गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

वाटिका – अप्रैल 2013



वाटिका” – समकालीन कविता के इस उपवन में भ्रमण करते हुए अभी तक आप अनामिका, भगवत रावत, अलका सिन्हा, रंजना श्रीवास्तव, हरकीरत हीर’, सुरेश यादव, कात्यायनी, रामेश्वर काम्बोजहिमांशु’, डॉ. अरविन्द श्रीवास्तव, इला प्रसाद, जेन्नी शबनम, नोमान शौक, ममता किरण, उमा अर्पिता, विपिन चौधरी, अंजू शर्मा और सुनीता जैन की कविताएं तथा राजेश रेड्डी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, रामकुमार कृषक, आलोक श्रीवास्तव, सुरेन्द्र शजर, अनिल मीत, शेरजंग गर्ग, लता हया, ओमप्रकाश यती, रंजना श्रीवास्तव, नरेश शांडिल्य और हरेराम समीप की ग़ज़लें पढ़ चुके हैं।
 इस बार वाटिका के अप्रैल 2013 अंक के लिए हमने चुनी हैं, हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री एवं कथाकार डॉ. कमल कुमार की दस कविताएं। मुझे यकीन है कि ये कविताएं अपनी संवेदनाओं के चलते आपसे संवाद करेंगी और आप कुछ देर इनके साथ अपना समय बिताना पसंद करेंगे। अपनी बहुमूल्य निष्पक्ष प्रतिक्रिया से यदि आप हमें अवगत कराएंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
-सुभाष नीरव


डॉ. कमल कुमार की दस कविताएँ

(1)
अच्छी लड़कियाँ

अच्छी लड़कियाँ अक्सर
होती हैं गाय
जिनकी हरियाली को
मुँह मारते चर जाते हैं दोपाये

घुट्टी के साथ पिलायी गई सीख
डरने-मरने और घास चरने की
इस इबारत को –
रबड़ से रगड़ कर नहीं मिटाया जा सकता
फूटे बर्तनों-सी बेकार
अपनी सुविधा की टाँट पर टाँग दिया
उसकी महत्वकांक्षा को

इच्छा, चाह या तृप्ति पाप है
तुम्हारे लिए
तुम, तुम नहीं हो
तुम मेरी वह हो… उनकी वह… उनकी वह
और उनकी… और उनकी… और उनकी
दरख़्तों के साथ परछाइयाँ भी काट ली हैं

धर्मग्रंथों के सड़े तथ्यों की बदबू
उफनती नदी में
फूल आयी लाश-सी तैरती है
अब इस लाश की एक सदी और
तहकीकात होगी।

(2)
घर लौटी लड़की(एक)


धकियाई गई बेघर लड़कियाँ
लौट आई हैं
दरवाज़ों खिड़कियों में उग आईं
आँखों की चिंगारियों को
झेलती खड़ी हैं निष्कवच

बेआवाज़ खटखटाती हैं दरवाज़ा
नहीं भी खुल सकते कपाट
घर की परिभाषा की भूल-भुलैया में
खोई लड़कियाँ चकोरों में धँसी
नहीं ढूँढ़ पाती रास्ता
कोनों में सिकुड़े काग़ज़-सी टिकी हैं
पहिये निकाली गाड़ी पर
उन्हें बहुत दूर जाना है।

(3)
घर लौटी लड़की(दो)


बेघर बेइज्ज़त लौटी है लड़की
पीड़ा से टीसती अकेली
समय भर देगा घाव
घावों के निशान भी

बुरे सपने-सा भूल जाओ
उसे कहा गया
पर सपना फैला है खुली आँखों में
भयानक यंत्रणा का

धमकियों से सुखाई गई लड़की
कैसे देखेगी सपना
भीगे आसमान में इन्द्रधनुष का
खिले फूल पर डोलती तितली का
नीले आसमान से उतरती सुनहली धूप का

बेआवाज़ लतियाई जा रही लड़की
सपनों से डरी
खुली आँखों में सोती है।

(4)
घर लौटी लड़की(तीन)


वह घर लौटी है
घर से लौट गया है वसंत
वह लौटी है
बाहर ठहर गई है धूप
ठहर गए सहेलियों के ठहाके

बारिश रुक गई है
कीचड़ में धँसी काग़ज़ की किश्ती
उसे चाहिए प्रवाह, आकाश
बादल की छाँह और
एक इन्द्रधनुष
भीतर की नमी में पनप सके
जीवन के विश्वास का बीज।

(5)
घर लौटी लड़की(चार)
बैठक में टँगे
शादी के बाद के चित्र को
दीवार से उतारकर
उसने अल्मारी के दराज में बंद कर दिया
खाली जगह पर ठहर गया है समय

घर के दरवाज़ों, दीवारों, छतों पर
चक्कर लगाता समय
बाहर निकलने का रास्ता तलाशता है
आसान नहीं होता घरों की खंदकों को लांघना
पर तो भी
सोच एक दरवाज़ा है
उसे वहाँ तक तो जाना ही है।

(6)
इन्तज़ार

औरतें इन्तज़ार करती हैं
पतियों का
बेटों का
नाती-पोतों का

औरतें इन्तज़ार करती हैं
सुबह का
धूप का
चाँदनी का

औरतें इन्तज़ार करती हैं
फल्गुन का
वसन्त का
सावन का

उनका इन्तज़ार डूबता इन्तज़ार में
मौसम के विरुद्ध लड़ाई में
दाल, चावल, गेहूं सुखाने
पापड़, बड़ियाँ, अचार को
धूप दिखाने
गर्म और ठंडे कपड़ों को बारी-बारी
खोलने और तहाने में
बुझी आँखों और बियाबान चेहरों
थके कदमों वाली औरतें
इन्तज़ार के कब्रिस्तान में
ठहरी परछाइयाँ हैं।


(7)
माँ


टुकड़ा-टुकड़ा धूप
बटोरती है माँ आँगन में
सूखते अनाज, मसालों और
अचार के मर्तबानों में

एक टुकड़े धूप पर बैठ
बुनती है सलाइयों पर समय
एक-एक फंदे में, सीधा-उल्टा
उल्टा-सीधा बनता है पैटर्न
छत पर खुली धूप में
भीगी निचोड़ी देह-सा
फैला सुखाती है कपड़ों को

जब हम छोटे थे
माँ नाचती थी फिरकनी-सी
धूप का रंग
नल की धार पर कपड़े धोती
हमें नहलाती, दुलराती, फुसलाती
बहलाती खेलती थी
हमारे संग-साथ

समय के पंखों पर उठती गईं
इमारतें, पेड़ और हम बड़े हुए
धूप अब टुकड़ा-टुकड़ा कटती
आती है आँगन में

माँ खटोले पर बैठकर
तुपका-तुपका चुनती है धूप
अचार और मसालों पर
जिन्हें वह सील और पैक कर भेजेगी
देश और विदेश में हमारे पास
फिर बैठ जाएगी
धूप के एक टुकड़े पर
सलाइयों पर उतारती समय को
झुर्राई देह और सफ़ेद बालों में
हड्डियों में टीसते दर्द को सहलाने
लेट जाएगी धूप में
सूखते जाते एक टुकड़े पर
धूप-सी माँ !

(8)
औरतों का सूरज


औरतें नहीं करती प्राणायाम
न सूर्य नमस्कार, न देती हैं अर्घ्य
मुँह अँधेरे उठ कूटती-पछाड़ती
फींचती हैं मैले कपड़े
रात की मैल धो उजसा देती हैं
आँगन के बाहर रस्सियों पर
सूरज नहीं चमकता उनके माथे पर
पीठ पर पड़ती हैं किरणें
सूखे भीगे बालों को बाहती-काढ़ती हैं

निवृत्त हो रसोई से
दो घड़ी बाद आ उलटती – पलटती हैं
धूप को बटोरती हैं कपड़ों पर

उतरता है सूरज आँगन में
खिलखिलाती है धूप
वे नहीं बढ़ातीं हाथ
अधसूखे वस्त्रों को संभालती
बिला जाती हैं भीतर

रंग-बिरंगे सपने बिखरा
सूरज अब लेता है विदा
वे नहीं बुनतीं सपने
उतारती हैं रस्सियों से सूखे वस्त्र
बंद कर लेती हैं किवाड़
बंद दरवाज़ों के भीतर
उगता और मुरझा जाता है सूरज
वे रहती हैं निर्विकार।

(9)
पीठ पर पहाड़


मोटी रस्सियाँ गले में डाले
वे मार्केट के सामने फुटपाथ पर बैठे
बिकाऊ हैं – रस्सी में बाँधे
लकड़ी के कुंदे, बेड, फर्नीचर
घरेलू सामान या कुछ भी
इन्हें फर्क नहीं पड़ता
पहाड़ी रास्तों पर चढ़ते हैं धीरे-धीरे
रुकते है कुछ देर, फिर चढ़ने लगते हैं

वह कोसों चलकर आया है
पता पूछ रहा है, पता गलत है
घर बंद है, वहाँ कोई नहीं रहता
वह पढ़-लिख नहीं सकता
पते की पर्ची वापस उसने
जेब में खोंस ली है
रस्सी से बोझा कसकर
वह खड़ा हुआ है
फटे स्वेटर में उसकी
पुष्ट मांसपेशियाँ चमक रही हैं
उसके पुट्ठे और रानें सख़्त हैं
वह अभी जवान है
खाँसी का दौरा शुरू नहीं हुआ
लापरवाह उतरने लगा है पहाड़ी।

(10)
सब सुखी हैं


पीली रोशनी में धुँधले चेहरों
विन्रम और मुलायम स्वभाव
सलीके वाली नैतिकता की प्रतिमूर्तियाँ
गीली सुलगती लकड़ियाँ हैं
पसीने से नहाई
खून के गीली
सीलन भरी खन्दकों में दुबकी
गाँव और शहर की बस्तियों के
अँधेरे में अनकही त्रासद गाथाएँ हैं
वे निश्चिंत और बेफिक्र हैं
सब अपने घरों में हैं
सब सुखी हैं।
00

डॉ. कमल कुमार
हिंदी की वरिष्ठ लेखिका
कहानी, उपन्यास, कविता, आलोचना और स्त्री-विमर्श की अब तक 29 पुस्तकें प्रकाशित। छह कहानी संग्रह, छह उपन्यास, चार कविता संग्रह, आठ आलोचना की पुस्तकों। कई रचनाओं/कृतियों का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित। अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंसों में आलेख पाठ। इनकी बहुत-सी कहानियों, कविताओं पर कई विश्वविद्यालयों में अनेक शोधार्थियों ने एम.फिल और पी.एचडी की है। इनकी कहानी जंगलऔर समयबोधपर फिल्में भी बनीं हैं। लगभग पूरे भारत के साथ-साथ हॉलेंड, फ्रांस, थाइलैंड, बैंकाक, सिंगापुर, मलेशिया, आस्ट्रेलिया आदि देशों की यात्राएं। अनेक राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित जिनमें साहित्यकार सम्मान, हिंदी अकादमी(दिल्ली), साहित्य भूषण, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, साधना श्रेष्ठ सम्मान, मध्य प्रदेश, साहित्य श्रेष्ठ सम्मान (बिहार), प्रवासी भारतीय साहित्य और कला सभा, जार्जिया, अटलांटा (अमेरिका) द्वारा रचनाकार सम्मान, साहित्य सम्मान, बुद्धिजीवी और संस्कृति समिति (उत्तर प्रदेश), ‘अस्मिताप्रवासी भारतीयों की अमेरिका में साहित्य सस्थान द्वारा घर और औरतशृंखला की कविताओं पर सम्मान। साहित्य भारती सम्मान, हिंदी साहित्य सम्मेलन (प्रयाग), मुक्तिबोध राष्ट्रीय सम्मान, साहित्य अकादमी और संस्कृति परिषद (भोपाल, म.प्र.) आदि प्रमुख हैं।
सम्पर्क: डी-38, पे्रस एन्कलेव, नई दिल्ली-110017
फोन: 26861053, मो. 9810093217
ई मेल  kamalxyz@hotmail.com       

6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

लगभग सभी कविताएं स्त्री पर केन्द्रित है और सुन्दर हैं। मन को छूती और झकझोरती हैं।

PRAN SHARMA ने कहा…

Kamal kumar kee kavitaayen padh kar bahut achchhaa lagaa hai. Bhavanuroop bhasha aur bhashanuroop bhaavon ke liye unhen
dheron badhaaeeyaan aur shubh kamnaayen .

mridula pradhan ने कहा…

behad sunder......

प्रदीप कांत ने कहा…

ये कविताएँ स्त्री विमर्श का कोरा ढिंढोरा नहीं पीटती वरन स्त्री पर केन्द्रित ये कविताएँ सचमुच उनकी बात करती है - बिना किसी थोथे आश्वासन के।

शब्द सक्रिय हैं ने कहा…

कमल कुमार की कविताओं में स्त्री - संवेदना का व्याकरण पुरुष-प्रधान समाज में उसके दायरे और संकुचन को उद्घाटित करता है जिसमें उन्मुक्त जीवन जीने की अंदरुनी कसमसाहट है , एक गुप्त विद्रोह है और पुरुष को उसके सही तस्वीर का आईना दिखाता मद्धिम चोट भी | उनकी कविता का यह गुण कविता को पठनीय बनाता है | - सुशील कुमार

बेनामी ने कहा…

स्त्री संवेदना को लेकर अच्छी कविताएँ रची गयी हैं