गुरुवार, 2 मई 2013

वाटिका – मई 2013




मित्रो, ‘वाटिका’ की शुरुआत 7 अक्टूबर 2007 में हुई थी। इस ब्लॉग ने पाँच वर्ष से अधिक का सफ़र कर लिया है। इस सफ़र में ‘वाटिका’ के साथ अपनी कविताओं/ग़ज़लों के साथ अब तक हिंदी के नये-पुराने कई कवि/शायर जुड़े और उन्होंने समकालीन कविता के इस उपवन को अपनी रचनाओं के पुष्पों से महकाया। अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोजहिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता किरण, उमा अर्पिता, विपिन चौधरी, अंजू शर्मा, सुनीता जैन और डॉ पुष्पिता अवस्थी की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें प्रकाशित करने का गौरव ‘वाटिका’ को प्राप्त हो चुका है।

मई 2013 के अंक से हम ‘वाटिका’ के स्वरूप में किंचित परिवर्तन करने जा रहे हैं। इस अंक से हम ‘कवि की किताब से’ के अंतर्गत किसी भी युवा अथवा वरिष्ठ कवि की नव-प्रकाशित कविता पुस्तक से कुछ चुनिंदा कविताएँ कविता-प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत किया करेंगे, उस पुस्तक की संक्षिप्त जानकारी के साथ। पुस्तक से कविताओं का चयन ‘वाटिका परिवार’ का हुआ करेगा। इससे कविता प्रेमियों को एक तो नए प्रकाशित हुए कविता संग्रह की जानकारी मिलेगी, साथ ही साथ वे उसी संग्रह की कुछ कविताओं से भी रू-ब-रू होंगे।

‘कवि की किताब से’ शृंखला की पहली कड़ी में हम युवा कवि लालित्य ललित के
अभी हाल ही में प्रकाशित हुए कविता संग्रह ‘समझदार किसिम के लोग’ से कुछ चुनिंदा कविताएँ आपके सम्मुख रख रहे हैं। बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित 160 पृष्ठीय इस कविता पुस्तक में 111 कविताएँ संकलित हैं। इसकी भूमिका हिंदी के जाने-माने आलोचक नंद भारद्वाज जी ने लिखी है और कवि की कविताओं पर हिंदी के सुपरिचित व्यंग्यकार भाई प्रेम जनमेजय ने आलेख लिखा है। नंद भारद्वाज जी कवि के बेतकल्लुफ़ अंदाज की ओर इशारा करते हुए लिखते हैं कि कवि आस पास की ज़िन्दगी के ब्यौरों के बीच अपने मनमौजी स्वभाव के अनुरूप सहज-सी उक्तियाँ करता चलता है और उसी प्रक्रिया में कविता का जो पाठ निर्मित होता है, कवि उसमें बगैर किसी कांट-छांट के अपनी बात को एक लॉजिकल बिन्दु तक ले जाता है और वहीं विराम दे देता है। प्रेम जनमेजय जी लिखते हैं कि ‘लालित्य ललित के शब्दकोश में ‘संकोच’ शब्द ही नहीं है। बेबाकीपन, नि:संकोच होकर बात कहने का साहस, रिश्तों में खुलापन, मानवीय संवेदनाएं, नारी सौंदर्य के प्रति युवकोचित नैसर्गिक आकर्षण, शहर में गांव की स्वाभाविकता, भीनी गंध और गांव में शहर की मानवीय विकास के लिए हितकर प्रगति को खोजता मन आदि अनेक संदर्भ हैं जो ललित के भौतिक और साहित्यिक व्यक्तित्व में एक समान हैं। ललित को ‘जुड़ना’ शबद पसंद है, उसे संवाद पसंद है और उसे पसंद है- निश्छल संबंध।’

आशा है, यहाँ प्रस्तुत कविताओं को पढ़कर कविता-प्रेमी लालित्य ललित की नई कविता पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहेंगे।
-सुभाष नीरव




कवि की किताब से(1)

‘समझदार किसिम के लोग’ कविता-संग्रह से
लालित्य ललित की कुछ कविताएँ

अपनापन

अपनों को
पुरस्कृत करना
बड़ा बेहतर पल होता है
उस समय जब आप अपनी
सभी शुभकामनाएं
हस्तांतरित करते हैं
और वे पल अचानक
अविस्मरणीय हो जाते हैं
और
आप इतिहास में दर्ज
हो जाते हैं
जैसे माँ जन्म देकर
सुख का एहसास करती है
जैसे बिटिया
परीक्षा में अव्वल आकर
मां-पिता का धन्यवाद करती है
या
बेटे की तरक्की से
पिताजी खुशी से झूम जाते हैं
जैसे बूढे़ दादा जी को
उनका पोता
चश्मा ठीक करवाकर पहनाता है
जैसे मोहल्ले की
गर्भवती को
बड़ी-बढ़ियों का आशीर्वाद
मिलता है
सान्निध्य में मिलती हैं
खुशियां
अपनापन, आत्मीयता
और सरोकारों का ताना-बाना
जरा जुड़कर देखो
हर पल तुम्हारा है
खुशियां बांटकर देखो
खुश होकर देखो
बिखरे हुए को जोड़कर देखो
परस्पर देखो
परंपरागत देखो
हर पल पुरस्कृत हो जाता है
जब अपने हों साथ
अपनो से करते हो बात
यही तो है जीवन की
सच्ची सौगात
केवल तुम्हारे लिए
अपने लिए
अपने लोगों के लिए
दुनिया में फैले इंसानों के लिए
जो फैले हैं दूर-दराज
अपनों से
उदास
संगी-साथी दूर हैं
उन्हें भी अपनाओ
अपनाने से प्यार बढ़ता है
बिखरता नहीं
जो चिंतन जुड़ने में है
वो ऐंठन में नहीं
खुलो, मिलो, जुड़ो
प्यारा करो, दिल से करो।


आज की परिभाषा

इंसान ने आज गढ़ ली परिभाषा
खुद की
वो बन गया है उत्पाद
बिक रहा है बाजार में
चाहे ‘आटो-एक्सपो’ हो या
किसी नामी कंपनी का अंडरवियर
उसे अब शरम नहीं
वैसे भी
कोणार्क की मूर्तियां हो
या खजुराहो की
क्या फर्क पड़ता है!
संबंधों में ही
कड़वाहट घुल चुकी है
चाय की मिठास भूले लोग
चांदनी चैक से कतराने लगे हैं
लेस्बियन/जिगे़लो के इस जंजाल में
अंतरजाल की चमक में
अपना पड़ोस और
अपनी अहमियत
तलाशते हम
गुगल युगीन लोग
उस दिन के इंतजार में हैं
जब बच्चों के नाम होने लगेंगे
याहू मैसेंजर
ट्वीटर या फेसबुक!
नई पीढ़ी की दुल्हनें
ब्याह संग लाने लगेंगी
अपने नवजात शिशु
उसे दहेज में माँ-बाप देंगे
लेपटॉप, नोटबुक और
अत्याधुनिक मोबाइल
एंड्रायड फोन
और हम आप
तस्वीरों में टंगे
अपने नौनिहालों की
हरकतों पर
तमाशाबीन बनकर
चुपचाप देखेंगे
इस जुनूनी हलचलों को
जिस पर हमारा कोई वजूद
नहीं चलेगा!
हमारी तस्वीरों पर
उनका हक होगा
वे जब चाहे
किसी को भी टैग
कर देंगे
कोई ना चाहते हुए भी
हमें लाइककर देगा
इच्छा हुई तो
कमेंट भी दे देगा
हमारी बला से
और क्या
यह पीढ़ी

इयर-फोन में
सिमटी दुनिया
उसे नहीं परवाह
पढ़ाई की
लड़ाई की
है परवाह तो
नए मॉडल के फोन की
फलाने मॉल की सैर की
ब्रांडेड जिंस की
और
मां-बाप की बातों को
अनसुना करने की

मां-बाप बेचारे
पुराने अख़बार से हो गए
आज ताजे
शाम बासी।

शन्नो अब्बा का संवाद

क्या जाति
क्या उपजाति
शन्नो अब्बा से पूछती है
अब्बा समझाते हैं
मेहनत करो
खूब पढ़ो
अव्वल आओ
किसी की परवाह नहीं करो
अपने काम में
लगी रहो
अपने उद्देश्य को
सामने रखो
आगे बढ़ो
बढ़ो आगे
कल तुम्हारा है
शन्नो समझ गई
खूब पढी
खूब पढ़ी
गांव की पगडंडियां
कब
शहर की ओर मुड़ गई
अब
शन्नो
नगर आयुक्त है
अब्बा गांव में है
शन्नो की तस्वीर
अखबार में देखते
मुस्कुराते हैं
चौपाल में हुक्का -
गुड़गुड़ाते हैं
छोटी बच्ची पूछती है
काका
यह जाति-उपजाति क्या होती है
शन्नो के अब्बा समझाते हैं
कुछ भी नहीं बेटा
पढ़ो खूब पढ़ो
कल तुम्हारा है
हमारा है
हम सबका है
और अब्बा की आँखें
छलछला आयीं
ये बूंदें
खुशी की थीं
शन्नो की थी
और उस लड़की
के लिए थीं
जिसे आगे बढ़ना है
चोटी चढ़ना है
मोमबत्ती-सी मा

मोमबत्ती-सी माँ
पिघलती रही
पलपल
क्षण भर में
बिखर गई
अंधियारे घर में
उजास कर

पिता

बच्चों को कंधों पर बिठा
कभी कुत्ता बन, कभी घोड़ा
पूरे घर में घूमाता रहा
बच्चे बड़े हुए
और पिता बूढ़े
अंतिम समय
माँ कलपती रही
पिता को
चार कंधे भी नसीब ना हुए
चार पुत्र थे
पुत्र थे ! भी
एहसास

मिलना
फिर मिलना
जीभर कर मिलना
ऐसे ही होता है
जैसे किसी अजनबी में
अपनी-सी
मासूमियत टटोलना
और
फिर
जीभर कर
उस क्षण को
महसूस करना
संजोकर रखना
अपनी मधुर स्मृति में
और
स्मृति
हमेशा
वही सुख देती है
जैसे पहली मुलाकात की
वो सरगोशी
वो लम्हा
वो पल
जो आपको हमेशा
तरोताजा किये रखते हैं।

बस्ती के लोग

शाम के धुंधलके में
रात के सन्नाटे में
कुछ लड़कियां इंतजार में हैं
कि कोई आएगा

कोई आता है
रुकता है, हॉर्न बजाता है
संग चली जाती है
लड़कियां

आज घर में
खुशियाँ चहकी हैं
बिजली का बिल जमा हुआ
टीपू की फीस
अम्मा का एक्सरे और
चश्मा बन जाएगा
सुस्तायी-सी बंसती
आज देर से उठी है

ऐसी बस्ती हर प्रदेश में है
जो घर को उजाले से भर रही है
खुद को
अंधेरे में
गुमनाम शहर में
आबाद कर।

प्यार का अहसास

बारिश में
याद आ गई
वो पहली मुलाकात
जब बोले ना थे
हम कुछ भी
और
पूरी कविता तैयार हो गई

वो शब्द
वो अहसास
वो कसक
वो अपनापन
इस सूने सन्नाटे में
तैरते-से सागर में
इन बूंदों का वजूद क्या है
क्या लहरें जानती हैं
क्या कोई और
यदि
कोई जानता है तो
वो तुम हो
और
मैं
अरे !
फिर से बारिश की बूंदे भिगो गई

ऐसा ना हो

आजकल
चिड़िया नजर नहीं आती
ना ही तितलियाँ
क्या उन्होंने
पलायन कर लिया शहर से
या
वे रूठ गई हैं
मायावी दुनिया से
या
फिर कहीं
किसी बहेलिये ने
अपने जाल में उन्हें कैद कर लिया है
क्यों कोई कैद कर लेता है
तितलियां, चिड़ियाँ
या फिर महिलाएं
इनको सरंक्षण और सुरक्षा देने की
आवश्यकता है
ना कि
उनके पंखों को कुतरने की
कुचेष्टा की
तितली
चिड़िया
सुंदर-सी लड़की
फूलों-फूलों सी
लदी टहनी
कहीं
सपना ही ना बन जाएं।
00

लालित्य ललित

(वास्तविक नाम : डॉ. ललित किशोर मंडोरा)

जन्म : 27 जनवरी 1970, दिल्ली

शिक्षा : एम.., पी.एचडी.

प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – गांव का खत शहर के नाम, दीवार पर टंगी तस्वीरें, यानी जीना सीख लिया, तलाशते लोग, कविता संभव(संपादित), इंतज़ार करता घर, चूल्हा उदास है और समझदार किसिम के लोग। इसके अतिरिक्त नवसाक्षरों के लिए 16 पुस्तकें।



अंतरराष्ट्रीय साहित्यिककार्यक्रमों में भागीदारी

1.              चतुर्थ विश्व हिन्दी सम्मेलन, (1993) मारीशस में सबसे कम आयु के भारतीय प्रतिनिधि के रूप में भागीदारी।

2.              टोक्यो यूनिवर्सिटी के तीन दिवसीय कार्यक्रम (हिंदी-उर्दू शिक्षण के 100 वर्ष) 12-14 दिसंबर 2008 (जापान) में भागीदारी।

3.              7-14 मई 2012 के दौरान नाइजीरिया अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया (भारत सरकार) का प्रतिनिधित।

4.              24 जून से 1 जुलाई 2012 के दौरान ताशकंद साहित्य सम्मेलन में भागीदार।

सम्मान

1.              वर्ष 1991-1992 में लगातार दो वर्ष श्रेष्ठ कवि का सम्मान हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार से प्राप्त।

2.              छत्तीसगढ़ (रायपुर) से प्रकाशित सद्भावना दर्पणसाहित्यिक पत्रिका की ओर से वर्ष 2001 में पहले सद्भावना दर्पणपुरस्कार से सम्मानित।

3.              दुष्यंत कुमार राष्ट्रीय संग्रहालय भोपाल द्वारा 6 मार्च 2008 को साक्षरता संवादके कुशल संपादन हेतु पुरस्कृत।

4.              रोटरी क्लब दिल्ली अपटाउन द्वारा 7 जनवरी 2009 को पुरस्कृत।

संप्रति : नेशनल बुक ट्रस्ट(इंडिया) में सहायक संपादक (हिंदी)।

संपर्क : बी-3/43, शकुन्तला भवन,पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110063
फोन(निवास):25265377
मोबाइल: 9868235397

मेल: lalitmandora@gmail.com

7 टिप्‍पणियां:

madhu ने कहा…

Subhashji,
abhee Lalitya lalitji ki kavtayeiN padheeN. behad sahaj aur saral. zindagi ke har pahaloo per nazar hai oonki aur saath hi dunia mein ho rahe har parivartan per nazar hai oonki. lalityaji, bahut bahut badhai aapko aur Subhashji, in kavitaaoN se ahmein roo-b-roo karaane ke liye aabhar.

madhu arora, mumbai.

कुसुम ने कहा…

यूं तो सभी कविताएं सहज और सरल हैं और मन को छूती हैं, पर नई पीढ़ी, पिता और मोमबत्ती-सी मां ने कहीं गहरे छुआ !

ओमप्रकाश यती ने कहा…

भाई सुभाष नीरव जी,
वाटिका टीम द्वारा पुस्तकों का चयन कर उसकी कविताओं को हमारे सामने रखने का कदम स्वागत योग्य है॰ लालित्य ललित जी की कवितायें सचमुच बिना किसी शब्दजाल,बनावट और बड़बोलेपन के हमारे आस-पास की स्थितियों का बयान कर रही हैं॰शन्नो अब्बा का संवाद,यह पीढ़ी,आज की परिभाषा,मोमबत्ती सी माँ,पिता ..एक से एक बढ़कर हैं...लालित्य ललित जी को उनकी अच्छी कविताओं के लिए और आपको उनसे रूबरू कराने लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।

PRAN SHARMA ने कहा…

वाटिका पर लालित्य ललित जी की सभी कवितायें मैं बड़ी आत्मीयता से पढ़ गया हूँ .

यूँ तो सभी कवितायें मन को छूती हैं लेकिन कहीं - कहीं अभिव्यक्ति अस्पष्ट है .

मसलन - ` मोमबत्ती सी पिघलती रही` तो ठीक है लेकिन `मोमबत्ती सी बिखरती `

ठीक नहीं . ` तैरते से सागर में ` का प्रयोग जँचा नहीं . होना तो यूँ चाहिए - ` सागर में

तैरते से .`

ashok andrey ने कहा…

achchhi kavitaen hain unse gujarna ek alag tarah ka ehsaas paida kar gayaa.sundar.

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

लालित्य ललित की सभी कविताएं मन को छुने वाली हैं. बहुत अच्छी कविताओं के लिए कवि को और उन्हें हम तक पहुंचाने के लिए तुम्हें हार्दिक धन्यवाद.

रूपसिंह चन्देल

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बेहतरीन कवितायें जो सीधे मन को छूती हैं ..... आभार यहाँ पढ़वाने का ।