो करता है रात-दिन
कितना हसीन वो मुझे आख़िर बनाएगा

मैं हूँ कि खुल के हँसती हूँ ज़ख्मों के बावजूद
ऐसे भी हादसों में कोई मुस्कुराएगा

इतना तो प्यार मैंने भी ख़ुद को नहीं किया
अब दूर जाएगा तो बहुत याद आएगा

दीदार की मैं ख़ुद हूँ तेरे मुंतज़िर मगर
शर्ते 'हया' है तू मेरा घूंघट उठाएगा।
अना=ग़ुरूर, तर्ज़ =तरीक़ा, मुंतज़िर=प्रतीक्षारत
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॥ सात ॥

ये तमन्ना है, मुझे काश वो जादू आए
मैं जिधर जाऊँ उधर बस तेरी ख़ुशबू आए

ज़िंदगी घिर गई जब-जब भी अंधेरों में मेरी
तब बहुत काम तेरी याद के जुगनू आए

मुझको अपने पे भरोसा तो बहुत है लेकिन
दिल तो फिर दिल है किसी तरह न क़ाबू आए

सोच बदली नहीं लोगों की, ज़माना बदला
अब भी औरत के मुक़दर में ही आँसू आए

वो परिंदों से भी बढ़कर के चहकना दिल का
मुझसे मिलने को जो ससुराल में बापू आए

यूँ तो बेख़ौफ़ हूँ, बेबाक हूँ, बिंदास भी हूँ
फिर भी आ जाए 'हया' सामने जब तू आए।
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॥ आठ ॥

धर्म की, कुछ ज़ात की, कुछ हैसियत की सरहदें
आदमीयत की ज़मीं पर कैसी कैसी सरहदें

मुल्क को तो बाँट लें लेकिन ये सोचा है कभी
दिल को कैसे बाँट सकती हैं सियासी सरहदें

माँग भर कर उसने मेरी माँग ली आज़ादियाँ
अब कफ़स है, और मैं हूँ या सिंदूरी सरहदें

मैं हक़ीक़त की पुजारिन वो रिवायत का असीर
मेरी अपनी मुश्किलें हैं, उसकी अपनी सरहदें

बस ! बहुत तौहीन कर ली आपने अब देखिए
खींचनी आती हैं मुझको भी अना की सरहदें

अब तलक पाक़ीज़गी बाक़ी है अपनी फ़िक्र में
हैं हमारे दरमियाँ गीता - कुरआनी सरहदें

देख कर आँखों में उनकी छलछलाती चाहतें
सोचती हूँ तोड़ दूँ, शर्मो - हया की सरहदें।
कफ़स=क़ैद, रिवायत=रूढ़ियाँ, असीर=क़ैदी
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॥ नौ ॥

मैं ग़ज़ल हूँ, मुझे जब आप सुना करते हैं
चंद लम्हे, मेरा ग़म बाँट लिया करते हैं

लोग चाहत की किताबों में छुपाकर चेहरा
सिर्फ़ जिस्मों की ही तहरीर पढ़ा करते हैं

लोग नफ़रत की फ़ज़ाओं में भी जी लेते हैं
हम मुहब्बत की हवा से भी डरा करते हैं

जब वफ़ा करते हैं हम सिर्फ़ वफ़ा करते हैं
और जफ़ा करते हैं जब सिर्फ़ जफ़ा करते हैं

अपने बच्चों के लिए लाख गरीबी हो मगर
माँ के पल्लू में कई सिक्के मिला करते हैं

जो कभी ख़ुश न हुए देख तरक्क़ी मेरी
मेरे अपने हैं, मुझे प्यार किया करते हैं

जिनके जज्बात हों, नुकसान-नफ़ा की ज़द में
उनके दिल में कई बाज़ार सजा करते हैं

मेरे एहसास पे पहरा है 'हया' का वरना
हम गलत बात न सुनते, न सहा करते हैं।
तहरीर=लिखावट
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॥ दस ॥

मैं पी रही हूँ कि ज़हराब हैं मेरे आँसू
तेरी नज़र में फ़क़त आब हैं मेरे आँसू

तू आफ़ताब है मेरा, मैं तुझसे रौशन हूँ
तेरे हुज़ूर तो महताब हैं मेरे आँसू

वो गालिबन इन्हें हाथों में थाम भी लेता
उसे ख़बर न थी, सैलाब हैं मेरे आँसू

ख़याल रखते हैं तन्हाइयों का, महफ़िल का
ये कितने वाक़िफ़े आदाब हैं मेरे आँसू

छूपा के रखती हूँ हर गम को लाख पर्दों में
फ़सीले- ज़ब्त से नायाब हैं मेरे आँसू

सहीफ़ा जानके आँखों को पढ़ रहा है कोई
ये रस्मे- इजरा को बेताब हैं मेरे आँसू

मैं शायरी के हूँ फ़न-ए-अरूज़ से वाक़िफ़
ज़बर हैं, जेर हैं, ऐराब हैं मेरे आँसू

'हया' के राज़ को आँखों में ढूँढ़ने वालो
शिनावरों सुनो, गिर्दाब हैं मेरे आँसू।
ज़हराब=ज़हर का पानी, आफ़ताब=सूरज, हुज़ूर=तेरे सामने, फ़सीले- ज़ब्त=सहनशक्ति की दीवार,
सहीफ़ा=किताब, रस्मे- इजरा=विमोचन की रस्म, फ़न-ए-अरूज़=व्याकरण,
ज़बर, जेर, ऐराब=उर्दू लिपि की मात्राएं, शिनावरों =गोताखोर, गिर्दाब=भंवर

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एक हिंदू ब्राह्मण मारवाड़ी परिवार में जन्मी लता हया की मादरी ज़बान राजस्थानी और हिंदी है लेकिन तहज़ीबी ज़बान उर्दू है। इन दिनों मुम्बई में निवास करती हैं और हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान से बाहर कई देशों में कवि सम्मेलनों और मुशायरों में शिरकत कर चुकी हैं। इन्होंने अपनी बेहतरीन शायरी और कलाम, अपनी मधुर आवाज़ और अभिनय कला की मार्फ़त, कला और अदब की दुनिया में जो शोहरत हासिल की है, वह काबिलेगौर है। अपने बारे में परिचय देते हुए बस इतना ही कहती है कि 'एक साधारण भारतीय नारी जो अदब में औरत की असाधारण मौजूदगी और इंसानियत की तरफ़दार है।' कला और अदब में योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित लता हया ने कई टेलीविजन सीरियल्स में भी काम किया है जैसे 'अलिफ़ लैला', 'कृष्णा', 'कुंती', 'औरत', 'अमानत', 'जय संतोषी माँ', 'कस्तूरी', 'कशमकश' और 'अधिकार'। इन दिनों डी.डी.1 पर 'कसक', कलर्स पर 'मेरे घर आई इक नन्हीं परी' और ई.टी.वी.(उर्दू) पर 'सवेरा' में काम कर रही हैं।
'हया' शीर्षक से हिंदी और उर्दू लिपि में शायरी की पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है और इन दिनों अंतर्जाल पर 'हया' (www.latahaya.blogspot.com) नाम से ब्लॉग है जिसमें इनकी नई-पुरानी शायरी के रंग और मौजूदा हालात पर तीखी टिप्पणियाँ भी देखने-पढ़ने को मिलती हैं। इनका ई मेल आई डी है- latahaya @gmail.com