गुरुवार, 31 जुलाई 2008

दस कविताएं– भगवत रावत

1
चिड़ियों को पता नहीं

चिड़ियों को पता नहीं कि वे
कितनी तेज़ी से प्रवेश कर रही हैं
कविताओं में।

इन अपने दिनों में खासकर
उन्हें चहचहाना था
उड़ानें भरनी थीं
और घंटों गरदन में चोंच डाले
गुमसुम बैठकर
अपने अंडे सेने थे।

मैं देखता हूँ कि वे
अक्सर आती हैं
बेदर डरी हुईं
पंख फड़फड़ाती
आहत
या अक्सर मरी हुईं।

उन्हें नहीं पता था कि
कविताओं तक आते-आते
वे चिड़ियाँ नहीं रह जातीं
वे नहीं जानतीं कि उनके भरोसे
कितना कुछ हो पा रहा है
और उनके रहते हुए
कितना कुछ ठहरा हुआ है।

अभी जब वे अचानक उड़ेंगी
तो आसमान उतना नहीं रह जाएगा
और जब वे उतरेंगी
तो पेड़ हवा हो जाएंगे।

मैं सारी चिड़ियों को इकट्ठा करके
उनकी ही बोली में कहना चाहता हूँ
कि यह बहुत अच्छा है
कि तुम्हें कुछ नहीं पता।

तुम हमेशा की तरह
कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो
चहचहाओ
और बेखटके
आलमारी में रखी किताबों के ऊपर
घोंसले बनाकर
अपने अंडे सेओ।

न सही कविता में
पर हर रोज़
पेड़ से उतरकर
घर में
दो-चार बार
ज़रूर आओ-जाओ।
0

2
थक चुकी है वह

इतनी थक चुकी है वह
प्यार उसके बस का नहीं रहा
पैंतीस बरस के
उसके शरीर की तरह
जो पैंतीस बरस-सा नहीं रहा

घर के अंदर
रोज़ सुबह से वह
लड़ती-झगड़ती है बाज़ार से
और बाज़ार में रोज़ शाम
घर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते खो जाती है।

रोटी बेलते वक्त अक्सर वह
बटन टाँक रही होती है
और कपड़े फींचते वक्त
सुखा रही होती है धूप में
अधपके बाल।

फिरकी-सी फिरती रहती है
पगलायी वह
बच्चों को डाँटती-फटकारती
और बिना बच्चों के सूने घर में
बेहद घबरा जाती है।

कितना थक चुकी है वह ।

मैं उसे एक दिन
घुमाने ले जाना चाहता हूँ
बाहर
दूर...
घर से बाज़ार से
खाने से कपड़ों से
उसकी असमय उम्र से।
0

3
चट्टानें

चारों ओर फैली हुईं
स्थिर और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।

चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने आपको
उठता है और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूँधता है।

आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।

अंत में आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी तरह बेख़बर
चट्टानें पहली बार अपने बीच से
कुछ गुजरता हुआ
महसूस करती हैं।
0

4
करुणा

सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं
न चन्द्रमा की ठंडक में
लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है
कि दुनिया में
करुणा की कमी पड़ गई है।

इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ़ पिघल नहीं रही
नदियाँ बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे
चिड़ियाँ गा नहीं रहीं, गायें रँभा नहीं रहीं।

कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं
कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके
और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके।

दरअसल पानी से होकर देखो
तभी दुनिया पानीदार रहती है
उसमें पानी के गुण समा जाते हैं
वरना कोरी आँखों से कौन कितना देख पाता है।

पता नहीं
आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए
कैसी हवा कैसा पानी चाहिए
पर इतना तो तय है
कि इस समय दुनिया को
ढेर सारी करुणा चाहिए।
0

5
किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएं
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलाँघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराये।

जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्किल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान !
0

6
लौटना

दिन भर की थकान के बाद
घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग
भले लगते हैं।

दिन भर की उड़ान के बाद
घोंसलों की तरफ लौटतीं चिडियाँ
सुहानी लगती हैं।

लेकिन जब
धर्म की तरफ़ लौटते हैं लोग
इतिहास की तरफ़ लौटते हैं लोग
तो वे ही
धर्म और इतिहास के
हत्यारे बन जाते हैं।

ऐसे समय में
सबसे ज्यादा दुखी और परेशान
होते हैं सिर्फ़
घरों की तरफ़ लौटते हुए लोग
घोंसलों की तरफ़ लौटती हुई
चिडि़याँ।
0

7
पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों

पल-पल के हिसाब वाले इन दिनों
यह अचरज की बात नहीं तो और क्या
कि आपकी बेटी के ब्याह में आपके बचपन का
कोई दोस्त अचानक आपकी बगल में
आकर खड़ा हो जाए।

न कोई रिश्तेदारी, न कोई मतलब
न कुछ लेना-देना, न चिट्ठी-पत्री
न कोई ख़बर
न कोई सेठ, न साहूकार
एक साधारण-सा आदमी
पाटता तीस-पैंतीस से भी ज्यादा बरसों की दूरी
खोजता-खोजता, पूछता-पूछता घर-मोहल्ला
वह भी अकेला नहीं, पत्नी को साथ लिए
सिर्फ़ दोस्त की बेटी के ब्याह में शामिल होने चला आया।

मैंने तो यूँ ही डाल दिया था निमंत्रण-पत्र
याद रहे आए पते पर जैसे एक
रख आते हैं हम गणेश जी के भी पास
कहते हैं बस इतना-सा करने से
सब काम निर्विघ्न निबट जाते हैं।

खड़े रहे हम दोनों थोड़ी देर तक
एक दूसरे का मुँह देखते
देखते एक दूसरे के चेहरे पर उग आई झुर्रियाँ
रोकते-रोकते अपने-अपने अन्दर की रुलाई
हम हँस पड़े
इस तरह गले मिले
मैं लिए-लिए फिरता रहा उसे
मिलवाता एक-एक से, बताता जैसे सबको
देखो ऐसा होता है
बचपन का दोस्त।

तभी किसी सयाने ने ले जाकर अलग एक कोने में
कान में कहा मेरे
बस, बहुत हो गया, ये क्या बचपना करते हो
रिश्तेदारों पर भी ध्यान दो
लड़की वाले हो, बारात लेकर नहीं जा रहे कहीं।

फिर ज़रा फुसफुसाती आवाज़ में बोले
मंडप के नीचे लड़की का कोई मामा आया नहीं
जाओ, मनाओ उन्हें
और वे तुम्हारे बहनोई तिवारी जी
जाने किस बात पर मुँह फुलाए बैठे हैं।


तब टूटा मेरा ध्यान और यकायक लगा
कैसी होती है बासठ की उम्र और कैसा होता है
इस उम्र में तीसरी बेटी को ब्याहना।

खा-पीकर चले गए रिश्तेदार
मान-मनौवले के बाद बड़े-बूढ़े मानदान
ऊँचे घरों वाले चले गए अपनी-अपनी घोड़ा गाडि़यों
और तलवारों-भालों की शान के साथ।

बेटी को विदा कर रह गया अकेला मैं
चाहता था थोड़ी देर और रहना बिलकुल अकेला
तभी दोस्त ने हाथ रखा कंधे पर
और चुपचाप अपना बीड़ी का बंडल
बढ़ा दिया मेरी तरफ़
और मेरे मुँह से निकलते-निकलते रह गया
अरे, तू कब आया ?
0

8
जब कहीं चोट लगती है

जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह
दूर छूट गए पुराने दोस्त याद आते हैं।

पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं
सिर्फ़ हम उन्हें छोड़कर निकल आते हैं उनसे बाहर।

जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे
तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना
कनेर का पेड़ याद आता है।

देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक
तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आंगन याद आता है
मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है
बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है।

हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से लगा लेते हैं
हम उनके कन्धे पर सिर रखकर रोना चाहते हैं
वे हमें रोने नहीं देते।

और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है
उसे हम कभी देख नहीं पाते।
0

9
हमने उनके घर देखे

हमने उनके घर देखे
घर के भीतर घर देखे
घर के भी तलघर देखे
हमने उनके
डर देखे।
0

10
वह कुछ हो जाना चाहता है

तमाम उम्र से आसपास खड़े हुए
लोगों के बीच
वह एक बड़ी कुर्सी हो जाना चाहता है
अन्दर ही अन्दर
पल-पल
घंटी की तरह बजना चाहता है
फोन की तरह घनघनाना चाहता है
सामने खड़े आदमी को
उसके नंबर की मार्फ़त
पहचानना चाहता है
वह हर झुकी आँख में
दस्तख़्त हो जाना चाहता है
हर लिखे काग़ज़ पर
पेपरवेट की तरह बैठ जाना चाहता है
वह कुछ हो जाना चाहता है।
0

जन्म : 13 सितम्बर 1939, जिला–टीकमगढ़, मध्यप्रदेश।
शिक्षा : एम.ए. बी.एड।
1983 से 1994 तक हिन्दी के रीडर पद पर कार्य के बाद दो वर्ष तक ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के संचालक। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानिविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष। साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश परिषद् के निदेशक रहे एवं मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – समुद्र के बारे में(1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह(1988), सुनो हिरामन(1992), सच पूछो तो(1996), बिथ-कथा(1997), हमने उनके घर देखे(2001), ऐसी कैसी नींद(2004), निर्वाचित कविताएं(2004)। आलोचना– कविता का दूसरा पाठ(1993)। मराठी, बंगला, उडि़या, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में कविताएं अनूदित।
सम्मान : दुष्यंत कुमार पुरस्कार(1979), वागीश्वरी पुरस्कार(1989), शिखर सम्मान(1997–98)
सम्पर्क : 129, आराधना नगर, भोपाल–462 003
फोन : 0755–2773945

27 टिप्‍पणियां:

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

सुभाष जी बहुत ही अच्‍छी रचनाएं कायल हूं आपकी लेखनी का सलाम स्‍वीकार करो
बहुत अच्‍छी रचनाएं पढवाई आपने बहुत बहुत धन्‍यवाद

पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं
सिर्फ़ हम उन्हें छोड़कर निकल आते हैं उनसे बाहर।

Unknown ने कहा…

सुभाष- वाटिका में आप बहुत अच्छा संकलन इकट्ठा कर रहे हैं -बहुत धन्यवाद - साभार -मनीष

Mamta Swaroop Sharan ने कहा…

Sir,

Wonderful creation!
I don't have words to express... all sort of emotions are captured here.

Mr Rawat reading your poetries was a pleasant ride!

Regards,

Mamta

वर्षा ने कहा…

बहुत सुंदर कविताएं हैं। ख़ासतौर पर...किसी तरह दिखता रहे थोड़ा आसमान और करुणा।

Chhaya ने कहा…

Sach mein aaj ki iss bhagan bhag ki dunia mein Subhash ji yeh kavitain, mughey mere sans lene jaisi lagti hein.
pad ke lagta hai ki, dunia mein shukar hai kuch log to aise hein jo bhawnaon ko mehsus karte hein...
Thanks agian for your such a good blog.....

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ ने कहा…

मैं सारी चिड़ियों को इकट्ठा करके
उनकी ही बोली में कहना चाहता हूँ
कि यह बहुत अच्छा है
कि तुम्हें कुछ नहीं पता।

marmsparshi kavitaayeN.

Devi Nangrani ने कहा…

Subash ji
Bhagwat rawat ji se v unki rachnaon se roobaroo hokar sukhad anand ho raha hai, rachnaion se sachaian jhank rahi hai. Bahut sunder!!!

हमने उनके घर देखे
घर के भीतर घर देखे
घर के भी तलघर देखे
हमने उनके डर देखे।
Devi

seema gupta ने कहा…

" its really my pleasure to get a chance to ready few of poems of Mr.BHAGWAT RAWAT all are great and lovable. "
Thanks a lot Shubash jee for your great efforts.

Regards

बेनामी ने कहा…

Bahut hi arth bhari kavitaayen hain, dhanyawaad inse rubru karwane ki khaatir

-Rashmi Prabha
rasprabha@gmail.com

बेनामी ने कहा…

भगवत रावत की सभी कविताएँ प्रभावित करती हैं। चिड़िया हिंदी की अनेक कविताओं और कहानियों की मुख्य-पात्र रही है। कथा-सम्राट प्रेमचन्द को भी चिड़िया आकर्षित कर चुकी है और मुझ जैसे साधारण को भी। इस टिप्पणी के बहाने चिड़िया पर लिखी अपनी यह कविता भेज रहा हूँ:
बालक ने चिड़िया को छुआ
चिड़िया चिहुँकी
फुदकी
उड़ी--फुर-फुर
बालक ने आज़ादी को छुआ।

बहरहाल, भगवत जी स्तरीयता का निर्वाह करने वाले कवि हैं। उनको व आपको दोनों को बधाई।
-बलराम अग्रवाल

तसलीम अहमद ने कहा…

la jawaab,
subhash ji,bhagwat ji ki kavitain, dil ko chho gain. khaskar-
हमने उनके घर देखे
घर के भीतर घर देखे
घर के भी तलघर देखे
हमने उनके
डर देखे।
aur thak chuki vah, bahoot achhi lagi. badhai.

बेनामी ने कहा…

Subhash jee,
Wah kya baat hai,Vaatika par bhagwat Rawat kee dus chunindaa kavitayen padh kar anand aa gayaa .Kavi kee achhee kavitaayen baanch kar man ko achha lagtaa hai.Bhavishya mein bhee unkee chunindaa kavitayen uplabdh karvaayen.

-Pran Sharma

सुभाष नीरव ने कहा…

भगवत रावत जी हिन्दी के एक वरिष्ठ कवि हैं और उनकी कविताएं पाठकों से तुरन्त संवाद स्थापित कर लेती हैं। इसका नमूना "वाटिका" में प्रकाशित उनकी दस कविताएं भी हैं। जैसे ही ये "वाटिका" में पोस्ट हुईं, उसके घंटेभर बाद से ही पाठकों की टिप्पणियां आनी आरंभ हो गईं। जो कम्प्यूटर पर टिप्पणी देना नहीं जानते, उनके फोन आने आरंभ हो गए। भगवत रावत जी से मैं कभी नहीं मिला। उनकी एक किताब "भगवत रावत- निर्वाचित कविताएं" मैंने कभी करनाल में आयोजित लघुकथा गोष्ठी में खरीदी थी। इसे बहुत ही सस्ते दाम में विकास नरायण राय जी ने साहित्य उपक्रम के अन्तर्गत "इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद" से प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में भगवत जी के पुराने कविता संग्रहों से कविताएं ली गई हैं और कुछ नई कविताओं को भी शामिल किया गया है।
इसी पुस्तक से मैंने दस कविताओं का चयन करके भगवत जी की अनुमति से "वाटिका" में प्रकाशित किया है। मुझे खुशी है कि मेरे चयन को आप सभी ने पसन्द किया। भगवत रावत जी इन दिनों डॉयलिसिस पर रहते हैं पर रचनात्मक ऊर्जा अभी भी उनमें ज्यों कि त्यों है। अभी पिछ्ले दिनों उनकी "दिल्ली" पर लिखी कविता काफ़ी चर्चा में रही है। मैं मोहन वशिष्ठ जी, जोशिम जी, ममता जी, द्विज जी, देवी जी, सीमा गुप्ता जी, रश्मि प्रभा जी, बलराम अग्रवाल जी, तसलीम अहमद जी और प्राण शर्मा जी का बहुत बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने भगवत जी की कविताओं पर अपनी बेबाक टिप्पणियाँ दीं।

Sushil Kumar ने कहा…

भाई सुभाष नीरव जी,भगवत रावत जी की कविता को ’वाटिका’ में लाकर आपने हिंदी काव्य-जगत का मान बढ़ाया है। दिल्ली की आबोहवा पर उनकी लंबी कविता पिछ्ले दिनों काफ़ी लोकप्रिय हुई थी जिसने कवियो-पाठकों ने संजीदा होकर पढ़ा और सराहा। मै तो कविता में उनकी संवाद-शैली का कायल रहा हूँ। कभी उन पर काव्यात्मकता पर गहराई से लिखूंगा भी। भगवान से उनके स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ, ईश्वर उन्हें लंबी उम्र दे। -सुशील कुमार(sk.dumka@gmail.com)

Sushil Kumar ने कहा…

भाई सुभाष जी, सही कहा आपने कि - "भाई सुशील जी, बहुत-बहुत धन्यवाद। भगवत जी के बारे में आपने ठीक कहा। वह कवि ही ऐसे हैं। मुझे उनकी कविताएं आरंभ से ही अच्छी लगती रही हैं।"
इस प्रसंग में मुझे याद आ रहा है कि'नया ज्ञानोदय' में उनकी वह कविता जो दिल्ली की आबोहवा पर दृष्टिगत हुई थी, अपनी बीमारी से लड़ते हुए ही उन्होंने लिखी थी और उन्होंने उसके संपादक कालिया जी को भी अनुरोध किया था कि किसी कारण से से यदि वे उसे 'नया ज्ञानोदय' में स्थान नहीं दे पायें तो यह बात सिर्फ़ उनके और कालिया जी के ही बीच सीमित रहे। यह एक कवि के ही उज्ज्वल-धवल मन की पराकाष्ठा और एक ठोस चरित्र की ही पहचान हो सकती है जो यहाँ'वाटिका' में छपी उनकी एक कविता के ही के शब्दों में स्वलक्षित है--
"एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।

चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने आपको
उठता है और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूँधता है।

आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।"
----और यह एक ऐसे ही महान कविमन के अंतस की चरम अभिव्यक्ति हो सकती है !
-सुशील कुमार(sk.dumka@gmail.com)

Sushil Kumar ने कहा…

भाई सुभाष नीरव जी, मै यहाँ भगवत रावत जी का वह विनय-पत्र ही पाठकों के समक्ष मूल रुप में रखना चाहता हूँ जिसे उन्होंने अपनी लंबी कविता "कहते हैं कि दिल्ली की आबोहवा है कुछ और" (जो कुल चौदह खंडों में है) अपनी बीमारी के दौरान लिखकर भाई रविन्द्र कालिया जी(संपादक-’नया ज्ञानोदय’) को प्रकाशन के लिये भेजते हुए लिखा था-
"प्रिय भाई रविन्द्र कालिया जी,
मैं ये कविता आपके पास इस गरज़ से सचमुच नहीं भेज रहा हूँ कि यह छप ही जाय। पिछले लगभग एक वर्ष से ज़्यादा समय से अपनी लंबी बीमारी के दौरान बीच-बीच में इस कविता के अंश लिखता रहा हूँ। मेरी आपसे प्रार्थना यह है कि आप इसे एक बार मनोयोग से पढ़ लें। यह कविता बीमारी के बीच-बीच में बड़ी मुश्किल से लिखी गयी पर यह बीमारी की मानसिकता से मुक्त है - क्योंकि यह लंबे सोच-विचार का प्रतिफल है। इसे मैंने अप्रील 2006 में लिखना शुरु किया था। और और इसे अंतिम रुप दिया अभी मई 2007 में।
अगर आपको यह इस योग्य(किसी भी कारण से) न लगे कि इसे प्रकाशित किया जाय तो यह आप और मेरे बीच ही रहे। उम्मीद है आप मेरी बात की रक्षा करेंगे। हर डायलिसिस के बाद दो या तीन दिन का समय मिलता है जिसमें कुछ लिख- पढ़ सकूँ। इसके बाद हफ़्ते में दो बार उसकी तलवार लटकी ही रहती है।
उम्मीद है कविता पढ़ने के बाद फुरसत से मुझे फोन ज़रुर करेंगे।"
इसे पढ़कर कोई कह सकता है क्या कि इतने वरिष्ठ कवि के अंदर अहमन्यता का लेशमात्र भी विद्दमान है? आज के कवियों को इस वाक्या से सीख लेने की ज़रुरत है।
--सुशील कुमार(sk.dumka@gmail.com)

बेनामी ने कहा…

Subhasji, Bhagwat Ravatji chidiyon ne dil me need bna liya.

Ila ने कहा…

subhash ji,
aaj gavaksh.blogspot par gayi to jaana ki kitna kuch , behad sundar , padne se rah gaya tha. Bhagwat Rawat ji ko padti rahi hun, naya jyanoday main bhi pada. kayal hun unki lekhni ki.
chayanit kaviatein apne ko ek saans main padwa le gayin.

Dhanyawaad .
is ank main chapi Ranjana ji ki kaviatein bhi acchi hain.

Ila

उम्मतें ने कहा…

प्रिय सुभाष ,
बहुत पहले 'सेतु साहित्य' के लिए ईमेल किया था !
आज फ़िर से कह रहा हूँ आपके 'ब्लाग्स' में विचरना अच्छा लगता है !

आज "वाटिका" से गुज़रते हुए रंजना
(की कविताओं) को देखा ,कवितायें बहुत अच्छी हैं
मगर आप रंजना से कहें कि उनका 'ईश्वर' पुरूष ही क्यों है ? कभी 'ईश्वर' को स्त्री रूप (मातृ शक्ति) में भी देखें ?

भगवत रावत 'सीजंड' कवि हैं उन्हें प्रणाम कहें !

और हाँ 'हरकीरत' को 'हक़ीर' होने से मना कीजिये वो तो अच्छा खासा लिख रही हैं !

एक बात और ..... अपनत्व का अनुभव कर 'जी' नहीं लिखा है अगर चाहें तो सुभाष को छोड़कर सभी नामों के सामने 'जी' लगा दीजियेगा !

फ़िर से शुभकामनाओं सहित !
अली !

ranjana ने कहा…

Bhagwat Rawat ki kavitaayen---- jiwan ko dekhe jaane ka alag andaj va jiwan ke bich ke jiwan ko saheje jaane ki sampurn chesta bhi

....darasal pani se hokar dekhen
tabhi dunia panidar rahti hai

ya phir...etani thak chukki hai vah
pyar usake bas ka nahin raha

thanks 4 these beautiful poetries

Sushil Kumar ने कहा…

आदरणीय सुभाष नीरव जी, आखिरकार आपके माध्यम से उस महान काया-कवि से यानि भगवत रावत जी से बातें हो ही गयी जिसके लिये मैं आजीवन आपका ऋणी रहूँगा। उन्होंने आज 20/08/2008) की रात लगभग नौ बजे फोन किया।
"एक वह मनुष्य जो जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर खड़ा होकर अपनी मौत को हँस रहा हो,उनके अदम्य जिजीविषा की ओर इंगित करता है।" उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछते समय उन्होंने हँसकर कहा कि एक किड्नी तो तीस साल पहले ही खराब हो गयी थी जिसे निकाल दिया गया था। दूसरी किड्नी से अब तक चल रहे थे। इतनी तो किसी की पत्नी भी साथ नहीं निभा पाती। अब वह भी नाकाम हो गयी है। अभी उन्हें दिन में चार बार चार घंटे के अंतराल पर डायलिसिस में जाना पड़ता है और दवाईयाँ लेनी पड़ती है। यह सब सुनकर मैं हतप्रभ रह गया कि फिर भी पूरी वार्ता के दरम्यान वे हँसते ही रहे मानो उस महात्मा ने मृत्यु पर जीते जी विजय प्राप्त कर लिया हो। -सुशील कुमार(sk.dumka@gmail.com)cont'd

Sushil Kumar ने कहा…

cont'd--आगे उन्होंने बताया कि'परीकथा' (दिल्ली,सं-शंकर जी) के नवम्बर-दिसम्बर,२००८ अंक में उनकी लंबी कविता' बम्बई नहीं मुम्बई है रेसकोर्स' और आलोचना अंक-27 'देश के नाम संदेश' कविता आने वाली है। यह उस कवि के चरम जीवन-संघर्ष में गहरे सने-गुँथे काव्य-संघर्ष की गाथा को भी देदीप्यमान करता है जिसके लिये किसी कवि के सच्चे होने का कोई सबूत नहीं, बल्कि, बस दिल में एक आह-सी भर जाती है कि दैव यह तुने क्या किया! जीवन की सांध्य-बेला में भी शब्द-कर्म की हवि कोई झोंक रहा है अपने स्वाँसों की आहुति में !!मेरी आँखों में बरबस आँसू भर आये उनकी बातें सुन-सुन ,और वे हैं कि हँसते जा रहे हैं! यह कविमन का तेज ही है जो ईश्वर को भी अपने कर्म से चुनौती दे रहा है।
सचमुच उनके व्यक्तित्व ने आज मुझे भीतर से बहुत झिंझोर दिया। मैं कई वरिष्ठ कवियों पर काम कर रहा था। पर उनसे बात करके लगा कि सब छोड़कर पहले मुझे उन पर ही लिखना चाहिए वर्ना मैं अपने-आप को माफ़ नहीं कर पाऊँगा।
मै कल ही उनकी 'अम्मा से मेरी बातें और लंबी कविताएँ' कविता-संग्रह राजकमल से मंगवाऊँगा और मेरे अनुरोध पर अपनी निर्वाचित कविताएँ उन्होंने स्वयं भी भेजने की पेशकश की है।पूरी बातचीत के क्रम में वे बार-बार मेरा ही हाल-समाचार पुछ रहे थे,जैसे उनसे पहले भी मिला हुआ हूँ और उनका बहुत आत्मीय रहा हूँ। यह कवि नहीं एक महामानव का भी गुण है। भगवान उनको शांति और शेष जीवन में स्वस्थ रखें,यही आरजू है।-सुशील कुमार(sk.dumka@gmail.com)

Ria Sharma ने कहा…

Wonderful collection..Rawat ji kee prabhavit karti sundar rachnayen !!ik baar punhh padhkar tippani karungi..
Sadar!

कविता रावत ने कहा…

आपने भगवत रावत जी की बहुत अच्‍छी रचनाएं पढवाई....
बहुत बहुत धन्‍यवाद

बेनामी ने कहा…

Mujhe bhagwat rawat ji ki kavita padhkar bhut achha lga. Mujhe apni m.phil.(hindi) rawat ji pr krne ka mouka mila pr mera durbhagya ki m un pr m.phil. nhi kr paya.

Unknown ने कहा…

परम आदरणीय मेरे रावत सर की शिष्या बनने का सौभाग्य मिला है मुझे,1985 से1988 क्षेत्रिय शिक्षा महाविद्यालय में,सर के संरक्षण में रही,मुझे भी कवितायेँ लिखने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहें,कालेज मैगजीन में भी मेरी कृति को प्रोत्साहित करते रहें ।रावत सर को शत शत नमन ।
सर की रचनाये तो हम कालेज में भी सुनते थे। सर के पढ़ाने का अंदाज़ ही कुछ अलग था ।भवानीप्रसाद मिश्र जी की एक कविता सन्नाटा आज भी मुझे याद है,सर ने कुछ इस तरह पढ़ाया था,जो में कभी नहीं भूल सकती ।

Unknown ने कहा…

परम आदरणीय मेरे रावत सर की शिष्या बनने का सौभाग्य मिला है मुझे।1985 से 1988 तक क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय भोपाल में सर के संरक्षण में रही, मुझे भी कविताएँ लिखने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहे, कॉलेज मागज़ीन में भी मेरी कृति को प्रोत्साहित करते रहे। भवानीप्रसाद मिश्र जी की कविता 'सन्नाटा' मुझे अज भी याद है, सर के पढ़ने का अंदाज़ अलग था।एक बार फिर परम आदरणीय गुरूजी को शत शत नमन।